Saturday, July 26, 2014

Hindi Motivational Stories........................साधु और चोर

साधु और चोर 


    एक बहुत पुरानी बात है एक नगर में राजा और रानी थे। उनका आपस में बहुत प्रेम था। राजा जो कहता रानी मान जाती और रानी जो कहता वो राजा मान जाता। एक दिन रात्री में राजा और रानी बातें कर रहे थे। उस समय वह एक चोर आया और वह दरवाजे के पीछे बैठकर राजा रानी की बाते सुनने लगा। राजा ने कहा रानी से - 'हमें आपने बेटे को साधु बनाना है।' रानी ने कहा 'ये तो हम नहीं बना सकते।' राजा ने कहा - 'जैसा संग वैसा रंग अगर हम अपने बेटे को किसी अच्छे सन्त की शरण दे तो वह साधु बन सकता है। ' रानी ने कहा -'गाँव के बहार चार साधु आये है। उनसे मिलकर किसी एक साधु के पास बेटे को भेज देना।

      चोर ये ये बाते सुनकर सोचने लगा चोरी से तो पकड़े जाने का डर और साधु बनने से तो कोई डर नहीं और वो भी राजा के लडके को शिष्य बनाकर खूब धन दक्षिणा मिल जायेगा। ये सोच कर वह जंगल की तरफ गया बगवा कपडे पहने और रस्ते में सोचने लगा की सिर्फ कपडे पहन कर कुछ नहीं होगा ज्ञान भी चाहिए इस लिए वह पहले सन्त के पास गया और पूछा 'महाराज कल्याण कैसे हो ?' सन्त बोला - 'किसी का जी मत दुःखओ ' चोर बोला और कोई बात संत बोला नहीं और कोई बात नहीं ! चोर फिर दूसरे सन्त के पास गया और पूछा - ' महाराज कल्याण कैसे हो ? ' सन्त बोला। ' बेटे झूठ नहीं बोलना चाहे कोई गाला ही आपका काटे जैसे देखो वैसे बोलो '

"साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।  
   जाके हिरदै साँच है , ताके हिरदै आप।"

     चोर तीसरे सन्त के पास गया और पूछा महाराज मेरा कल्याण कैसे होगा ? सन्त बोला, ' रात दिन बस राम राम करते रहो ' चोर बोले और कोई बात - सन्त बोला।, ' यही करो इस में सब आ गया '   फिर चोर चौथे सन्त के पास गया और पूछा -महाराज मेरा कल्याण कैसे होगा ? सन्त बोला  ' एक भगवान की शरण में जाने से - जैसे एक कुँवारी कन्या शादी के बाद सोचती है मेरी तो शादी हो चुकी है। ऐसे !' चोर बोला और कोई बात - सन्त बोला नहीं और कोई बात नहीं। … चोर ने चारों संतों की बात सुनकर आगे जाकर बैठ गया। और जब राजा आया तो चारों सन्त की बात सुनी और देखा की आगे एक और साधु है राजा उसके पास भी गया और पूछा कल्याण कैसे होगा ? चोर ने वही चार बातें जो सुनी थी वो बता दी और जब राजा ने पूछा और कोई बात तो इसने कहा - जैसा सन्त काहे वैसा करना चाहिये। राजा उसका दर्शन लेकर अपने महल की तरफ आते समय सोचने लगा पाँचवा सन्त ज्यादा ज्ञानी है सब ने एक - एक बात कही और उसने पांच बाते कही। उसको गुरु बनाना चाहिये।

    रात को राजा रानी से कहने लगा आज जंगल में जाकर संतो से मिलकर आया। रानी ने पूछा क्या सोचा आपने ? और इसी बीच राजा रानी जब बात कर रहे थे। तब चोर आकर चुपके से उनकी बातें सुनने लगा। राजा ने कहा मैंने सुना था चार सन्त है पर जंगल में तो पांच सन्त मिले और पांचवा सन्त मुझे ज्यादा ज्ञानी लगा उसने पांच ज्ञान की बाते कही बाकी सब ने एक-एक बात कही और आपका क्या विचार है ? रानी ने कहा जिनके पास ज्यादा ज्ञान हो वाही सन्त ठीक है। राजा रानी बहुत ही बोले और भावना वाले थे।

    चोर राजा रानी की बात सुनकर सोचने लगा मैंने तो झूठ कहा था। तब भी ये मुझे सन्त मान बैठे अगर मै सच में सन्त बन जाऊ तो क्या होग ! चोर की आत्मा जगी उसके ह्रदय में सच्चा साधु बनने की इच्छा उत्पन हुई। और वह सच्चे और अनुभवी गुरु की तलाश में जंगल जंगल भटकने लगा।उसने सोचा जिनसे मिलकर एक खिचाव होगा उन्हें ही वो अपना गुरु मानेंगे। उसकी जिज्ञासा देख भगवान खुद गुरु के रूप में प्रगट हुवे और उन्हें देखते ही खिचाव हुआ चोर उन्हें गुरु मानकर कहने लगे आप ही मेरे गुरु आप जो कहे सो मैं करूँगा। गुरु ने कहा सच मैं करेंगे ? चोर बोला हाँ जी। गुरु ने कहा  ' लो ये तलवार और जिसने कहा झूठ मत बोलो, और जिसने राम- राम का जप करने को कहा,  और जिसने एक भगवान की शरण जाने के लिए कहा, और जिसने कहा -किसी का जी मत दुखाओ ' उन सब के सिर काटकर ले आओ। '

    चोर तलवार लेकर भागा जँगल की तरफ जहाँ ये चारों सन्त बैठे थे। और रस्ते में उसका विचार चला किसी का जी मत दुखाओ तो मैं अगर मार देता हूँ तो जी दुखता हूँ। क्या करू ये चारों बातें तो मेरे ही सर में है। उसकी अन्तर मन ऐसा करने से माना कर दिया। और वह वहाँ से आपस गुरु के पास गया और गुरु ने कहा ले आये। गुरु देव ये चारों बातें मेरे सिर में है और मै आपको अपना सिर काटकर देता हूँ। तब गुरु ने कहा अब सिर काटने की कोई जरुरत नहीं ! मैं तुम्हें दिक्षा देता हूँ।

सीख - चोर ने चालाकी से पांच बातें धारण किया तो उसको भगवान का दर्शन हुआ और वह सन्त बन गया। और अगर कोई सच्चे मन से इन पांच बातों को धारण करे तो फिर कहना ही क्या !




