Saturday, November 1, 2014

Hindi Motivational Stories..............................................पाप का बाप कौन ?

पाप का  बाप कौन ?

               एक पण्डित जी काशी से पढ़कर आये। कुछ समय बाद उनकी शादी हुई , स्त्री आयी। कई दिन हो गये। एक दिन स्त्री ने प्रश्न पूछा कि "पण्डितजी महाराज ! यह तो बताओ कि पाप का बाप कौन है ?" अब पण्डितजी पोथी देखते रहे , पर पता नहीं लगा , और उत्तर नहीं दे सके। पण्डितजी को बड़ी शर्म आयी कि स्त्री ने जो प्रश्न पूछा उसका जवाब कही भी नहीं मिल रहा है।

    कुछ सोच विचार कर वो फिर से काशी के लिए चल दिये , और रास्ते में एक वेश्या रहती थी। उसने पण्डितजी के बारे में सुना था कि काशी से पढ़कर आये है। वेश्या ने पूछा - ' पण्डितजी कहा जा रहे हो ? पण्डित ने कहा "काशी। "  वेश्या बोली क्यों ? पण्डित ने कहा -'स्त्री ने पूछा है -पाप का बाप कौन है ?  यही समझने के लिए जा रहे है। वेश्या बोली - ' इसका उत्तर तो हम ही आपको बता देँगे। ' पण्डितजी ने कहा ठीक ! काशी जाने से बच गये आप ही बता दे। वेश्या बोली - ' अमवस्या के दिन भोजन के लिये पधारो "

        पण्डित जी अमवस्या  के दिन वेश्या के घर गये जैसे ही पण्डित पहुँचे वेश्या ने सौ रुपये पण्डित जी को दिये और भोजन कि सारी सामग्री बता दी और पण्डितजी भोजन बनाने कि तैयारी करने लागे। तब वेश्या ने पण्डित जी के आगे एक और सौ रुपये रख दिये और कहा आप तो पक्का भोजन रोज पाते हो आज कुछ भोजन हम बनाएंगे और आप खा लेना। पण्डित ने सिर हिला दिया कोई हर्जे नहीं, हम घर पर स्त्री का हाथ का खाना खाते ही है। रसोई बनाकर वेश्या ने पण्डितजी को परोस दिया। और फिर सौ रुपये और पण्डितजी महाराज के आगे रख दिये और नमस्कार करके बोली - महाराज ! जब मेरे हाथ से बनी रसोई आप पा रहे है तो मैं अपने हाथ से ग्रास दे दूँ। हाथ तो वही है, जिन से रसोई बनायीं है. ऐसी कृपा करो। ' पण्डितजी ना नहीं कर सके और तैयार हो गये, उसने ग्रास को लेने के लिये मुहँ खोला , और वेश्या ने उसी समय उठाकर मारी थप्पड़ जोर से, और बोली - ' अभी तक आपको ज्ञान नहीं हुआ ? ख़बरदार ! जो मेरे घर का अन्न खाया तो ! आप जैसे पण्डित का मैं धर्म- भ्रष्ट करना नहीं चाहती। यह तो मैंने पाप का बाप कौन है, इसका ज्ञान कराया है। '

सीख - रुपये ज्यों - ज्यों आगे रखते गये पण्डितजी ढीले होते गये। इससे सिद्ध क्या हुआ ? पाप का बाप कौन हुआ ? रुपयो का लोभ ! "त्रिविध नरकस्वेद द्धार नाशनमात्मन :" (गीता १६ /२१ )
काम , क्रोध और लोभ - ये नरक के खास दरवाजे है। ( पर उपदेश कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।। )
दुसरो को उपदेश देने में तो लोग कुशल होते है, परंतु उपदेश के अनुसार ही खुद आचरण करनेवाले बहुत ही कम लोग होते है। इस लिये दुसरो को उपदेश देते समय जो पंडिताई होती है, वाही अगर अपने काम पड़े, उस समय आ जाय तो आदमी निहाल हो जाय। जानने की कमी नहीं है, काम में लाने की कमी है।   

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