Wednesday, June 18, 2014

Hindi Motivational Stories..................अतिथि-सेवा

अतिथि-सेवा

     हम सभी जनते है यात्रा में थके, भूखे-प्यासे जब कोई घर देखकर वहाँ जाते है। तो हमरे मन की क्या दशा होती है, यह तो यात्रा में जिसने कभी थककर कहीं जाना पड़ा हो तो उसे पता होता है। ऐसे अतिथि को बैठने के लिए आसान देना, मीठी बात कहा कर उसका स्वागत करना उसे हाथ- पैर धोने तथा पीने को जल देना और हो सके तो भोजन करना बड़े पुण्य का काम है। और इस के विपरीत जो अपने घर आये अतिथि को फटकारता और निराश करके लौटा देता है, उसके सारे पुण्य नष्ट हो जाते है। महाराज संकृति के पुत्र महाराज रन्तिदेव बड़े ही अतिथि-सेवा भावी थे। महाराज रन्तिदेव इतने बड़े अतिथि-सेवी थे कि अतिथि की इच्छा जानते ही उसकी आवशक वस्तु उसे दे देते थे। उनके यहाँ रोज हजारों अतिथि आते थे। इस प्रकार बाँटते-बाँटते महाराज का सब धन समाप्त हो गया। वे कंगाल हो गये।

    महाराज रन्तिदेव निर्धन हो जाने पर राजमहल छोड़ दिया। स्त्री-पुत्र के साथ वे जंगल के रस्ते यात्रा करने लगे। क्षत्रिय को भिक्षा नहीं माँगना चाहिए, इस लिए वन के कन्द, मूल, फल आदि से वे अपना तथा परिवार का काम चलते थे। बिना माँगे कोई कुछ दे देता तो ले लेते थे। इस तरफ वह एक दिन ऐसे वन में पहुँच गए जहा उन्हें जल तक नहीं मिला और वह जंगल इतना बड़ा था की वहाँ से बाहर निकलने में ही उन्हें कई दिन लग गए पुरे 48 दिन तक वह और उनका परिवार भूखे प्यासे भटकते रहे और 49 वे दिन वे एक बस्ती में आ गए जहाँ उन्हें एक मनुष्य ने बड़े आदर के साथ उनका स्वागत किया और घी से बना खीर, हलवा और शीतल जल लाकर दिया।

   महाराज रन्तिदेव बड़ी शान्ति से वह सब सामान लेकर भगवान को भोग लगाया। 48 दिनों के बाद उपवास से मरने-मरने को रहे महाराज के मन में उस समय भी यही दुःख था कि जीवन में पहली बार आज किसी अतिथि को भोजन कराये बिना उन्हें भोजन करना पड़ेगा। और उसी समय एक ब्राह्मण वहाँ आये वे भूखे थे। उन्होंने भोजन माँगा। राजा रन्तिदेव बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने बड़े आदर से ब्राह्मण को भोजन कराया। जब ब्राह्मण भर पेट भोजन करके चले गये, तब बचे भोजन को राजा ने परिवार के सभी को एक जैसा बांटकर दे दिया। अपना भाग लेकर वे भोजन करने जा रहे थे कि एक भूखा शूद्र आ गया। राजाने उसे भी भोजन कराया। लेकिन शूद्र के जाते ही एक और अतिथि आ पहुँचा। उसके साथ कुछ कुत्ते थे जो बहुत भूखे थे। राजा ने उस अतिथि तथा कुत्तों को भी भोजन कराया। अब उनके पास सिर्फ थोड़ा सा पानी बचा था। जैसे ही राजा पानी पीने लगे उसी समय एक चाण्डाल वह आया और कहा - महाराज मेरा प्यास के कारण प्राण निकले जा रहे है अगर दो बून्द पानी मिल जाता तो आपकी बड़ी कृपा होगी।

  महाराज रन्तिदेव की आँखों में आंसू आ गये। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की -' प्रभो ! यदि मेरे इस जल-दान का कुछ पुण्य हो तो उसका फल मैं यही चाहता हूँ कि संसार के दुःखी प्राणियों का दुःख दूर हो जाय। ' और फिर बड़े प्रेम से महाराज ने उस चाण्डाल को वह बचा हुआ पानी पिला दिया।

   चाण्डाल के जाते ही महाराज भूख और प्यास के मारे बेहोश होकर गिर पड़े। लेकिन उसी समय वहाँ भगवान ब्रह्मा, विष्णु, शंकर और धर्मराज प्रगट हो गये। और यही लोग चाण्डाल, ब्राह्मण, शूद्र आदि रूप में रन्तिदेव की परीक्षा लेने आये थे। और रन्तिदेव की अतिथि-सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिये।

सीख - इस कहानी से यही सीख मिलता है कि अगर अपने एक भी गुण जीवन में धारण कर लिए और उस पर अटल रहे, चाहे कुछ भी हो जाय यहाँ तक की आपको उसके लिए अपने प्राण ही क्यों न देने पड़े। तो आपका कल्याण निश्चित है। आपको भगवान का दर्शन होगा और उनका प्यार मिलेगा , जैसे रंतिदेव को उनके अतिथि-सेवा के प्रभाव से भगवान ने उन्हें दर्शन दिया।

   

   

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