Wednesday, July 23, 2014

Hindi Motivational Stories.................. मरकर आदमी कहा जाता है।

मरकर आदमी कहा जाता है।

    एक बार एक पण्डित काशी से पढ़ाई पूरी कर अपने शहर आया और जैसे ही स्टेशन से उतर कर अपने घर के लिए रिक्शा करना चाहा पर उस दिन शहर में कुछ हड़ताल के कारण रिक्शा नहीं मिलीं तो पण्डितजी अपने पोती पुस्तक लेकर चल पड़े पैदल और रस्ते में एक जनाजा निकल रहा था तो पास के एक घर के यहाँ बाहर खड़े हो गए। उस घर के ऊपर एक वेश्या रहती थी उसने एक लड़की से कहा पता करो ये आदमी नरक गया है या स्वर्ग ? लड़की गयी और कुछ समय के बाद वापस आई और कहा ये तो नरक में गया।

     पण्डितजी सोचने लगे कि ऐसी कौन सी विद्य है जिस से ये पता चलता है कि आदमी मरने के बाद नरक में या स्वर्ग में गया है? जरूर वेश्या के पास कोई अनोखी विद्या है जिसे समझना होगा। पण्डित जी ये सोच ही रहे थे, कि एक और मुर्दा वहाँ से निकला तब फिर वेश्या ने लड़की से फिर कहाँ पता करके आओ ये कहाँ गया है ? लड़की गयी और कुछ देर बाद आई और कहा कि ये तो स्वर्ग गया। ....

   पण्डित जी से रह न गया वे तुरंत सीढ़ियों से ऊपर गये और वेश्या ने उसे देखते ही समझ गयी की ये अपना कोई ग्राहक नहीं है। पण्डित जाते ही कहा 'नमस्ते बहन जी' वेश्या बोली 'में बहनजी नहीं हूँ में तो वेश्या हूँ ' पण्डित बोला 'हमारे लिए तो आप सब माँ बहन ही हो।' वेश्या बोली 'अच्छा बोलो क्या काम है।' पण्डित ने कहा 'आपके पास कौन सी विद्य है जिस से ये पता चलता है कि मरने के बाद आदमी कहा जाता है ? ' तब वेश्या ने उस लड़की को बुलाया और कहा इन्हें बताउ कि अपने कैसे परिक्षण किया।

    लड़की ने कहा पहले जो मुर्दा गया उसके जनाजे में शामिल लोगो से उनका घर का पता मालूम किया और उनके घर गयी तो वे बहुत रो रहे थे पर उसमें दुःख का भाव कम था और वहाँ के लोगो से पूछा कि ये आदमी कैसा था? मोहल्ले वालों ने कहा हम तो निहाल हो गये। 'वह तो रोज गाली देता था और आये दिन कोई न कोई हंगामा करता था।' तो मैं समझ गयी कि ये व्यक्ति नरक में गया है।

      और दूसरे के घर गयी तो वहाँ बहुत लोग एक घर में बैठे रो रहे थे। में समझ गयी कि ये वही घर है और फिर उनसे पता किया तो मालूम हुआ की वो सब का बहुत प्यारा था। और मोहल्ले वालो से पूछा तो वे कहने लगे हम तो अनाथ हो गये। हमारा मशीहा चला गया ! कहकर वो भी रो पड़े। तो मैं समझ गयी की ये आदमी स्वर्ग में गया है। पण्डित जी ये बाते सुनकर बोले ये बातें तो हमें पढ़ाया गया था पर मेरे दिमाग में आया ही नहीं। और लड़की को धन्यावाद देकर पण्डित जी अपने घर चल दिये।

सीख - पढ़ाई करने के बाद भी वो बातें हमारे जीवन में समय पर याद नहीं आते क्यों कि चिन्तन का अभाव है। पढ़ाई के बाद हम अपने कारोबार और व्यर्थ चिन्तन में रहते है जिस के कारण मुलभुत चीजे खो देते है। इस लिए सदा चिंतन मनन करते रहो।


Sunday, July 20, 2014

Hindi Motivational stories.....................................संतों की शरण

संतों की शरण ……………

      एक गाँव में एक ठाकुर थे। उनके परिवार में कोई नहीं था, केवल एक लड़का था। जो ठाकुर के घर काम करने लगा था। रोजाना सुबह वह बछड़े चराने जाता था और लौटकर आता तो रोटी खा लेता था। ऐसे समय बीतता  गया। एक दिन दोपहर के समय वह बछड़े चराकर आया तो ठाकुर की नौकरानी ने उसको ठंडी रोटी खाने के लिये दे दी। उसने कहा कि थोड़ी-सी छाछ या राबड़ी मिल जाय तो ठीक होगा।  नौकरानी ने कहा कि जा -जा, तेरे लिये बनायीं है क्या? राबड़ी ! जा, ऐसे ही खा ले, नहीं तो तेरी मरजी ! उस लडके के मन में गुस्सा आया  " कि मैं धुप में बछड़े चराकर आया हूँ, भूखा हूँ, पर मेरे को बाजरे की रूखी रोटी दे दी, राबड़ी माँगा तो तिरस्कार कर दिया।" वह भूखा ही वहाँ से चला गया। गाँव के पास एक शहर था। उस शहर में संतों की एक मण्डली आयी हुई थी। वह लड़का वहाँ चला गया। संतों ने उसको भोजन कराया और पूछा कि तेरे परिवार में कौन है ? उसने कहा कोई नहीं है। तो संतों ने कहा कि तू साधु बन जा। लड़का साधु बन गया। फिर वह पड़ने के लिए काशी चला गया। वहाँ पढ़कर वह विद्वान हो गया। फिर समय पाकर वह मण्डलेश्वर (महन्त ) बन गया। मण्डलेश्वर बनने के बाद एक दिन उनको उसी शहर में आने का निमन्त्रण मिला। वे अपनी मण्डली को लेकर वहाँ आये। और ठाकुर भी वहाँ प्रवचन सत्संग में आये उनको सुने और सत्संग के बाद वे स्वामी से प्रार्थना करने लगे की हमारे घर भी एक दिन आओ। और मण्डेलश्वर जी ने उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया।
     
            मण्डलेश्वर जी अपनी मण्डली के साथ ठाकुर के यहाँ पधारे। उनका सम्मान  सत्कार किया गया। और सत्संग हुआ उसके बाद सब के लिये भोजन भी था। मण्डलेश्वर जी  के सामने तरह-तरह के भोजन के पदार्थ रखे हूवे थे। ठाकुर उनके पास आये और साथ में नौकर भी था जो हलवा का पात्र पकड़ा हुआ था ,और ठाकुर ने महाराज से विनंती की महाराज! मेरे हाथ से भी थोड़ा हलवा खावो। और तब महाराज जी को हँसी आयी तो ठाकुर ने हँसी का कारण पूछा ? तब महाराज ने  सब के सामने वो बात सुनाई।  ठाकुर जी आपने मुझे नहीं पहचाना में आपके यहाँ कार्य किया करता था और एक दिन थोड़ी सी राबड़ी माँगी थी पर नौकरानी ने मना कर दिया  और उसके बाद में यहाँ से चला गया। पास में ही सन्त-मण्डली ठहरी हुई थी, मैं वहाँ चला गया। पीछे काशी चला गया, वहाँ पढ़ाई की और फिर मण्डलेश्वर बन गया।

             यही वह आँगन है, जहाँ आपकी नौकरानी ने मेरे को थोड़ी-सी-राबड़ी देने से मना कर दिया था। अब मैं भी वही हूँ, आँगन भी वही है और आप भी वही है, पर अब आप अपने हाथ से मोहनभोग दे रहे हो कि महाराज,कृपा करके थोडा मेरे हाथ से ले लो !

       माँगे मिले न राबड़ी, करुँ कहाँ लगी वरण। 
    मोहनभोग गले में अटक्या, आ सन्तो की शरण।।

सीख - सन्तो की शरण लेने मात्र से इतना हो गया कि जहाँ राबड़ी नहीं मिलती थी. वहाँ मोहनभोग भी गले में अटक रहा है। अगर कोई भगवन की शरण ले ले तो वह सन्तों का भी आदरणीय हो जाय। लखपति-करोड़पति बनने में सब स्वतंत्र नहीं है, पर भगवान के शरण होने में, भगवान का भक्त बनने में सब-के-सब स्वतन्त्र है और ऐसा मौका इस मनुष्य जन्म में ही है। 



Thursday, July 17, 2014

Hindi Motivational Stories.............................................जापानी सैनिक

जापानी सैनिक

    जापान के लोग अपनी देशभक्ति और राजभक्ति के लिये प्रसिद्ध है। अपने देश के लिये हँसते-हँसते प्राण देना जापान के लोग बड़े गौरव की बात मानते है। एक बार रूस और जापान में युद्ध हुआ था। रूस-जैसे बड़े देश को जापान ने उस बार हरा दिया था। उस युद्ध में जापानी सैनिकों ने वीरता के बड़े-बड़े काम किये थे। उन में से एक और उदहारण आपको सुना रहे है।

    रूस-जापान के एक और युद्ध की बात है। रूस की सेना ने एक पहाड़ी पर आक्रमण किया। उस पहाड़ी पर जापान के थोड़े-से सैनिक और एक भारी तोप थी। रुसी सैनिक उस तोप पर अधिकार करना चाहते थे, क्यों कि उनके पास वहाँ उतनी बड़ी तोप नहीं थी। रूस के सैनिकों का आक्रमण बहुत भयानक था। वे संख्या में बहुत अधिक थे। जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा। वे अपनी भारी तोप हटा नहीं सके। उस तोप तथा पहाड़ी पर रुसी सेना ने अधिकार कर लिया।

     उस तोप को चलाने वाला जो जापानी तोपची था, उसे यह बात सहन नहीं हुई कि उसकी तोप से शत्रु उसी के पक्ष के सैनिकों के प्राण ले। रात में बिना किसी को बताये वह पेट के बल सरकता, छिपता उस पहाड़ी पर चढ़ गया। वह उस तोप के पास तो पहुँच गया, किन्तु तोप को हटाने या नष्ट करने का उसके पास कोई उपाय नहीं था। अन्त में वह उस तोप की नली में घुस गया।

     रात में वहाँ बरफ पड़ी। तोप की नली में घुसे तोपची को ऐसा लगता था कि सर्दी के मारे उसकी नसों के भीतर रक्त जमता जा रहा है। उसकी एक-एक नस फटी जा रही थी। सारे शरीर में भयंकर पीड़ा हो रही थी। फिर भी वह दाँत-पर-दाँत दबाये वहाँ चुपचाप पड़ा रहा। सुबह हुआ। रुसी सैनिक तोप के पास आये। उन्होंने तोप की परीक्षा लेने का निश्चय किया। तोप में गोला-बारूद भरा गया। जैसे ही तोप छूटी, उसकी नली में घुसे जापानी सैनिक के चिथड़े उड़ गये और तोप के सामने का वृक्ष रक्त से लाल हो गया। तोप की नली से रक्त निकल रहा था। रुसी सैनिकों ने वह रक्त देखा तो कहने लगे - "ऐसा लगता है कि तोप छोड़कर जाते समय जापानी लोग इस में कोई प्रेत बैठा गये है। वह अब रक्त उगल रहा है। आगे पता नहीं क्या करेगा, यहाँ से भाग चलना चाहिये। "

    प्रेत के भय से रुसी सैनिक वह तोप वहीँ छोड़कर उस पहाड़ी से भाग गये। इस बार रूस जीत कर भी हार गया।

सीख - एक जापानी तोपची ने अपना बलिदान करके वह काम कर दिखाया जो एक सेना नहीं कर सकी थी।

Wednesday, July 16, 2014

Hindi Motivational stories..........................जापानी सैनिकों की देशभक्ति

जापानी सैनिकों की देशभक्ति 

    जापान के लोग अपनी देशभक्ति और राजभक्ति के लिये प्रसिद्ध है। अपने देश के लिये हँसते-हँसते प्राण देना जापान के लोग बड़े गौरव की बात मानते है। एक बार रूस और जापान में युद्ध हुआ था। रूस-जैसे बड़े देश को जापान ने उस बार हरा दिया था। उस युद्ध में जापानी सैनिकों ने वीरता के बड़े-बड़े काम किये थे। उन में से एक उदहारण आपको सुना रहे है। 

          एक किले पर रुसी सेना का अधिकार था। किले के चारों ओर गहरी खाई थी और उस में पानी भरा हुआ था। खाई के ऊपर का पुल रुसी लोगों ने तोड़ दिया था। किले में रूस के थोड़े-से सैनिक थे, किन्तु खाई को पार किये बिना किले पर अधिकार नहीं हो सकता था। युद्ध में उस किले का बहुत महत्त्व था। जापानी सेनापति के पास खाई पर पुल बनाने का सामान नहीं था। और डर यह था कि दूसरे दिन और रुसी सेना वहाँ आ जायेगी। 

   सेनापति कुछ सोचकर सैनिकों से कहा - "इस खाई को मनुष्यों के शरीर से भर देने को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है। जापान के लिये जो प्रसन्नता से अपना बलिदान करना चाहें, वे दो पद आगे बढ़े। " पूरी-की-पूरी सेना दो पद आगे बढ़ आयी। एक भी सैनिक ऐसा नहीं था, जो प्राण देने में पीछे रहना चाहता हो। सेनापति ने सब को नम्बर बोलने को कहा। उसके बाद उसने आज्ञा दी कि प्रति पाँचवा सैनिक कपड़े उतार दे और हथियार रखकर खाई में कूद पड़े। एक के ऊपर एक जापानी सैनिक उस खाई में धड़ाधड़ कूदने लगे। खाई उनके शरीर से भर गयी।

       अपने देशभक्त वीर सैनिकों की लाशों के पुल पर से जापानी सेना और उनकी भारी तोपो ने पुल पार करके उस किले पर अधिकार कर लिया। 

सीख - जिन सैनिकों में इस तरह का साहस और जो बलिदान के लिए पहले खुद आगे बढ़ता है। वह देश कभी नहीं हारता। ऐसे वीरो को पूरी दुनिया सलाम करती है। 


Tuesday, July 15, 2014

Hindi Motivational Stories.........................सर गुरुदास की मातृभक्ति

सर गुरुदास की मातृभक्ति 

     बहुत पुरानी बात है उस समय की है जब भारत में अंग्रेजो का राज्य था। बहुत थोड़े से भारतवासी उस समय ऊँचे सरकारी पदों पर नियुक्त हो सकते थे। सर गुरुदास की माँ बचपन में ही चल बसी, तब उनका पालन पोषण यहाँ तक की दूध भी धाय ने पिलाया और इस तरह गुरुदास बड़े हुए। बुढ़िया धाय को गुरुदास माता के रूप में ही देखते थे। कुछ समय के बाद धाय देहात में चली गई।

     समय के साथ बहुत बदलाव हुआ। गुरुदास कलकत्ता के हाईकोर्ट के न्याधीश (बड़े जज ) बन गए और साथ ही कलकत्ता-विश्वविद्यालय के वोइसचांसलर भी बने। एक बार सर गुरुदास हाईकोर्ट में बैठे कोई मुकदमा सुन रहे थे।उसी समय एक बुढ़िया वह आयी।बुढ़िया धाय बहुत समय से कलकत्ता नहीं आयी थी। एक दिन वह गंगा स्नान करने कलकत्ता आयी और गंगा स्नान के बाद उसे गुरुदास की याद आयी। उसने सोचा चलो गुरुदास से मिलते हुए जाऊँ। लोगो से पूछती -पूछती वह हाईकोर्ट के पास आ गयी।

     देहात की एक गरीब बुढ़िया मैले कपड़े पहने आयी थी। गंगा स्नान करने से उसके कपडे भीगे थे। उसने सूखे कपडे भी नहीं पहने थे। हाईकोर्ट का चपरासी उसे कमरे के भीतर नहीं जाने दे रहा था, और वह उससे हाथ जोड़कर कह रही थी - 'भैया ! मुझे अपने गुरुदास से मिल लेने दो। " अचानक सर गुरुदास की दॄष्टि दरवाज़े की ओर चली गयी।

       वे न्याधीश के आसन से झटपट खड़े हो गये। उनको आते देखकर चपरासी एक ओर हट गया। सर गुरुदास ने भूमि में लेटकर उस मैली-कुचैली गरीब बुढ़िया को दण्डवत-प्रणाम किया। सब लोग हक्के-बक्के-से देखते रह गये। देहाती बुढ़िया क्या जाने कि हाईकोर्ट क्या होता है और जज क्या होता है। उसकी तो दोनों आँखों से आँसू की धारा चलने लगी। उसने कहा - " मेरा गुरुदास ! जीता रह बेटा। "

   सर गुरुदास ने सब को बताया - " ये मेरी माता है। इन्होने मुझे दूध पिलाया है। अब आज मुकदमा बन्द रहेगा। मैं इन्हें लेकर घर जा रहा हूँ। " उस बुढ़िया को जस्टिस सर गुरुदास आदर पूर्वक अपने घर ले गये। वहाँ उन्होंने उसका खूब आदर-सत्कार किया। दूध पिलाने वाली धाय भी माता ही है। जो इतने बड़े जज होकर धाय का भी इतना आदर करते थे, वे अपनी माता स्वर्णमणि देवी का कितना आदर करते होंगे।

सीख - जो लोग पढ़-लिखकर और ऊँचे पद पाकर अपने माता-पिता तथा घर-गाँव के बड़े लोगों का आदर नहीं करते, वे तो ओछे स्वाभाव के कहे जाते है। अच्छे पुरुष वही है, जो पद, विधा और बड़ाई पाकर भी अभिमान नहीं करते। वे सदा नम्र बने रहते है और अपने से बड़ों का पूरा आदर करते है। 

Hindi Motivational Stories........................राजा मानिचन्द्र की उदारता

राजा मानिचन्द्र की उदारता 

         बंगाल में गुष्करा  एक छोटा-सा स्टेशन है। एक दिन रेलगाड़ी आकर स्टेशन पर खड़ी हुई। उतरनेवाले झटपट उतरने लगे और चढ़ने वाले दौड़-दौड़कर गाड़ी में चढ़ने लगे। एक बुढ़िया भी गाड़ी से उतरी। उसने अपनी गठरी खिसकाकर डिब्बे के दरवाजे पर तो कर ली थी, किन्तु बहुत चेष्टा करके भी उठा नहीं पायी थी। कई लोग गठरी को लाँघते हुए डिब्बे में चढ़े और डिब्बे से उतरे। बुड़ियाने कई लोगोँ से बड़ी दीनता से प्रार्थना की कि उसकी गठरी उसके सिर पर उठाकर रख दे। किन्तु किसी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। लोग ऐसे चले जाते थे, जैसे बहिरे हो। गाड़ी छूटने का समय हो गया। बेचारी बुढ़िया इधर-उधर बड़ी व्याकुलता से देखने लगी। उसकी आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे।

      उसी समय एकाएक प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठे एक सज्जन की दॄष्टि बुढ़िया पर पड़ी। गाड़ी छूटने की घंटी बज चुकी थी। किन्तु उन्होंने इसकी परवा नहीं की। अपने डिब्बे से वे शीघ्रता से उतरे और बुढ़िया की गठरी उठाकर उन्होंने उस के सिर पर रख दी। वहाँ से बड़ी शीघ्रता से अपने डिब्बे में जाकर जैसे ही वे बैठे, गाड़ी चल पड़ी। बुढ़िया सिर पर गठरी लिये उन्हें आशीर्वाद दे रही थी -" बेटा ! भगवान तेरा भला करें। "

     आप जानते हो कि बुढ़िया की गठरी उठा देनेवाले सज्जन कौन थे ? वे थे कासिम बाजार के राजा मानिचन्द्र नन्द, जो उस गाड़ी से कलकत्ते जा रहे थे। सचमुच वे राजा थे, क्यों कि सच्चा राजा वह नहीं है जो धनी है या बड़ी सेना रखता है। राजा वह है जो समय पर प्रजा की मदत करे।

सीख -  सच्चा राजा वह है, जिसका हृदय उदार है, जो दीन-दुःखियों और दुर्बलों की सहायता कर सकता है ? ऐसे सच्चे राजा बनने का आप सब हम सब का अधिकार है। तुम्हे इसके लिये प्रयत्न करना चाहिये। मुम्बई, कलकत्ता, गुजरात ऐसे  … बहुत से शहरों में जहाँ रेलगाड़ी चलती है। वहाँ ऐसे बहुत उदहारण आज भी देखने को मिलते है। 

Sunday, July 13, 2014

Hindi Motivational stories.........................वचन का पालन ऐसा भी ……

वचन का पालन ऐसा भी ……

    स्पेन देश के एक छोटे-से गाँव में एक माली अपने बगीचे को सींचने और पेड़-पौधों को ठीक करने में लगा था। उसी समय एक मनुष्य दौड़ता हुआ बगीचे में आया। वह मनुष्य लम्बा था, उसका सर नंगा था और  बाल बिखरे हुए थे। उसने एक कोट पहन रखा था। बगीचे के स्वामी के सामने आकर हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता हुआ वह बोला - " आप मेरी रक्षा कीजिये। दिन भर के लिये मुझे कहीं छुपा दीजिये। कुछ लोग मेरे पीछे पड़े है। वे मुझे मार डालना चाहते है। "

       वह आदमी थर-थर काँप रहा था और भय के मारे बार-बार पीछे की ओर मुड़कर बगीचे के फाटक की तरफ देख रहा था। बगीचे के स्वामी को उस पर दया आ गयी। उन्होंने उसे एक कोठरी दिखाकर कहा - "उसमें रद्दी फावड़े, टोकरियाँ तथा दूसरा सामान पड़ा है। तुम उसी में छिपकर बैठ जाओ। मैं किसी को तुम्हारा पता नही बताऊँगा। रात को अँधेरा होने पर तुम्हे यहाँ से निकाल दूंगा। "

     थोड़ी देर में कुछ लोग एक युवक की मृत देह उठाये वहाँ आये। बगीचे के स्वामी ने उस युवक को देखा और "बेटा !- बेटा ! कहकर रोता हुआ उस से लिपट गया। वह युवक उसका पुत्र था। आज सवेरे वह अकेले ही घर से घूमने निकला था !

   जो लोग उस युवक की मृत देह लेकर आये थे , उन्होंने बताया -"गाँव के बाहर केवेलियर जाति के एक मनुष्य ने इसका गला घोंटकर मार डाला है। हमलोग दौड़े, किन्तु वह भागकर अपने गाँव में ही कही छिप गया।  हमें बहुत दुःख है कि हमारे पहुँचाने में देर हो गयी। आपके पुत्र के प्राण हम नहीं बचा सके। "

   उस समय केवेलियर जाति और स्पेन के दूसरे लोगों में दुश्मनी थी। इसी वजह से केवेलियर जाति के लोग स्पेन के लोगों को छिपकर मार दिया करते थे। बगीचे के स्वामी को उन लोगों ने हत्यारे का रूप-रंग उसके कोट का रंग बताया। ये बात सुनते ही बगीचे का स्वामी सिर पकड़कर बैठ गया। वह समझ गया कि जिस मनुष्य को उसने कोठरी में छिपा रखा है, वही उसके पुत्र का हत्यारा है। हत्या करके पकड़े जाने के भय से यहाँ छिपा है। लेकिन उस हत्यारे के सम्बन्ध में एक शब्द भी बगीचे के स्वामी ने नहीं कहा।

    पूरा दिन अपने पुत्र का अंतिम संस्कार करने में बीत गया और जब सब लोग सो गए। रात हुई, तो बगीचे का स्वामी अपने बगीचे में आये। उसने वह कोठरी खोली और उस में छिपे मनुष्य से कहा - "तुम्हे पता है कि दिन में तुमने जिस युवक की हत्या,  वह मेरा पुत्र था। " हत्यारा काँपने लगा। भय के मारे उस से बोला नहीं गया। उसने समझ लिया कि अब उसके प्राण नहीं बच सकते। लेकिन बगीचे के स्वामी ने उसे निर्भय करते हुए कहा - "डरो मत ! मैंने तुम्हें शरण दी है और तुम्हारी रक्षा का वचन दिया है, में अपने वचन का पालन करूँगा। तुम रातों रात यहाँ से भाग जाओ। " हत्यारा उस बगीचे के स्वामी के पैरों पर गिर पड़ा और फुट-फुटकर रोने लगा। बगीचे के स्वामी ने उसे उठाया और कहा - "मेरा बेटा अब लौट के आ नहीं सकता। तुम व्यर्थ देर मत करो। "

सीख - अपने वचन के पालन के लिये अपने पुत्र के हत्यारे को भी क्षमा करने वाले ऐसे पुरुष ही संसार में महापुरुष कहे जाते है। 

Friday, July 11, 2014

Hindi Motivational Stories..........................दो आदर्श मित्र

दो आदर्श मित्र

  बहुत सालों पुरानी ये बात है। इंगलैंड के एक छोटे शहर में मिनिस्टर नाम के एक प्रसिद्ध स्कूल में दो मित्र पढ़ते थे। एक का नाम था निकोलस और दूसरे का नाम था बेक। इन दो की विशेषता अलग-अलग थी। निकोलस आलसी, नटखट और झूठा था। परन्तु बेक परिश्रमी, सीधा और सच्चा लड़का था। इतना होने पर भी बेक और निकोलस में बहुत पक्की मित्रता थी।

    एक दिन पाठशाला के टीचर किसी काम से थोड़ी देर के लिये कक्षा से बाहर चले गये। लड़कों ने पढ़ना बन्द कर दिया और वे बातचीत करने लगे। नटखट निकोलस को धूम करने की सूझी। उसने कक्षा में लगा दर्पण उठाकर पटक दिया। दर्पण चूर-चूर हो गया। दर्पण के टूटते ही सब लड़के चौक गये। पूरा सन्नाटा छा गया। और तब निकोलस को भी लगा कि उस से बहुत बड़ी भूल हुई। मार पड़ने के भय से वह अपने स्थान पर जाकर चुपचाप बैठ गया और सिर झुकाकर पढ़ने में लग गया।

       शिक्षक ने कक्षा में आते ही दर्पण के टुकड़े देखे। वे बहुत कठोर स्वाभाव के थे। बड़े क्रोध से डाँट कर उन्होंने कहा - 'यह उत्पात किसने किया है ? वह अपने स्थान पर खड़ा हो जाय। ' अब भयके मारे कोई लड़का बोला नहीं। लेकिन शिक्षक यु सहज छोड़ देने वाले नहीं थे। उन्होंने एक - एक लडके को खडा करके पूछना शुरू किया। जब निकोलस की बारी आयी तो दूसरे लड़कों के समान उसने भी कह दिया - ' मैंने दर्पण नहीं तोड़ा। '

     बेक ने जब देखा कि उसका मित्र निकोलस मार पड़ने के डर से झूठ बोल गया है तो उसने सोचा कि 'शिक्षक अवश्य दर्पण तोड़नेवाले का पता लगा लेंगे। और निकोलस को झूठ बोलने के कारण और भी ज्यादा मार पड़ेगी। इसलिये मुझे अपने मित्र को बचा लेना चाहिये। ' वह उठकर खड़ा गया और बोला- दर्पण मेरे हाथ से टूट गया है। अब सब लडके और निकोलस भी आश्चर्य से बेक का मुख देखने लगे। शिक्षक ने बेत उठा लिया और बेक को पीटने लगे। बेचारे बेक के शरीर पर नीले- नीले दाग पड़ गये, किन्तु न तो वह रोया और न ही चिल्लाया।

   जब पाठशाला की छुट्टी हुई, सब लड़कों ने बेक को घेर लिया। निकोलस रोता-रोता उसके पास आया और बोला - "बेक ! मैं तुम्हारे इस उपकार को कभी नहीं भूलूँगा। तुमने मुझे आज मनुष्य बना दिया। मैं अब कभी झूठ नहीं बोलूँगा, ऊधम नहीं करूँगा। अब मैं पढ़ने में ही परिश्रम करूँगा। "  निकोलस सचमुच उसी दिन से सुधर गया। वह पढ़ने में परिश्रम करने लगा। बड़ा होने पर उसने इतनी उन्नति की कि वह न्याधीश के पद पर पहुँच गया।

Tuesday, July 8, 2014

Hindi Motivational stories.......... ............महान शंकर की ईमानदारी

महान शंकर की ईमानदारी

      महान शंकर का जन्म सीलोन में हुआ था। सीलोन का पुराना नाम सिंहलदीप है। इसे लंका भी कहा जाता है। महान शंकर एक आदर्श पुरुष हो गये है। उनका बचपन बड़ी दरिद्रता में बिता था। उनके पिता दिवाकर बहुत कम पढ़े-लिखे थे। जंगली जड़ी-बूटियाँ बेचकर वे अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। अपने पुत्र शंकर को उन्होंने थोड़ी-बहुत शिक्षा दी और वैधक भी सिखाया।

   कुछ दिनों  के बाद सीलोन में अकाल आया और उस समय दिवाकर की मृत्यु हो गयी। उस समय शंकर मात्र 18 साल के थे। अब दिवाकर के मृत्यु के बाद सारा परिवार का बोज शंकर पर आ गया। एक तो वे लडके थे, दूसरा उनके गाँव में दूसरे भी कई अच्छे वैध थे। और वे शंकर से द्धेष रखते थे और रोगियों को भड़काया करते थे। कि  'शंकर को वैध का कुछ भी ज्ञान नहीं है। वह तो रोगियों की बीमारी बढ़ा देता है। ' इन सब कारणों से शंकर को वैध से जो दो-चार आने मिलते भी थे, वे भी बंद हो गए। उनको और उनके परिवार को कई बार केवल पानी पीकर रहना पड़ता था। उसकी माता दूसरों का अन्न पीसती थी और उनकी बहिन फूलों की माला बनाती थी, जिसे वे बेच आते थे। इस प्रकार वह परिवार बड़े कष्ट में जीवन बिता रहा था।

    अचानक एक दिन सिंहलदीप के एक प्रसिद्ध धनी का पत्र शंकर को मिला। उस धनी का नाम लोरेटो बेंजामिन था। शंकर के पिता दिवाकर लोरोटो के पारिवारिक चिकिस्तक थे। लोरोटो बीमार था और उसने शंकर को अपनी चिकित्सा करने के लिये बुलाया था। पत्र पाकर शंकर लोरोटो के गाँव गये और उसकी चिकित्सा करने के लिये वहीं ठहर गए। लोरोटो का एक बड़ा बगीचा था। किसी समय वह बगीचा बहुत सुन्दर रहा होगा, किन्तु उन दिनों तो उसके बीच के मकान खंडहर हो गये थे। बगीचे में घास और जंगली झाड़ियों उग गयी थी। उस में कोई आता-जाता नहीं था। शंकर जड़ी-बूटी ढूंढने उस बगीचे में प्राय; जाने लगे।

    एक दिन शंकर जड़ी-बूटी ढूंढते उस बगीचे में घूम रहा था। घूमते समय एक जगह उसका पैर धँस गया। और उसने देखा की एक ताँबे का हंडा जमीन में गड़ा है। शंकर ने मेहनत कर उस स्थान की मिट्टी हटाई तो बहुत से हंडे दिखाई पड़े। बहुत मेहनत और मुश्किल से एक हंडे के मुख से ऊपर का ढक्कन हटा सका। और जैसे उसने अन्दर देखा तो उसका आश्चर्य का ठिकाना न रहा। हंडा सोने और अशर्फियों से भरा था।

      शंकर बड़े दरिद्र थे। उनके सारे परिवार को उपवास करने पड़ते थे।और उनके सामने सोने हीरो से भरे हंडे थे। लेकिन फिर भी शंकर के मन में लोभ नहीं था। वो सोचा ' बेचारा लोरोटो धन की चिन्ता के कारण ही रोगी बना है उस पर कर्ज  हो गया था। अब वह स्वस्थ हो जाएगा। ' वह तुरंत लोरोटो के पास आकर सारी बात बता दी और दोनों मिलकर हंडे लोरोटो के घर में सुरक्षित रखा दिये। तब लोरोटो ने शंकर को 200 सोने के सिक्खे और 500 रुपये देना चाहा। पर शंकर ने कहा - "मैं आपका धन नहीं लूंगा। मैंने आपके ऊपर कोई उपकार नहीं किया है। मैंने तो एक साधारण कर्तव्य का पालन किया है। "

   लोरोटो पर शंकर की ईमानदारी और सद्व्यवहार का बड़ा प्रभाव पड़ा। आगे चलकर उसने अपनी इकलौती पुत्री का विवाह शंकर के साथ कर दिया। एक धनी की एक मात्र कन्या से विवाह करके भी शंकर ने उनका धन नहीं लिया। शंकर खुद परिश्रम करके ही अपना काम चलाया। अपने परिश्रम तथा उदारता से वे सीलोन में बहुत प्रसिद्ध और संपन्न हो गये थे।

सीख - सच्चे और ईमानदार व्यक्ति की हमेशा जीत होती है। 

Thursday, July 3, 2014

Hindi Motivational Stories....................छत्रपति महाराज शिवाजी की उदारता

छत्रपति महाराज शिवाजी की उदारता 


   एक बार एक बालक जो तेरा-चौदह वर्ष का था। रात में किसी प्रकार छिपकर उस कमरे में पहुँचे जहा शिवाजी महाराज सो रहे थे। अब उसने देखा की महाराज सो रहे है। तो उसने तलवार निकाली महाराज को मारने ही वाला था कि पीछे से तानाजी ने उसका हाथ पकड़ लिया। छत्रपति शिवाजी महाराज के विश्वासी सेनापति तानाजी ने उस लड़के को पहले ही देख लिया था और वे यह देखना चाहते थे कि वह क्या करने आया है।  इसी बीच शिवाजी की नींद खुल गयी। उन्होंने पूछा बालक से -'तुम कौन हो ? और यहाँ क्यों आये हो?बालक ने कहा - ' मेरा नाम मालोजी है। मैं आपकी हत्या करने आया था। ' शिवाजी बोले - 'तुम मुझे क्यों मारना चाहते हो ? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ? ' बालक बोला - ' आपने मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा है। लेकिन मेरी माँ कई दिनों से भूखी है। हम बहुत गरीब है। आपके शत्रु शुभगारा ने मुझे कहा था कि यदि मैं आपको मार डालू तो वे मुझे बहुत धन देंगे। '

 इतने में तानाजी बोले - 'दुष्ट लडके ! धन के लोभ से तू  महाराष्ट्र के उद्धारक का वध करना चाहता था? अब मरने के लिए तैयार हो जा। ' बालक तनिक भी डरा नहीं। उसने तानाजी के बदले शिवाजी से कहा - ' महाराज ! मैं मरने से डरता नहीं हूँ। मुझे अपने मरने की चिन्ता भी नहीं है। लेकिन मेरी माँ बीमार है और कई दिनों से भूखी है। वह मरने को पड़ी है। आप मुझे एक बार घर जाने दीजिये। उनसे माफ़ी माँगकर माता के चरणों में प्रणाम करके मैं फिर आपके पास लौट आऊंगा। मैंने आपको मारने का यत्न किया। अब आप मुझे मार डाले; यह तो ठीक ही है.परन्तु मुझे थोड़ा-सा समय दीजिये। '

      तानाजी बोले - ' तू हमें बातो से धोखा देकर भाग नहीं सकता। ' बालक बोला - ' मैं भागूँगा नहीं। मैं मराठा हूँ, मराठा झूठ नहीं बोलता। ' शिवाजी ने उसे घर जाने की आज्ञा दे दी। बालक घर गया। दूसरे दिन सबेरे जब छत्रपति महाराज शिवाजी राजदरबार में सिंहासन पर बैठे थे, तब द्धारपालने आकर सूचना दी कि एक बालक महाराज के दर्शन करना चाहता है। बालक को बुलाया गया। वह वही मालोजी था। मालोजी दरबार में आकर छत्रपति को प्रणाम किया। और बोला - 'महाराज ! मैं आपकी उदारता का आभारी हूँ। माता का दर्शन कर आया हुँ. अब आप मुझे मृत्यु दण्ड दे।

    छत्रपति महाराज सिँहासन से ऊठे। और बालक को गले से लगा लिया और कहा -' यदि तुम्हारे-जैसे वीर एवं सच्चे लोगों को प्राण दण्ड दे दिया जायेगा तो देश में रहेगा कौन ?
 तुम्हारे-जैसे बालक ही तो महाराष्ट्र के भूषण है। '

  इस तरह बालक मालोजी शिवाजी महाराज की सेना में नियुक्त हो गया। छत्रपति उसकी माता की चिकित्सा के लिए राजवैध को भेजा और बहुत-सा धन उसे उपहार में दिया।

सीख - सुना है -"दिल साफ तो मुराद हासील " " सच्चे दिल पर साहेब राजी "
 इस लिये सच्चे बनो नेक बनो।
 तो दिल की हर मुराद पूरी होगी। 

Wednesday, July 2, 2014

Hindi Motivational Stories..............................भामाशाह का त्याग

भामाशाह का त्याग 

     ये उस समय की बात है जब चित्तौड़ पर अकबर की सेना ने अधिकार कर लिया था। महाराणा प्रताप अरावली पर्वतो के वनों में अपने परिवार तथा राजपूत सैनिकों के साथ जहाँ-तहाँ भटकते-फिरते थे। महाराणा तथा उनके छोटे बच्चों को कभी-कभी दो-दो, तीन-तीन दिनों तक घास के बीजों की बनी रोटी तक नहीं मिलती थी। चित्तौड़ के महाराणा और सोने के पलंग पर सोने वाले उनके बच्चे भूखे-प्यासे पर्वत की गुफाओं में घास-पत्ते खाते और पत्थर की चट्टान पर सोया करते थे। लेकिन महाराणा प्रताप को इन सब कष्टों की चिन्ता नहीं थी। उन्हें एक ही धुन थी कि शत्रुओं से देश का चित्तौड़ की पवित्र भूमि का उद्धार कैसे किया जाय।

   किसी के पास काम करने का साधन न हो तो उसका अकेला उत्साह क्या काम आवे। महाराणा प्रताप और दूसरे सैनिक भी कुछ दिन भूखे-प्यासे रह सकते थे: किन्तु भूखे रहकर युद्ध कैसे चलाया जा सकता है। छोड़ो के लिये, हथियारों के लिए, सेना को भोजन देने के लिए तो धन चाहिये। और महाराणा के पास फूटी कौड़ी नहीं थी। उनके राजपूत और भील सैनिक अपने देश के लिये मर-मिटने को तैयार थे। उन देशभक्त वीरों को वेतन नहीं लेना था: किन्तु बिना धन के घोड़े कहाँ से आवें, हथियार कैसे बने, मनुष्य और घोड़ो को भोजन कैसे दिया जाय। इतना भी प्रबन्ध न हो तो दिल्ली के बादशाह की सेना से युद्ध कैसे चले। महराणा प्रताप को बड़ी निराशा हो रही थी येही सब बातें सोचकर। और अंत में एक दिन महाराणा ने अपने सरदारों से बिदा ली, भीलों को समझकर लौटा दिया। प्राणों से प्यारी जन्म-भूमि को छोड़कर महराणा राजस्थान से कहीं बाहर जाने को तैयार हुए।

      जब महाराणा अपने सरदारों को रोता छोड़कर महारानी और बच्चों के साथ वन के मार्ग से जा रहे थे, महाराणा के मन्त्री भामाशाह घोडा दौड़ाते आये और घोडे से कूदकर महाराणा के पैरों पर गिरकर फुट-फुटकर रोने लगे -'आप हम लोगों को अनाथ करके कहाँ जा रहे है ?'

    महाराणा प्रताप भामाशाह को उठाकर ह्रदय से लगाया और आँसू बहाते हुए कहा - 'आज भाग्य हमारे साथ नहीं है। अब यहाँ रहने से क्या लाभ ? मैं इसलिये जन्म-भूमि छोड़कर जा रहा हूँ कि कहीं से कुछ धन मिल जाय तो उस से सेना एकत्र करके फिर चित्तौड़ का उद्धार करने लौटूँ। आप लोग तब तक धैर्य धारण करें। ' भामाशाह ने हाथ जोड़कर कहा -'महाराणा ! आप मेरी एक प्रार्थना मान लें। ' राणाप्रताप बड़े स्नेह से बोले -'मन्त्री ! मैंने आपकी बात कभी टाली है क्या ?'

      भामाशाह के पीछे उनके बहुत-से-सेवक घोड़ों पर अशर्फियों के थैले लादे ले आये थे। भामाशाह ने महाराणा के आगे उन अशर्फियों का बड़ा भारी ढेर लगा दिया और फिर हाथ जोड़कर बड़ी नम्रता से कहा - 'महाराणा ! यह सब धन आपका ही है। मैंने और मेरे बाप-दादाओ ने चित्तौड़ के राजदरबार की कृपा से ही इन्हें इकट्टा किया है। आप कृपा करके इसे स्वीकार कर लीजिये और इस से देश का उद्धार कीजिये। '

     महाराणा प्रताप भामाशाह को गले से लगा लिया। उनकी आँखों से आँसू की बुँदे टपक रही थी। वे बोले - ' लोग प्रताप को देश का उद्धारक कहते है, किन्तु इस पवित्र भूमि का उद्धार तो तुम्हारे-जैसे उद्धार पुरुषों से होगा। तुम धन्य हो भामाशाह !'

  उस धन से महाराणा प्रताप ने सेना इकट्ठी की और फिर मुगलसेना पर आक्रमण किया। मुगलों के अधिकार की बहुत सी भूमि महाराणा प्रताप ने जीत ली और उदयपुर में अपनी राजधानी बना ली।

सीख - महाराणा प्रताप की वीरता जैसे राजपूताने के इतिहास में विख्यात है, वैसे ही भामाशाह का त्याग भी विख्यात है। ऐसे त्यागी पुरुष ही देश के गौरव होते है। जो व्यक्ति समय पर अपना सहयोग देता है उसे कही जन्मों का पुण्य प्राप्त होता है।

Tuesday, July 1, 2014

Hindi Motivational Stories........................पन्ना धायका त्याग

पन्ना धायका त्याग 

 
     चित्तौड़ के महाराणा संग्राम सिंह की वीरता प्रसिद्ध है। उनके स्वर्गवासी होने पर चित्तौड़ की ग़द्दी पर राणा विक्रमादित्य बैठे, किन्तु वे शासन करने की योग्यता नहीं रखते थे। उन में न बुद्धि थी और न वीरता। इस लिए चित्तौड़ के सामन्तो और मंत्रियों ने सलाह करके उनको गद्दी से उत्तार दिया तथा महाराणा संग्राम सिंह के छोटे कुमार उदय सिंह को गद्दी पर बैठाया।

    उदय सिंह की अवस्था उस समय केवल छ: वर्ष की थी। उनकी माता रानी करुणावती का स्वर्गवास हो चूका था। पन्ना नाम की एक धाय उनका पालन-पोषण करती थी। और उस समय राज्य का संचालन दासी-पुत्र बनवीर करता था। वह उदय सिंह का संरक्षक बनाया गया था।

    बनवीर के मन में राज्य का लोभ आया। उसने सोचा कि यदि विक्रमादित्य और उदय सिंह को मार दिया जाय तो सदा के लिए वह राजा बन सकेगा। सेना और राज्य का संचालन उसके हाथ में था ही। एक दिन रात में बनवीर नंगी तलवार लेकर राजभवन में गया और उसने सोते हुए राजकुमार विक्रमादित्य का सिर काट लिया। और जूठी पत्तल उठानेवाले एक बारी ने बनवीर को विक्रमादित्य की हत्या करते देख लिया। वह ईमानदार और स्वामिभक्त बारी बड़ी शीघ्रता से पन्ना के पास आया और उसने कहा - ' बनवीर राणा उदय सिंह की हत्या करने शीघ्र ही यहाँ आयेगा। कोई उपाय करके बालक राणा के प्राण बचाओ। '

 पन्ना धाय अकेली बनवीर को कैसे रोक सकती थी। उसके पास कोई उपाय सोचने का समय भी नहीं था। लेकिन उसने एक उपाय सोच लिया। उदय सिंह उस समय सो रहे थे। उनको उठाकर पन्ना ने एक टोकरी में रखा दिया और टोकरी पत्तल से ढककर उस बारी को देकर कहा - ' इसे लेकर तुम यहाँ से चले जाओ। और वीरा नदी के किनारे मेरा रास्ता देखना। ' उदय सिंह को तो वह से हटा दिया पर इस से भी काम पूरा नहीं हुआ। अगर बनवीर को पता लगा कि उदय सिंह को छिपाकर कहीं भेजा गया है। तो अवश्य ही घुड़सवार भेजकर पकड़ लेगा। अब पन्ना ने एक और उपाय सोचा। उसका भी एक पुत्र था। उसका पुत्र चन्दन की अवस्था भी छ: वर्ष की थी। उसने अपने पुत्र को उदय सिंह के पलंग पर सुलाकर रेशमी चदर उढ़ा दी और स्वयं एक ओर बैठ गयी। जब बनवीर रक्त में सनी तलवार लिये वहाँ आया और पूछने लगा - '  उदय सिंह कहाँ है ?' तब पन्ना ने बिना एक शब्द बोले अँगुली से अपने सोते लड़के की ओर संकेत कर दिया। हत्यारे बनवीर ने उसके निरपराध बालक के तलवार द्दारा दो टुकड़े कर दिये और वहाँ से चला गया।

   अपने स्वामी की रक्षा के लिये अपने पुत्र का बलिदान करके बेचारी पन्ना रो भी नहीं सकती थी। उसे झटपट वहाँ से नदी किनारे जाना था, जहाँ बारी उदय सिंह को लिये उसका रास्ता देख रहा था। पन्ना ने अपने पुत्र की लाश ले जाकर नदी में डाल दी और उदय सिंह को लेकर मेवाड़ से चली गयी। उसे अनेक स्थानों पर भटकना पड़ा। अन्त में देवरा के सामन्त आकाशाह ने उसे अपने यहाँ आश्रय दिया।

      और आखिर में बनवीर को अपने पाप का दण्ड मिला। बड़े होने पर राणा उदय सिंह चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे। पन्ना धाय उस समय जीवित थी। राणा उदय सिंह माता के समान उसका सम्मान करते थे।

सीख - पन्ना की स्वामी भक्ति महान है। स्वामी के लिये अपने पुत्र का बलिदान करने वाली पन्ना माई धन्य है !................  इस धरती पर ऐसे ऐसे महान व्यक्ति हुए है। चाहे पद छोटा हो या बड़ा लेकिन व्यक्ति महान बनता है अपने गुणों से। इस लिये पन्ना धाय को सन्सार के लोग भाले भूल जाय लेकिन इतिहास में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा।