Saturday, June 28, 2014

Hindi Motivational Stories..................सावधानी और दयालुता

सावधानी और दयालुता

          चित्तौड़ के बड़े राजकुमार चन्द्रस शिकार खेलने निकले थे। अपने साथियों के साथ वे दूर निकल गये थे। उन्होंने उस दिन श्रीनाथ द्वारे में रात बिताने का निश्चय किया था। जब शाम होने पर वे श्रीनाथद्वारे की ओर लौटने लगे, तब पहाड़ी रास्ते में एक घोड़ा मरा हुआ पड़ा दिखायी दिया। राजकुमार ने कहा - ' किसी यात्री का घोड़ा यहाँ मर गया है। घोड़ा आज का ही मरा है। यहाँ से आगे ठहरने का स्थान तो श्रीनाथद्दारा ही है। वह यात्री वहीं गया होगा। '

    श्रीनाथद्दारे पहुँचकर राजकुमारने सब से पहले यात्री की खोज की। उनके मन में एक ही चिन्ता थी कि यात्रा में घोड़ा मरने  यात्री को कष्ट होगा। राजकुमार उसे दूसरा घोड़ा दे देना चाहते थे। लेकिन जब सेवकों ने बताया कि यात्री यहाँ नहीं आया है, तब राजकुमार और चिन्तित हो गये। वे कहने लगे - 'अवश्य वह यात्री मार्ग भूलकर कहीं भटक गया है। वह इस देश से अपरिचित होगा। और रात्रि में वन में पता नहीं, वह कहाँ जायेगा। तुम लोग टोलियाँ बनाकर जाओ और उसे ढूंढ़कर ले आओ।

      राजकुमार की आज्ञा पाकर उनके सेवक मशालें जलाकर तीन,तीन चार-चार की टोलियाँ बनाकर यात्री को ढूंढने निकल पड़े। बहुत भटकने पर उन में से एक टोली के लोगों को किसी ने पुकारा। जब उस टोली के लोग पुकारने वाले के पास पहुँचे, तब देखा कि एक बूढ़ा और एक नवयुवक एक घोड़े पर बहुत-सा सामान लादे पैदल चल रहे है। वे लोग बहुत घबराये और थके हुए थे। राजकुमार के सेवकों ने कहा - ' आप लोग डरे नहीं। हम लोग आपको ही ढूंढने निकले है। '

           बूढ़े ने बड़े आश्चर्य से कहा - ' हम लोग तो अपरिचित है। विपति के मारे घर-द्दार छोड़कर श्रीनाथजी की शरण लेने निकल पड़े थे।  और आज ही रस्ते में हमारा घोड़ा गिर पड़ा और मर गया। यहाँ हमलोग रास्ता भूलकर भटक पड़े। और आप लोग हम लोगों को भला कैसे ढूंढने निकले ?  तब सेवकों ने कहा - ' हमारे राजकुमार ने आपका मरा घोड़ा देख लिया था। वे प्रत्येक बात में बहुत सावधानी रखते है। और उन्होंने जान लिए की घोडा मरा है तो यात्री भटक गया होगा। इस लिए उन्होंने हम लोगो को भेजा आप लोगोँ को ढूंढने।

   एक राजकुमार इतनी सावधानी रखें और ऐसे दयालु हो, यह दोनों यात्रियों को बहुत अदभुत लगा। श्रीनाथद्दारे आकर उन्होंने राजकुमार के प्रति कृत्यज्ञता प्रकट की। राजकुमार चन्द्रस बोलो - ' यह तो प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह सावधान रहे और कठिनाई में पड़े लोगों की सहायता करे। मैंने तो अपने कर्तव्य का ही पालन किया है। '

सीख - हर मनुष्य के दिल में इस तरह सब के लिए दया और प्रेम जागे तो सन्सार स्वर्ग हो जाएगा।

Friday, June 27, 2014

Hindi Motivational Stories..........................रघुपति सिंह की सचाई

रघुपति सिंह की सचाई 


     ये उस समय की बात है जब अकबर बादशाह की सेना ने राजपूताने के चित्तौड़ गढ़ पर अधिकार कर लिया था। महाराणा प्रताप अरावली पर्वत के वनों में चले गये थे। महाराणा के साथ राजपूत सरदार भी वन में जाकर छिप गये थे। महाराणा और उनके सरदार अवसर मिलते ही मुग़ल-सैनिकों पर टूट पड़ते थे और उन में मार-काट मचाकर फिर वनों में छिप जाते थे।

   महाराणा प्रताप के सरदारों में से एक सरदार का नाम रघुपति सिंह था। वह बहुत ही वीर था। अकेले ही वह चाहे जब शत्रु की सेना पर धावा बोल देता था और जब तक मुग़ल-सैनिक सावधान हों, तब तक सैकड़ों को मारकर वन-पर्वतों में भाग जाता था। मुग़ल-सेना रघुपति सिंह के मारे घबरा उठी थी। मुग़लों के सेना पति ने रघुपति सिंह को पकड़ने वाले को बहुत बड़ा इनाम देने की घोषणा कर दी। इस की योजना बनाई गयी।

   रघुपति सिंह वनों और पर्वतों में घुमा करता था। एक दिन उसे समाचार मिला कि उसका लड़का बहुत बीमार है और घड़ी-दो-घड़ी में मरने वाला है। रघुपति का ह्रदय पुत्र प्रेम से भर आया, वह वन में से घोडे पर चढ़कर निकला और अपने घर की ओर चल पड़ा। पुरे चित्तौड़ को बादशाह के सैनिकों ने घेर रखा था। प्रत्येक दरवाजे पर बहुत कड़ा पहरा था। पहले दरवाजे पर पहुँचते ही पहरेदार ने कड़ककर पूछा - कौन है ? रघुपति सिंह झूठ नहीं बोलना चाहता था, उसने अपना नाम बता दिया। इस पर पहरेदार बोला - 'तुम्हें पकड़ने के लिये सेना पति ने बहुत बड़ा इनाम घोषित किया है। मैं तुम्हें बन्दी बनाऊँगा। ' रघुपति सिंह - 'भाई ! मेरा लड़का बीमार है। वह मरने ही वाला है। मैं उसे देखने आया हूँ। तुम मुझे अपने लडके का मुँह देख लेने दो। मैं थोड़ी देर में ही लौटकर तुम्हारे पास आ जाऊँगा। ' पहरेदार सिपाही बोला - ' यदि तुम मेरे पास न आये तो ?' रघुपति सिंह - मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि अवश्य लौट आऊँगा। '

  पहरेदार ने रघुपति सिंह को नगर में जाने दिया। वे अपने घर गये। अपनी स्त्री और पुत्र से मिले और उन्हें आश्वासन देकर फिर पहरेदार के पास लौट आये। पहरेदार उन्हें सेनापति के पास ले गया। सेनापति सब बातें सुनकर पूछा - 'रघुपति सिंह ! तुम नहीं जानते थे की पकड़े जाने पर हम तुम्हें फाँसी दे देंगे ? तुम पहरेदार के पास दोबारा क्यों लौट आये ? ' रघुपति सिंह ने कहा - 'मैं मरने से नहीं डरता। राजपूत वचन देकर उससे टलते नहीं और किसी के साथ विश्वासघात  भी नहीं करते।

   सेनापति रघुपति सिंह की सच्चाई देखकर आश्चर्य में पड़ गया। उस ने पहरेदार को आज्ञा दी - ' रघुपति सिंह को छोड़ दो। ऐसे सच्चे और वीरको मार देना मेरा ह्रदय स्वीकार नहीं करता। '

सीख - सच्चाई का जीवन में कितना महत्व है ये इस कहानी से पता चलता है। इस लिये जीवन में सदा सच्चाई को धारण करो। 

  

Hindi Motivational stories....... रिक्शा वाले का लड़का बना (I.A .S. ऑफिसर )

रिक्शा वाले का लड़का बना (I.A .S. ऑफिसर )

वाराणसी के यहाँ एक रिक्शा वाले का लड़का बना (I.A .S. ऑफिसर )  नाम है गोविंद जैस्वाल जो पहले ही परीक्षा में 48 रैंक से पास हुआ 474 विद्यार्थियों में।
 उनका परिवार गरीब था और वो ऐसे जगह पर रहकर पढ़ाई किया जिस के बारे में हम सोच भी नहीं सकते है उनके घर के आसपास हमेशा कारखानों की व जनरेटर्स की आवाज़े आती थी।
  गोविन्द अपने कानो में कपास रख कर पढ़ाई की और जब उसकी कॉलेज की पढ़ाई   पूरी हुई तो आगे की पढ़ाई के लिए पिताजी ने गाँव की जमीन बेचकर 40,000 रुपये दिए और दिल्ली भेजा। 
उसके बाद उसकी बहन ने उसका ध्यान दिया और उस समय अस -पास के लोग उनका मजाक उड़ा देते थे। और गोविंद उन्हें नज़र अंदाज़ कर अपने पढ़ाई पर ध्यान देते रहे।  
बहुत परेशानी के बाद भी हार नहीं मनी और 
आखिर वो दिन आया गोविंद की खड़ी मेहनत रंग लाया और 
आज वो एक I.A .S. ऑफिसर बना। 



Thursday, June 26, 2014

Hindi Motivational Stories......................... शरणागत

शरणागत 

  भारत में एक ये भी प्रथा थी। जब कोई व्यक्ति मुसीबत के समय में वह  किसी राजा के शरण में जाता है तो राजा उस की रक्षा के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देता और उस शरण आये व्यक्ति की रक्षा करता। ये उस समय की बात है जब दिल्ली के सिंहासन पर अलाउदीन बादशाह का राज था। और बादशाह का सब से प्रिया सरदार था मुहम्मदशाह। मुहम्मदशाह पर बादशाह की बड़ी कृपा थी और इसी से वह बादशाह का मुँहलगा हो गया था।

    एक दिन बातें करते समय हँसी में मुहम्मदशाह ने कोई ऐसी बात कह दी कि बादशाह क्रोध से लाल हो उठा। उसने मुहम्मदशाह को फाँसी पर चढ़ा देने की आज्ञा दे दी। बादशाह की आज्ञा सुनकर मुहम्मदशाह के तो प्राण सुख गये। किसी प्रकार मुहम्मदशाह दिल्ली से भाग निकला। अपने प्राण बचाने के लिये उसने अनेक राजाओं से प्रार्थना की, किन्तु किसी ने उसे शरण देना स्वीकार नहीं किया। बादशाह को अप्रसन्न करने का साहस किसी को नहीं हुआ। विपत्ति का मारा मुहम्मदशाह इधर-उधर भटक रहा था। अन्त में वह रणथम्भौर के चौहान राजा हमीर के राज-दरबार में गया। उसने राजा से अपने प्राण बचाने की प्रार्थना की। राजा ने कहा - 'राजपूत का पहला धर्म है शरणागत की रक्षा। आप मेरे यहाँ निश्चिन्त होकर रहो। जब तक मेरे शरीर में प्राण है, कोई आपका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। '

    मुहम्मदशाह रणथम्भौर में रहने लगा। और कुछ ही दिनों में बादशाह अलाउदीन को इस का पता लगा तो उसने राजा हमीर के पास संदेश भेजा - 'मुहम्मदशाह मेरा भगोड़ा है। उसे फाँसी का दण्ड हुआ है। तुम उसे तुरंत मेरे पास भेज दो। ' राजा हमीर ने उत्तर भेजा - 'मुहम्मदशाह मेरी शरण आया है मैंने उसे रक्षा का वचन दिया है। मुझे चाहे सारे संसार से युद्ध करना पड़े, भय या लोभ में आकर मैं शरणागत  का त्याग नहीं करूँगा। '

   अलाउदीन को राजा का पत्र पढ़कर बहुत क्रोध आया। उसने इसे अपमान समझा। उसने उसी समय सेना को रणथम्भोर पर चढाई करने को कहा। छोटे छोटे दलों के समान पठानो की बड़ी भारी सेना चल पड़ी। रणथम्भोर के किले को उस सेना ने दस मील तक चारों ओर से घेर लिया। अलाउदीन ने राजा के पास फिर संदेश भेजा कि वह मुहम्मदशाह को भेज दे। बादशाह समझाता था कि राजा हमीर बादशाह की भारी सेना देखकर डर जाएगा, और मुहम्मदशाह को हवाले करेगा। किन्तु राजा हमीर ने स्पष्ट कह दिया - ' मैं किसी भी प्रकार शरणागत को नहीं दूँगा। '

   बस फिर क्या था ! युद्ध प्रारम्भ हो गया। बादशाह की सेना बहुत बड़ी थी, किन्तु राजपूत वीर तो मौत से भी दो -दो हाथ करने को तैयार थे। भयंकर युद्ध महीनों चलता रहा। दोनों ओर के हज़ारों वीर मारे गये। अंत में एक दिन मुहम्मदशाह ने स्वयं राजा हमीर से कहा - 'महाराज ! मेरे कारण आप बहुत दुःख उठा चुके। मुझ से अब आपके वीरों का नाश नहीं देखा जाता। मैं बादशाह के पास चला जाना चाहता हूँ। ' राजा हमीर बोले - ' मुहम्मदशाह ! तुम फिर ऐसी बात मत कहना। जब तक मेरे शरीर में प्राण है, तुम यहाँ से बादशाह के पास नहीं जा सकते। राजपूत का कर्तव्य है शरणागत-रक्षा। मैं अपने कर्तव्य का पालन प्राण देकर भी करूँगा।

   जैसे-जैसे समय बीतता गया, राजपूत सेना के वीर घटते गये। रणथम्भोर के किले में भोजन-सामग्री कम होने लगी। उधर अलाउदीन की सेना में दिल्ली से आकर नयी-नयी टुकड़ियां बढ़ती ही जाती थी। अंत में रणथम्भोर के  किले की सब भोजन-सामग्री समाप्त हो गयी। राजा हमीर ने ' जौहर-व्रत ' करने का निश्चय किया। राजपूत स्त्रिया जलती चिता में कूद गयी और केसरिया वस्त्र पहनकर सब राजपूत वीर किले का फाटक खोलकर निकल पड़े। शत्रुअों से लड़ते-लड़ते वे मारे गये। मुहम्मदशाह भी राजा हमीर के साथ ही युद्ध- भूमि में आया और युद्ध में मारा गया। विजय बादशाह अलाउदीन जब रणथम्भोर के किले में पहुँचा तो उसे केवल जलती चिता की राख और अंगारे मिले।

सीख - शरणगत की रक्षा के लिये अपने सर्वस्व का बलिदान करने वाले वीर महापुरुष संसार की इस पवित्र भारत-भूमि पर ही हुए है। शरणगत की रक्षा का ये सब से बड़ा उदहारण है। और आज के समय में सब को माया ने अपने जाल में फंसा लिया है। माया जाल से बचने के लिये हम सब अब ईश्वर की शरण लेना होगा। तब ही हम सुख शांति से जी पाएँगे।

Saturday, June 21, 2014

Hindi Motivational Stories.................................कर्ण की उदारता

कर्ण की उदारता

     एक बार भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ बातचीत कर रहे थे। भगवान कृष्ण उस समय कर्ण की उदारता की बार-बार प्रशंसा कर रहे थे,  यह बात अर्जुन को अच्छा नहीं लगी। अर्जुन ने कहा - 'श्यामसुन्दर ! हमारे बड़े भाई धर्मराज जी से बढ़कर उदार तो कोई है नहीं, फिर आप उनके सामने कर्ण की इतनी प्रशंसा क्यों करते है ?' भगवान ने कहा - ' ये बात मैं तुम्हें फिर कभी समझा दूँगा। '

   कुछ दिनों के बाद अर्जुन को साथ लेकर भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठर के राजभवन के दरवाजे पर ब्राह्मण का वेश बनाकर पहुँचे। उन्होंने धर्मराज से कहा - ' हमको एक मन चन्दन की सुखी लकड़ी चाहिये। आप कृपा करके माँगा दे। ' उस दिन जोर की वर्षा हो रही थी। कहीं से भी लकड़ी लाने पर वह अवश्य भीग जाती। महाराज युधिष्ठर ने नगर में अपने सेवक भेजे, किन्तु संयोग की बात ऐसी कि कहीं भी चन्दन की सुखी लकड़ी सेर-आध-सेर से अधिक नहीं मिली। युधिष्ठर ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की - ' आज सुखा चन्दन मिल नहीं रहा है। आपलोग कोई और वस्तु चाहें तो तुरन्त दी जा सकती है। '

     भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ' सुखा चन्दन नहीं मिलता तो  न सही। हमें कुछ और नहीं चाहिये। '

   वहाँ से अर्जुन को साथ लिये उसी ब्राह्मण के वेश में भगवान कर्ण के यहाँ पहुँचे। कर्ण ने बड़ी श्रद्धा से उनका स्वागत किया। भगवान ने कहा - ' हमें इसी समय एक मन सुखी लकड़ी चाहिये। '

   कर्ण ने दोनों ब्राह्मणों को आसन पर बैठाकर उनकी पूजा की। फिर धनुष चढ़ाकर उन्होंने बाण उठाया। बाण मार - मारकर कर्ण ने अपने सुन्दर महल के मूल्यवान किवाड़, चौखटें, पलंग आदि तोड़ डाले और लकड़ियों का ढेर लगा दिया। सब लकड़ियाँ चन्दन की थी। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा - 'तुमने सुखी लकड़ियों के लिये इतनी मूल्यवान वस्तुऍ क्यों नष्ट की ?

  कर्ण हाथ जोड़कर बोले - ' इस समय वर्षा हो रही है। बाहर से लकड़ी माँगने में देर होगी। आप लोगों को रुकना पड़ेगा। लकड़ी भीग भी जायगी।  ये सब वस्तुऍ तो फिर बन जायेगी, किन्तु मेरे यहाँ आये अतिथि को निराश होना पड़े या कष्ट हो तो वह दुःख मेरे हृदय से कभी दूर नहीं होगा। '

 भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण को यशस्वी  होने का आशीर्वाद दिया और वहाँ से अर्जुन के साथ चले आये। लौटकर भगवान अर्जुन से कहा - 'अर्जुन ! देखो, धर्मराज युधिष्ठर के भवन के द्धार, चौखटे भी चन्दन की है। चन्दन की दूसरी वस्तुएँ भी राजभवन में है। लेकिन चन्दन माँगने  पर भी उन वस्तुअों को देने की याद धर्मराज को नहीं आयी और सुखी लकड़ी माँगने पर भी कर्ण ने अपने घर की मूल्यवान वस्तुऍ तोड़कर लकड़ी दे दी। कर्ण स्वभाव से उदार है और धर्मराज युधिष्ठर विचार करके धर्म पर स्थिर रहते है। मैं इसी से कर्ण की प्रशंसा करता हूँ। '

 सीख - हमें यह शिक्षा मिलती है की परोपकार, उदारता, त्याग तथा अच्छे कर्म करने का स्वाभाव बना लेना चाहिये। जो लोग नित्य अच्छे कर्म नहीं करते और सोचते है की कोई बड़ा अवसर पर महान कार्य करेंगे उनको अवसर आने पर भी सूझता ही नहीं। और जो छोटे-छोटे अवसरों पर भी त्याग तथा उपकार करने का स्वाभाव बना लेता है, वही महान कार्य करने में भी सफल होता है।

Friday, June 20, 2014

Hindi Motivational Stories............................. लिखित मुनि की सचाई

लिखित मुनि की सचाई

  ये बहुत पुरानी पुराणों की कहानी है जिस में सच्चाई को समझने और उसका दण्ड ख़ुशी से स्वीकार करने की एक कला को बताया है और ये योगी या तपस्वी सहज कर सकते है। उत्तर दक्षिण में एक गाँव में शंख और लिखित नाम के दो मुनि थे। दोनों सगे भाई थे। दोनों अलग - अलग आश्रम बनाकर रहते थे और भगवान का भजन करते थे। ये दोनों मुनि धर्मशास्त्र के बड़े भरी विद्वान थे। इन्होने स्मृतियाँ बनायीं है। शंख मुनि बड़े  भाई थे और लिखित छोटे।
 
   एक बार लिखित मुनि अपने बड़े भाई शंख मुनि से मिलने के उनके आश्रम गये। शंख मुनि उस समय वन में गये थे। और लिखित मुनि को भूख लगी थी तो उसने आश्रम के पास में लगे वृक्ष का पक्का हुआ फल तोड़कर खाने लगे और उसी समय शंख मुनि वहाँ आ गये। अपने छोटे भाई को देख उन्हें प्रसन्नता हुई और हाथ में फल देख कर उन्हें कुछ खेद भी हुआ। उन्होंने पूछा "लिखित !  ये फल तुम्हें कहा से मिला ? ' लिखित मुनि ने कहा -'भैया ! यह तो आपके आश्रम के वृक्ष से मैंने तोड़ा है। ' शंख मुनि ने कहा - कोई बिना पूछे किसी की वस्तु ले तो उस कार्य को क्या कहा जायेगा ? लिखित मुनि ने कहा - चोरी  शंख मुनि ने कहा - चोरी करने वाले को क्या करना चाहिये ? लिखित मुनि ने कहा - उसे राजा के पास जाकर अपनी बात बताना चाहिये और जो दण्ड मिले उसे भोगना चाहिये। अगर कोई ऐसा नहीं करता तो मरने के बाद यमराज के दूत उन्हें पकड़कर नरक में डाल देते है। और बहुत दुःख देते है।

  शंख मुनि ने कहा - ' तुमने मुझ से पूछे बिना मेरे आश्रम के फल लेकर चोरी का पाप किया है। अब तुम राजा के पास जाकर इस पाप का दण्ड ले लो और उसके बाद ही यहाँ आओ। '

        लिखित मुनि वहाँ से राजा के पास गये और सारी बात बता दी और अपनी अपराध का सजा सुनाने के लिए कहा राजा ने कहा -'जैसे राजा दण्ड देता है, वैसे ही क्षमा भी कर सकता है, मैं आपका अपराध क्षमा करता हूँ। लिखित मुनि बोले -' धर्मशास्त्र के नियम मुनिलोग बनाते है। राजा को तो प्रजा से उन नियमो का पालन कराना चाहिये। मैं  क्षमा लेने नहीं आया, दण्ड लेने आया हूँ। मेरे बड़े भाई ने स्नेहवश, मेरा कर्तव्य सुझाकर मुझे यहाँ भेजा है। मुझे अपराध का दण्ड दो। '

  राजा को मुनि की बात मानना पड़ा। उन दिनों चोरी के अपराध का दंड था चोर के दोनों हाथ काट लेना।  राजा की आज्ञा से जल्लादने मुनि के दोनों हाथ काट लिये। हाथ काट जाने से लिखित मुनि को दुःख नहीं हुआ।  वे बड़ी प्रसन्नता से शंख मुनि के आश्रम में लौट आये और बोले -'भैया ! मैं अपराध का दण्ड ले आया। '

          शंख मुनि छोटे भाई को ह्रदय से लगाया और कहा - तुमने बहुत अच्छा किया। आओ, अब स्नान करके दोपहर की संध्या करें।  नदी के जल में स्नान करने जब में डूबे तो तैरने के लिए जब लिखित मुनि ने अपने हाथ बढ़ाये तो दोनों हाथ पुरे निकल आये। वे समझ गए कि यह उनके बड़े भाई की कृपा का फल है। उन्होंने बड़ी नम्रता से पूछा -' भैया ! जब मेरे हाथ उगा देने थे तो आपने ही उन्हें यहाँ क्यों नहीं काट लिया ? '

     शंख मुनि बोले - 'दण्ड देना राजा का काम है। दूसरा कोई दण्ड दे तो वो पाप होगा।  लेकिन कृपा करना तो सदा ही श्रेष्ठ है। इसलिये तुम्हारे ऊपर कृपा करके मैंने तुम्हारे हाथ ठीक कर दिये। '

 सीख - बिना पूछे किसी की कोई भी वास्तु लेना चोरी है, यह बात इस कहानी से समझ में आती है। और साथ में सजा देना राजा का काम है कोई और दे तो पाप हो जाता है। कृपा करना श्रेष्ठ है और हर कोई  ये कर सकता है। और ऐसा कृपा करने के लिए पहले बहुत तपस्या करना पड़ता है। 

Thursday, June 19, 2014

Hindi Motivational Stories....................... एक दयालु नरेश

एक दयालु नरेश

          एक राजा बड़े धर्मात्मा और दयालु थे। किन्तु उन से भूल से कोई एक पाप हो गया था। जब उनकी मृत्यु हो गयी, तब उन्हें लेने यमराज के दूत आये। यमदूतों ने राजा को कोई कष्ट नहीं दिया। यमराज ने उन्हें  कहा था कि वे राजा को आदरपूर्वक नारको के पास से आनेवाले रास्ते से ले आवें। राजा भूल से जो पाप हुआ था, उसका इतना ही दण्ड था।

    यमराज के दूत राजा को लेकर जब नर्क के पास पहुँचे तो नर्क में पड़े प्राणियों की चीखने, चिल्लाने, रोने की आवाज़ सुनकर राजा का ह्रदय घबरा उठा। और वे वहाँ से जल्दी-जल्दी जाने लगे। और उसी समय नर्क में पड़े जीवों ने पुकारकर प्रार्थना की - ' महाराज ! आपका कल्याण हो ! हम लोगों पर दया करके आप कुछ क्षण और यहाँ खड़े रहिये। आपके शरीर को छू कर जो ह्वा हमारी तरफ आ रही है उस से हम लोगो की जलन और पीड़ा एकदम दूर हो जाती है। हमें बड़ा सुख मिल रहा है। ' राजा ने उन जीवों की बात सुनकर कहा - ' मित्रो ! यदि मेरे यहाँ खड़े रहने से आप लोगो को सुख मिलता है तो मैं पत्थर की भाँति अचल होकर यही खड़ा रहूँगा। मुझे यहाँ से अब आगे नहीं जाना है। '

     यमदूतों ने राजा से कहा - ' आप तो धर्मात्मा है। आपके खड़े होने का यह स्थान नहीं है। आपके लिए तो स्वर्ग में उत्तम स्थान बनाये गए है। यह तो पापी जीवों के रहने का स्थान है। आप यहाँ से जल्दी चलो। ' राजा ने कहा - ' मुझे स्वर्ग नहीं चाहिए। भूखे-प्यासे रहना और नरक की आग में जलते रहना मुझे अच्छा लगेगा, यदि अकेले मेरे दुःख उठाने से उन सब लोगो को सुख मिले। प्राणियों की रक्षा करने से उन्हें सुखी करने में जो सुख है वैसा सुख तो स्वर्ग या ब्रह्मलोक में भी नहीं है। '

             उसी समय वहाँ धर्मराज तथा इंद्रा आये। धर्मराज ने कहा..... 'राजन,! मैं आपको स्वर्ग ले जाने के लिये आया हूँ। अब आप चलो '  राजा ने कहा - ' जब तक ये नरक में पड़े जीव इस कष्ट से नहीं छूटेंगे, मैं यहाँ से कही नहीं जाऊँगा। ' धर्मराज बोले - ' ये सब पापी जीव है। इन्होंने कोई पुण्य नहीं किया है। ये नरक से कैसे छूट सकते है ?' राजा ने कहा - ' मैं अपना सब पुण्य इन लोगों को दान कर रहा हूँ। आप इन लोगों को स्वर्ग ले जाये। इनके बदले मैं अकेले नरक में रहूँगा।  '  राजा की बात सुनकर देवराज इन्द्र ने कहा - 'आपके पुण्य को पाकर नरक के प्राणी दुःख से छूट गये है। देखिये ये लोग अब स्वर्ग जा रहे है। अब आप भी स्वर्ग चलिये। '

राजा ने कहा - ' मैंने तो अपना सब पुण्य दान कर दिया। अब आप मुझे स्वर्ग में चलने को क्यों कहते है ?
देवराज हँसकर बोले - 'दान करने से वस्तु घटती नहीं, बढ़ जाती है। आपने इतने पुण्यों का दान किया, यह दान उन सब से बड़ा पुण्य हो गया। अब आप हमारे साथ पधारें। दुःखी प्राणियों पर दया करने से नरेश अनन्तः काल तक स्वर्ग का सुख भोगते रहे।

सीख - दया धर्म का मूल है। अगर हम दुसरो पर दया करेंगे तो उसका पुण्य तो मिलेंगा ही। इस लिए हर प्राणी मात्र पर दया कर उनकी सेवा करना हमारा अपना परम धर्म है।
  

Hindi Motivational Stories............................ महर्षि दधीचि

महर्षि दधीचि

   महर्षि अथर्वा की पत्नी शान्ति से दधीचि जी का जन्म हुआ था। और बचपन से ही दधीचि बड़े शान्त, परोपकारी और भगवान के भक्त थे। उन्हें भगवान का भजन करना और तपस्या में लगे रहना, यही अच्छा लगता था। कुछ बड़े होने पर पिता से आज्ञा लेकर वे तपस्या करने चले गये और हिमालय पर्वत के एक पवित्र शिखर पर सैकड़ों वर्षो तक तप करते रहे।

      पुराणों में ऐसी बहुत सी दृश्य लिखे गए है। उस काल में कुछ ऐसी बात हुई की असुर और देवताओं में लड़ाई हुई और त्वष्टा के पुत्र वूत्रासुर ने स्वर्ग लोक पर अधिकार कर लिया और देवताओं को उसे जीत ने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। तो सब भगवान नारायण के शरण में गये। और उपाय पूछा तो भगवान नारायण जी ने कहा - ' वूत्रासुर को कोई नहीं मार सकता। वह शेष जी का भक्त था। अगर उसे मारना ही है तो एक ही उपाय है महर्षि दधीचि की हड्डियों से बना वज्र के द्वारा इंद्रा ही मार सकते है। महर्षि दधीचि इतनी बड़ी तपस्या की है कि उनकी हड्डियों में अपार शक्तियाँ है और वे इतने परोपकारी है की माँगा ने पर वो अपनी हड्डियाँ अवश्य दे देंगे। '

   सभी देवता दधीचि के आश्रम गये और दधीचि उनको देख उनका स्वागत किया और कारण पूछा तब इंद्रा ने सारी बात बताई। दधीचि ने कहा - ' उसने मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा, मैं उसे बिना कारण शाप नहीं दे सकता। अब आप ही बताइये कि मैं कैसे आपको सहयोग दूँ।' इंद्रा ने कहा ' भगवान नारायण ने बताया है आप की हड्डियों में अपार शक्तियाँ है और उस का द्वारा बने वज्र से ही वूत्रासुर को हार हो सकती है दूसरा कोई उपाय नहीं है। और आपकी कृपा हो तो हम विजय बन सकते है हम आपसे प्रार्थना करते है। ये कहा कर देवताये दधीचि के आगे हाथ जोड़कर खड़े रहे।'

  महर्षि दधीचि बहुत प्रसन्न हुवे।  और बोले - ' यह तो बहुत उत्तम बात है। मृत्यु तो एक दिन आना है। और किसी का उपकार करने में मृत्यु हो जाय, इस से उत्तम बात और क्या होगी। मैं अभी शरीर छोड़ रहा हूँ। आप लोग मेरी सब हड्डियाँ ले लें। '  महर्षि ने आसन लगाया, आँखे बंद किये और योग के द्वारा शरीर छोड़ दिया। और जंगली जानवर आकर उन्होंने दधीचि के देह का सब चमड़ा और मांस आदि चाट लिये। उनकी बची सारी हड्डियों से विश्वकर्मा ने वज्र बनाया। उसी वज्र से इंद्रा ने वूत्रासुर को मारा। और स्वर्ग का अधिकारी बने।

सीख - परोपकारी बनो। दुसरो का उपकार करने के लिये अपनी शरीर की हड्डियाँ तक देने वाले महर्षि दधीचि मरकर भी अमर हो गये। जब तक पृथ्वी रहेगी, लोग उनका गुणगान करेंगे उन्हें याद करेंगे और आदर से सिर झुकायेंगे।

  

Wednesday, June 18, 2014

Hindi Motivational Stories..................अतिथि-सेवा

अतिथि-सेवा

     हम सभी जनते है यात्रा में थके, भूखे-प्यासे जब कोई घर देखकर वहाँ जाते है। तो हमरे मन की क्या दशा होती है, यह तो यात्रा में जिसने कभी थककर कहीं जाना पड़ा हो तो उसे पता होता है। ऐसे अतिथि को बैठने के लिए आसान देना, मीठी बात कहा कर उसका स्वागत करना उसे हाथ- पैर धोने तथा पीने को जल देना और हो सके तो भोजन करना बड़े पुण्य का काम है। और इस के विपरीत जो अपने घर आये अतिथि को फटकारता और निराश करके लौटा देता है, उसके सारे पुण्य नष्ट हो जाते है। महाराज संकृति के पुत्र महाराज रन्तिदेव बड़े ही अतिथि-सेवा भावी थे। महाराज रन्तिदेव इतने बड़े अतिथि-सेवी थे कि अतिथि की इच्छा जानते ही उसकी आवशक वस्तु उसे दे देते थे। उनके यहाँ रोज हजारों अतिथि आते थे। इस प्रकार बाँटते-बाँटते महाराज का सब धन समाप्त हो गया। वे कंगाल हो गये।

    महाराज रन्तिदेव निर्धन हो जाने पर राजमहल छोड़ दिया। स्त्री-पुत्र के साथ वे जंगल के रस्ते यात्रा करने लगे। क्षत्रिय को भिक्षा नहीं माँगना चाहिए, इस लिए वन के कन्द, मूल, फल आदि से वे अपना तथा परिवार का काम चलते थे। बिना माँगे कोई कुछ दे देता तो ले लेते थे। इस तरफ वह एक दिन ऐसे वन में पहुँच गए जहा उन्हें जल तक नहीं मिला और वह जंगल इतना बड़ा था की वहाँ से बाहर निकलने में ही उन्हें कई दिन लग गए पुरे 48 दिन तक वह और उनका परिवार भूखे प्यासे भटकते रहे और 49 वे दिन वे एक बस्ती में आ गए जहाँ उन्हें एक मनुष्य ने बड़े आदर के साथ उनका स्वागत किया और घी से बना खीर, हलवा और शीतल जल लाकर दिया।

   महाराज रन्तिदेव बड़ी शान्ति से वह सब सामान लेकर भगवान को भोग लगाया। 48 दिनों के बाद उपवास से मरने-मरने को रहे महाराज के मन में उस समय भी यही दुःख था कि जीवन में पहली बार आज किसी अतिथि को भोजन कराये बिना उन्हें भोजन करना पड़ेगा। और उसी समय एक ब्राह्मण वहाँ आये वे भूखे थे। उन्होंने भोजन माँगा। राजा रन्तिदेव बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने बड़े आदर से ब्राह्मण को भोजन कराया। जब ब्राह्मण भर पेट भोजन करके चले गये, तब बचे भोजन को राजा ने परिवार के सभी को एक जैसा बांटकर दे दिया। अपना भाग लेकर वे भोजन करने जा रहे थे कि एक भूखा शूद्र आ गया। राजाने उसे भी भोजन कराया। लेकिन शूद्र के जाते ही एक और अतिथि आ पहुँचा। उसके साथ कुछ कुत्ते थे जो बहुत भूखे थे। राजा ने उस अतिथि तथा कुत्तों को भी भोजन कराया। अब उनके पास सिर्फ थोड़ा सा पानी बचा था। जैसे ही राजा पानी पीने लगे उसी समय एक चाण्डाल वह आया और कहा - महाराज मेरा प्यास के कारण प्राण निकले जा रहे है अगर दो बून्द पानी मिल जाता तो आपकी बड़ी कृपा होगी।

  महाराज रन्तिदेव की आँखों में आंसू आ गये। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की -' प्रभो ! यदि मेरे इस जल-दान का कुछ पुण्य हो तो उसका फल मैं यही चाहता हूँ कि संसार के दुःखी प्राणियों का दुःख दूर हो जाय। ' और फिर बड़े प्रेम से महाराज ने उस चाण्डाल को वह बचा हुआ पानी पिला दिया।

   चाण्डाल के जाते ही महाराज भूख और प्यास के मारे बेहोश होकर गिर पड़े। लेकिन उसी समय वहाँ भगवान ब्रह्मा, विष्णु, शंकर और धर्मराज प्रगट हो गये। और यही लोग चाण्डाल, ब्राह्मण, शूद्र आदि रूप में रन्तिदेव की परीक्षा लेने आये थे। और रन्तिदेव की अतिथि-सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिये।

सीख - इस कहानी से यही सीख मिलता है कि अगर अपने एक भी गुण जीवन में धारण कर लिए और उस पर अटल रहे, चाहे कुछ भी हो जाय यहाँ तक की आपको उसके लिए अपने प्राण ही क्यों न देने पड़े। तो आपका कल्याण निश्चित है। आपको भगवान का दर्शन होगा और उनका प्यार मिलेगा , जैसे रंतिदेव को उनके अतिथि-सेवा के प्रभाव से भगवान ने उन्हें दर्शन दिया।

   

   

Tuesday, June 17, 2014

Hindi Motivational Stories............................गोभक्ति और गुरुभक्ति

गोभक्ति और गुरुभक्ति 

  अयोध्याके चक्रवर्ती सम्राट महाराज दिलीप के कोई संतान नहीं थी। एक बार वे अपनी पत्नी के साथ गुरु वसिष्ठ जी के आश्रम में गये और पुत्र के लिये महर्षि से प्रार्थना की। महर्षि वसिष्ठ ने ध्यान करके राजा के पुत्र न होने का कारण जान लिया और बोले - 'महाराज! आप देवराज इन्द्र से मिलकर जब स्वर्ग से पृथ्वी पर आ रहे थे तो रास्ते में खड़ी कामधेनु को देखा ही नहीं। उनको प्रणाम नहीं किया। इस लिए कामधेनु ने आपको शाप दे दिया है कि उनकी संतान की सेवा किये बिना आपको पुत्र नहीं होगा। '

   महाराज दिलीप बोले - 'गुरुदेव! सभी गाये कामधेनु की संतान है, गो-सेवा तो बड़े पुण्य का काम है। मैं गायों की सेवा करूँगा। ' वसिष्ठ जी ने बताया - 'मेरे आश्रम जो नन्दिनी नाम की गाय है, वह कामधेनु की पुत्री है। आप उसी की सेवा करें।

   महाराज दिलीप सबेरे ही नन्दिनी के पीछे-पीछे वन में गये। नन्दिनी जब खड़ी होती तो वे खड़े रहते, वह चलती तो उसके पीछे चलते, उसके बैठने पर ही वे बैठते, उसके जल पिने पर ही वे जल पीते वे उसके शरीर पर एक मक्खी तक बैठने नहीं देते थे। संध्या समय जब नन्दिनी आश्रम लौटती तो उसके पीछे-पीछे महाराज लौट आते। महारानी सुदक्षिणा उस गौ की पूजा करती थी। रात को उसके पास दीपक जलती थी और महाराज गोशाला में गाय के पास भूमि पर ही सोते थे। इस तरह सेवा कार्य का  एक महीना पूरा हुआ और एक दिन वन में महाराज कुछ सुन्दर पुष्पों को देखने लगे और इतने में नन्दिनी आगे चली गयी। कुछ ही क्षण में ही गाय के डकारने की बड़ी करुणा ध्वनि सुनायी पड़ी। महाराज उस ध्वनि की तरफ दौड़ कर वहाँ पहुँचे तो देखते है कि एक झरने के पास एक बड़ा भरी सिंह उस सुन्दर गाय को दबाये बैठा है। सिंह को मारकर गाय को छुड़ाने के लिए महाराज ने धनुष्य चढ़ाया, किंतु जब तरकस से बाण निकलने लगे तो दाहिना हाथ तरकस में ही चिपक गया।
   
 आश्चार्य में पड़े महाराज दिलीप से सिंह ने मनुष्य की भाषा में कहा - 'राजानं ! मैं कोई साधारण सिंह नहीं हूँ। मैं भगवान शिव का सेवक हूँ। अब आप लौट जाइये। जिस काम के करने में अपना बस न चले, उसे छोड़ देने में कोई दोष नहीं होता।  मैं भूखा हूँ। यह गाय मेरे भाग्य से यहाँ आ गयी है। इस से मै अपनी भूख मिटाऊंगा। '

   महाराज दिलीप बड़ी नम्रता से बोले - ' आप भगवान शिव के सेवक है, इसलिये मैं आपको प्रणाम करता हूँ। सत्पुरूषों के साथ बात करने तथा थोड़े क्षण भी साथ रहने से मित्रता हो जाती है। आपने जब अपना परिचय मुझे दिया ही है तो मेरे ऊपर इतनी कृपा और कीजिये कि इस गौ को छोड़ दीजिये और इसके बदले में मुझे खाकर अपनी भूख मिटा लीजिये। ' सिंह ने महाराज को बहुत समझाया कि एक सम्राट को गाय के बदले अपना प्राण नहीं देने चाहिए। किन्तु महाराज दिलीप अपनी बात पर ढूढ बने रहे। एक शरणागत गौ महाराज के देखते देखते मारी जाय, इस से उसे बचाने में अपना प्राण दे देना उन्हें स्वीकार था। अंत में सिंह ने महाराज की बात मान ली और महाराज का चिपका हाथ तरकस से छूट गया। महाराज धनुष और तरकस अलग रख दिया और सिर झुकाकर वे सिंह के आगे बैठ गये।

   महाराज दिलीप समझते थे कि अब सिंह उनके ऊपर कूदेगा और उन्हें खा जायेगा। परन्तु उनके ऊपर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। नन्दिनी उन्हें मनुष्य की भाषा में पुकारकर कहा - 'महाराज ! आप उठिये। यहाँ कोई सिंह नहीं है, यह तो मैंने आपकी परीक्षा लेने के लिये माया दिखायी है। और अभी आप पत्ते के दोने में दुहकर मेरा दूध पी लीजिये। आपको गुणवान तथा प्रतापी पुत्र होगा। '

  महाराज ऊठे। उन्होंने उस कामधेनु गौ को प्रणाम किया और साथ जोड़कर बोले - 'माता ! आपके दूध पर पहले आपके बछड़े का अधिकार है। उसके बाद बचा दूध गुरुदेव का है। आश्रम लौटने पर गुरुदेव की आज्ञा से ही मैं थोड़ा-सा दूध ले सकता हूँ। ' महाराज की गुरुभक्ति तथा धर्म-प्रेम से नन्दिनी और भी प्रसन्न हुई। शाम को आश्रम लौटने पर महर्षि वसिष्ठ की आज्ञा से महाराज ने नन्दिनी का थोड़ा-सा दूध पिया। समय आने पर महाराज दिलीप के पास प्रतापी पुत्र हुआ।

 सीख - गुरु की आज्ञा और पूरी निष्ठा से कार्य जो करते है और उसके सयम- नियम, मर्यादा और अपनी क़ुरबानी तक देने के लिए जो तैयार रहते है। उनकी हर इच्छा पूरी होती है वे ही महान बनते है।

Hindi Motivational Stories...................... योग का विज्ञान

योग का विज्ञान 

  एक बहुत समझदार व्यापारी थे। एक बार वे बहुत सारे गहने और पैसे लेकर दूसरे शहर जा रहे थे। जब स्टेशन पर टिकट ले रहे थे, तो उन्होंने जान लिया कि एक चोर भी उनके पीछे-पीछे चल रहा है। गाड़ी में भी वह उनके सामने की सीट पर बैठ गया। थोड़ी देर बाद एक स्टेशन आया, व्यापारी नीचे उतरे, मौका मिलते ही चोर ने उनका सारा सामान खोलकर देखा परन्तु कुछ भी नहीं मिला। जब गाड़ी चली तो व्यापारी आकर सीट पर बैठ गया। थोड़ी देर बाद फिर एक सेटशन आया, व्यापारी फिर नीचे उतरे और प्लेटफार्म पर टहलने लगे। चोर ने भी फिर से सारा सामान खोजा परन्तु कहीं भी पैसे और गहने नही मिले। उसे बहुत आश्चर्य हुआ। इसके बाद सेठ का उतरने का स्टेशन आ गया। उन्होंने चोर से पूछा, तुम्हारे मन में एक प्रशन है ना ? चोर ने कहा, आपको कैसे मालूम है ? मुझे मालूम है, सेठ ने कहा, जब-जब मैं नीचे उतरा तब-तब तुम ने मेरा सामान चेक किया कुछ ढूंढा, तुम्हें वो पैसे और गहने चाहिये ना ? हाँ सेठ, मैंने स्टेशन पर देखा था, आपके पास गहने और पैसे है जरूर, परन्तु इतना ढूंढने पर भी मुझे वो नहीं मिले, अब बता दीजिये, आपने कहाँ छिपाये ? सेठ ने खड़े होते हुये कहा, अपना तकिया उठा, मैंने सारे पैसे और गहने इस तकिये के नीचे ही तो छिपाये थे, मुझे पक्का पता था कि तू सब कुछ ढूंढेगा, पर स्वयं के तकिये के नीचे नहीं ढूंढेगा इसलिये मैंने उन्हें यही छिपा दिया।

सीख - हर विपरीत स्तिथी में घबरा ने बजाय समझ से काम लेना चाहिये। जिस से हमारा नुकसान भी न हो और समाने वाले को मौका भी न मिले।


Hindi Motivational Stories.................. प्रार्थना की सार्थकता

प्रार्थना की सार्थकता 

           एक प्रार्थना सभा के पश्चात् एक वकील साहब ने गाँधी जी से पूछा कि बापू आप प्रार्थना करने में इतने घंटे व्यतीत करते है, अगर इतना ही समय आपने देश की सेवा में लगाया होता तो अभी तक आपने देश की कितनी सेवा कर ली होती ? गाँधी जी अचानक गम्भीर हो गये फिर बोले - वकील साहब आप भोजन करने में कितना समय लगाते है ? वकील साहब ने कहा बीस मिनट लगाता हूँ। इस पर गाँधी जी ने कहा कि वकील साहब आप भोजन करने में इतना समय बर्बाद करते है। अगर इतना ही इस समय आप काम करते तो मुक़दमे की काफी तैयारी कर ली होती। वकील साहब ने चकित होकर कहा कि - महात्मा जी अगर मैं भोजन नहीं करूँगा तो मुक़दमे की तैयारी कैसे करूँगा ? इस पर गाँधीजी ने कहा - वकील साहब ! जिस प्रकार आप बिना भोजन के मुकदमे की तैयारी नहीं कर सकते, वैसे ही मैं भी प्रार्थना के बिना देश की सेवा नहीं कर सकता। प्रार्थना ही मेरी आत्मा का भोजन है। इस से मेरी आत्मा को शक्ति मिलती है जिस से मैं देश की सेवा करता हूँ।

      गाँधी जी की प्रार्थना सभा में जीवन दर्शन छिपा हुआ था। जैसे अन्न के थोथे छिलकों से शरीर को पुष्ट नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार सारहीन लालसाएँ आत्मा को स्वस्थ नहीं कर सकती। यदि शरीर को समय पर भोजन न दिया तो वह दुर्बल हो जाता है और भूखा प्यास से व्याकुल हो कर रोटी पानी के लिए तड़पने लगता है। यही बात आत्मा पर भी लागू होती है। इसे एकान्त में प्रार्थना करने की आवश्यकता होती है। इस से सार्थक बल मिलता है।

सीख - इस कहानी से हमें ये समझ मिलती है की जिस भी कार्य को करना है  उसके लिए पहले शक्ति धारण करो फिर कार्य में लग जाओ तो वह कार्य सफल होगा। 

Hindi Motivational Stories......................गुरु और शिष्य

गुरु और शिष्य

  एक गुरु थे। जब वे बूढ़े हुए तो उनको चिन्ता होने लगी कि मेरे जाने के बाद मेरा स्थान कौन लेगा।और एक दिन, एक व्यक्ति उनके पास आया, वह स्वाभाव से बड़ा चंचल था। वह बोला, गुरु जी मैं आपको अपना गुरु बनाना चाहता हूँ, आपके पास रहना चाहता हूँ। गुरु उसे अपने पास रहने देते है। थोड़े दिन वह गुरु के आश्रम में रहता है। और कुछ ही दिनों के बाद वह आश्रम और गुरु के साथ रहने के बाद सोचने लगता है मैं तो अब अच्छा बन गया हूँ। गुरु के पास एक जादू की छड़ी होती है जिस से दुसरो के अन्दर के अवगुण दिखाई देते थे।

    एक दिन वह गुरु से जिद्द करके उन से एक वरदान माँगता है और उस वरदान में वह गुरु की छड़ी माँग लेता है। गुरु न चाहते भी उसे छड़ी देते है। और कहते है - कि इस छड़ी को तुम अपने पास रखना। इस से तुम्हें सब जानने को मिलेगा। अब वह छोड़ी लेने के बाद उसका मन बार-बार उसका उपयोग करके देखने का विचार करने लगा। और वह छड़ी लेकर सब को लगा कर देखता है और उसमें सब के अवगुण, दोष दिखाई देता है तो सारा दिन उसे देखता रहता। गुरु उस पर बहुत शिक्षा व सावधानियाँ सिखाने में मेहनत करते है। लेकिन उसका एक अवगुण था आश्रम में आने वाले हर शिष्य की कमी-कमजोरियाँ देखना और वर्णन करना। सब को कहता कि आप लोग बहुत अवगुणी हो। जिस की वजह से गुरु और आश्रम में आने वाले परेशान थे।

      एक दिन शिष्यों ने गुरु को उस लडके के बारे में बताया, शिकायत किया, गुरु ने उन लोगो को समझा बुझाकर  भेज दिया। उस के बाद गुरु ने लडके को अपने पास बिठाकर बहुत समझाया और यह तक कहा - कि तुम मेरी शिक्षा के लायक नहीं हो, अंतः तुम यहाँ से चले जाओ। परन्तु उस लडके ने कहा - कि गुरु जी मैं सुधर जाऊँगा। आपको छोड़कर नहीं जाऊँगा। गुरु जी ने उसे क्षमा कर दिया। परन्तु उसकी पर-निन्दा की आदत नहीं छूटी।

   एक दिन उस लड़के के मन में ख्याल आता है कि अभी तक यह छड़ी सभी शिष्यों पर आजमाई है क्यों न आज इसे गुरु जी पर आजमाया जाय। यह सोचकर वह गुरु के पास जाता है, उस समय गुरु जी सो रहे थे। वह छड़ी लगा कर देखता है तो उस दिन गुरु जी के मन में उसके प्रति क्रोध दिखाई देता है। जो वह उस छड़ी से देखता है। यह क्या ! सब में दोष है लेकिन मैं जिसको गुरु बनाया उन में भी दोष है तो क्या इनको गुरु बनाना चाहिए ? चलो इस आश्रम से, यहाँ रहना ठीक नहीं है।

   सवेरा होता है वह गुरु के पास जाता है विदा लेने और सारी बात बता देता है, गुरु जी उसको कहते है, ठीक है तुम जाओ लेकिन जाने से पहले तुम यह छड़ी खुद को भी लगाकर देखो। वह छड़ी खुद पर लगता है, तो देखता है कि वह छड़ी पूरी ही अवगुण बुराई से भर गयी है। तो उसको खुद पर शर्म आती है और कहता है कि आप में तो एक-दो दोष है लेकिन मैं तो अभी भी पूरा अवगुणों से भरा हुआ हूँ। और फिर बहुत पश्चाताप करता है। गुरु से कहता है -  आगे से मैं ऐसे कर्म नहीं करूँगा। ऐसा वायदा करता हूँ। …

सीख - पर चिन्तन पतन की जड़ है - इस लिये हमें अगर जीवन में उन्नति करनी है तो दूसरों के अवगुण के बजाय खुद के अवगुण देखना है और अपने में सुधार करना है। अगर देखना ही  सब के गुणों को देखो और प्रभु का गुणगान करो।


  

Sunday, June 15, 2014

Hindi Motivational Stories.... .........बुद्धिमान बंजारा

बुद्धिमान बंजारा 

   एक बंजारा था। वह बैलों पर मुल्तानी मिट्टी लादकर दिल्ली की तरफ जा रहा था। रास्तें में कई गाँवो से गुजरते समय उसकी बहुत सी मिट्टी बिक गयी। बैलों की पीठ पर लदे बोरे आधे तो खाली हो गये और आधे भरे रह गये। अब वे बैलों की पीठ पर टिके कैसे ? क्यों कि भार एक तरफ हो गया। नौकरों ने पूछा कि क्या करे ? बंजारा बोला - अरे ! सोचते क्या हो, बोरों के एक तरफ रेत भर लो। यह राजस्थान की जमीन है, यहाँ रेत बहुत है। नौकरों ने वैसा ही किया। बैलों की पीठ पर एक तरफ आधे बोरे में मुल्तानी मिट्टी हो गयी और दूसरी तरफ आधे बोरे में रेत हो गई।

    दिल्ली से एक सज्जन सामने से आ रहे थे। उन्होंने बैलों पर लदे बोरों में एक तरफ रेत झरते हुए देखी तो वे बोले कि बोरों में एक तरफ रेत क्यों भरी है ? नौकरों से कहा - सन्तुलन बनाने के लिए। वे सज्जन बोले - अरे ! यह तुम क्या मूर्खता करते हो ? तुम्हारा मालिक और तुम एक से ही हो। बैलो पर मुफ़्त में ही भर ढ़ो कर उनको मार रहे हो। मुल्तानी मिट्टी के आधे-आधे दो बोरों को एक ही जगह बांध दो तो कम-से-कम आधे बैल तो बिना भार के खुले चलेंगे। नौकरों ने कहा आपकी बात तो ठीक जँचती है, पर हम वही करेंगे, जो हमारा मालिक कहेगा। आप जाकर हमारे मालिक से यह बात कहो और उनसे हमें हुक्म दिलवाओ। वह मालिक (बंजारे ) से मिला और उस से बात कही। बंजारे ने पूछा कि आप कहाँ के है ? कहाँ जा रहे है ? उसने कहा कि में भिवानी का रहने वाला हूँ। रुपये कमाने के लिए दिल्ली गया था। कुछ दिन दिल्ली में रहा, फिर बीमार हो गया। जो थोड़े रुपये कमाये थे, वे खर्च हो गये। व्यापार में घाटा लग गया। पास में कुछ रहा नहीं तो विचार किया कि घर चलना चाहिए।

               उसकी बात सुनकर बंजारा नौकरों से बोला कि इनकी सहमति मत लो। अपने जैसे चल रहे है, वैसे चलो। इनकी बुद्धि तो अच्छी दिखती है, पर उसका नतीजा ठीक नहीं निकलता, अगर ठीक निकलता तो ये धनवान हो जाते। हमारी बुद्धि भले ही ठीक न दिखे , पर उसका नतीजा ठीक होता है। मैंने कभी अपने काम में घाटा नहीं खाया। और बंजारा अपने बैलो को लेकर दिल्ली पहुँचा। वहाँ उसने जमीन खरीद कर मुल्तानी मिट्टी और रेत दोनों को अलग-अलग ढेर लगा दिया और नौकरों  कहा कि बैलों को जंगल में ले जाओ और जहाँ चारा-पानी हो, वहाँ उनको रखो। यहाँ उनको चारा खिलायेंगे तो नफा कैसे कमायेंगे ? मुल्तानी मिट्टी बिकनी शुरू हो गयी।

    उधर दिल्ली का बादशाह बीमार हो गया। वैध ने सलाह दी कि अगर बादशाह को राजस्थान के धोरे (रेत की टीले ) पर रहें तो उनका शरीर ठीक हो सकता है। रेत में शरीर को निरोग करने की शक्ति होती है। अंतः बादशाह को राजस्थान भेजे। राजस्थान क्यों भेजे ? वहाँ की रेत यही माँगा लो। ठीक बात है। फिर किसी ने कहा रेत यही मिल जायेगी। अरे ! ते दिल्ली का बाज़ार है, यहाँ सब कुछ मिलता है। मैंने एक जगह रेत का ढेर लगा हुआ देखा है। अच्छा! तो फिर जल्दी रेत मँगवा लो। बादशाह के आदमी बंजारे के पास गये और उस से पूछा कि रेत क्या भाव है ? बंजारा बोला कि चाहे मुल्तानी मिट्टी खरीदों, चाहे रेत खरीदो, एक ही भाव है। दोनों बैलों पर बराबर तुलकर आये है। बादशाह के आदमियों ने वह सारी रेत खरीद ली।

 सीख - इस कहानी से हमें ये सीख मिलती है कि जिनकी बुद्धि अच्छी हो और जिस ने जीवन में उन्नति किया हो कुछ कमाया हो उसकी बात माननी चाहिए। ऐसे ही जो संत महात्मा जिन्होंने अपने जीवन में  दुःख अशांति पर काबू पा लिया हो और सुख शांतिमय जीवन जी रहे हो उनकी बात सुनना चाहिए।

     

Hindi Motivational Stories................... कल्याणकारी संत

कल्याणकारी संत 


   एक नगर में एक जुलाहा रहता था। वह स्वाभाव से अत्यंत शांत, नम्र तथा वफादार था। उसे क्रोध तो कभी आता ही नहीं था। एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी। वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर पहुँचे कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता ?   उन में एक लड़का धनवान माता-पिता का पुत्र था। वहाँ पहुँचकर वह बोला - यह साड़ी कितने की दोगे ? जुलाहे ने कहा - दस रुपये की।

     तब लडके ने उसे चिढ़ाने के उद्देश्य से साड़ी के दो टुकड़े कर दिया और एक टुकड़ा हाथ में लेकर बोला - मुझे पूरी साड़ी नहीं चाहिए, आधी चाहिए। इसका क्या दाम लोगे ? जुलाहे ने बड़ी शान्ति से कहा पाँच रुपये। लडके ने उस टुकड़े के भी दो भाग करते हुए पूछा इस का दाम ? जुलाहे अब भी शांत था। उसने बताया - ढाई रुपये। लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े करता गया। अंत में बोला - अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए। यह टुकड़े मेरे किस काम के ? जुलाहे ने शांत भाव से कहा - बेटे ! अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे। अब लडके को शर्म आई और कहने लगा - मैंने आपका नुकसान किया है। अंतः मैं आपकी साड़ी के दाम दिये देता हूँ। पर संत जुलाहे ने कहा कि जब अपने साड़ी ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूँ ? लडके का धनभिमान जागा और वह कहने लगा कि मैं बहुत आमिर आदमी हूँ। तुम गरीब हो। मैं रुपये दे दूँगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर तुम यह घाटा कैसे सहोगे ? और नुकसान मैंने  किया है तो घाटा भी मुझे ही पूरा करना चाहिए।

    संत जुलाहे मुस्कुराते हुए कहने लगे - तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते। सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बीना और सूत काता। फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल हो जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपये से यह घाटा कैसे पूरा होगा ? जुलाहे की आवाज़ में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दया और सौम्यता थी। लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। उसकी आँखे भर आई और वह संत के पैरो में गिर गया।

    जुलाहे ने बड़े प्यार से उसे उठाकर उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा - बीटा, यदि मैं तुम्हारे रुपये ले लेता तो  है उस में मेरा काम चल जाता। पर तुम्हारी ज़िन्दगी का वही हाल होता जो उस साड़ी का हुआ। कोई भी उससे लाभ नहीं होता। साड़ी एक गई, मैं दूसरी बना दूँगा। पर तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गई तो दूसरी कहाँ से लाओगे तुम ? तुम्हारा पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती है।

 सीख - यह पर संत की उँची सोच और परक शक्ति ने लडके का जीवन बदल दिया। ये वही जुलाहा था जो दक्षिण भारत का महान संत तिरूवलुवर।

Hindi Motivational stories......निश्चय बुद्धि

निश्चय बुद्धि

   अंगद जब रावण के दरबार से वापस लौटा तो अंगद के जो साथी थे वह उसे कहने लगे कि तेरे में इतनी शक्ति कैसे आ गई कि रावण की सेना का कोई भी योद्धा तुम्हारा पैर नहीं हिला पाया। यदि तुम्हारा पैर हिल जाता तो ? अंगद ने कहा नहीं हिलता। उसके साथी ने कहा फिर भी हिल जाता तो अंगद निश्चय से बोला नहीं हिलता। उसके साथ बार बार यही प्रश्न पूछते रहे यदि हिल जाता तो ? आखिर अंगद ने उत्तर दिया कि रावण की सभा में जब मैंने पैर रखा तो अपनी शक्ति के आधार पर नहीं रखा था। मैंने रावण की सभा में बोला की यदि यह पैर हिल गया तो सीता मैया को यही छोड़ जाऊँगा। अगर मेरा पैर हिल जाता तो मेरा क्या जाता, राम जी की सीता जी जाती और मुझे पूरा निश्चय था, राम भगवान कभी ऐसा नहीं होने देते। जिस कारण रावण की सभा के बड़े सुरमा भी मेरा पैर नहीं हिला पाये।

सीख - कहते है निश्चय में विजय है इस लिए अपने जीवन में भी निश्चय बुद्धि बनो ऐसे जैसे अंगद सामान।

Saturday, June 14, 2014

Hindi Motivational Stories....... .....धरनी का प्रभाव

धरनी का प्रभाव 

     श्रवण कुमार अपने अंधे मात-पिता को चारों धाम की यात्रा कराने निकल पड़ा। दोनों को कावड़ में बिठा कर हर तीर्थ स्थान की यात्रा करा रहा था। अब वह हरिद्धार के तरफ प्रस्थान कर रहा था कि बीच रास्ते में उसे संकल्प आया कि मेरे माता-पिता अंधे है। मैं अपने जीवन का मूल्यवान समय फालतू में गँवा रहा हूँ। मुझे अपने अन्धे माँ बाप से कुछ मिलता तो है नहीं मैं क्यों इन्हें उठाकर घूम रहा हूँ। और अचानक ही उसने अपने माता - पिता से कहा आप मुझे क्या देंगे ? मैं आपको यात्रा करा रहा हूँ, मुझे क्या मिलेगा ? अंधे मात-पिता प्रश्न सुनकर चौक गये, लेकिन उसके पिता ने श्रवण से पूछा, बेटे अभी हम कौन से स्थान पर है ? उसने कहा दिल्ली। उसके पिता ने कहा बेटे, हम को थोड़ी दूर हरिद्धार ले चलो, फिर तुम्हें जो चाहिए हम देंगे।

              श्रवण कुमार अपने मात-पिता को हरिद्धार ले आया। जब वह हरिद्धार पहुँचा तो अपने मात-पिता से कुछ माँगने पर उसे बहुत पश्चात हुआ और रोने लगा और कहा आपसे कुछ माँगकर मैंने बहुत बड़ा अपराध किया। अब मेरा जीवन में रहना उचित नहीं है। तब उसके अंधे पिता ने कहा बेटा, इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं है। दिल्ली की धरनी पर सब लोग लेने वाले है, कोई सेवा करने वाला नहीं। इसलिए उस धरनी के प्रभाव के कारण तुमने हम से कुछ माँगा। अब हम भगवान की धरनी पर है जो हरी सबको देता है जिस कारण तुम्हे पश्चाताप हुआ। इसलिए बेटे तुम बहुत श्रेष्ट हो, सिर्फ धरनी का प्रभाव तेरे पर पड़ा था, वह अब नष्ट हो गया है।

 सीख - हर चीज वस्तु का निरंतर हम पर प्रभाव पड़ता है। इस लिए दूसरे का प्रभाव हम पर न पड़े इस के लिए स्वयं को शक्तिशाली बनाव। इस लिए राजयोग या मैडिटेशन या ध्यान का नियमित अभ्यास करते रहो। 

Hindi Motivational Stories......... ........सब से श्रेष्ठ धन, संतोष धन

सब से श्रेष्ठ धन, संतोष धन

      एक बार किसी नगर में अकाल पड़ गया। लोग भूखों मरने लगे। उस नगर के जमींदार ने नगर में यह कहलवा दिया कि मैं प्रतिदिन बच्चों को खाने के लिए रोटी बाटुँगा। हमारे यहाँ सभी बच्चे समय पर इकट्ठे हो जाये। सभी बच्चों के आने पर वह जमींदार अपने हाथों से दो-दो रोटी प्रत्येक बच्चे को देता था। किन्तु एक दस वर्ष की लड़की जो बड़ी ही भोली-भाली थी। एकान्त में खड़ी रहती, जब उसकी बारी आती तो अन्त में सब से छोटी रोटी ले लेती थी। अन्य सभी बच्चे उसे धक्का देकर बड़ी-बड़ी रोटियाँ ले लेते थे। प्रतिदिन इसी तरह से शान्त होकर सब से बाद में वह लड़की छोटी रोटी ख़ुशी-ख़ुशी लेकर घर पर अपनी माँ को देती थी। उधर माँ और बेटी के सिवाय और कोई भी नहीं था। दोनों रोटी खाकर भगवान का गुणगान करते हुए सुख, शान्ति से सो जाते थे। इसी प्रकार एक दिन वह लड़की रोटी लेकर घर आयी। माँ ने जब रोटी तोड़ी तो उसमें से सोने के तीन छोटे-छोटे दाने मिले। माँ ने कहा -बेटी इस रोटी में सोने के तीन छोटे-छोटे दाने है, ले जाकर जमींदार को दे आवो।

         लड़की ने कहा - अच्छा माँ, मैं अभी लेकर जाती हूँ। वह लड़की टूटे हुए रोटी में सोने के दाने रखकर जमींदार के पास पहुँची और कहने लगी - बाबू जी, यह लो अपने सोने के दाने। जमींदार के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि यह लड़की कैसे सोने के दाने देने के लिए आयी है ! जमींदार के पूछने पर उस लड़की ने सारा किस्सा कह सुनाया। जमींदार सब कुछ सुनने के बाद उस लड़की को अपलक नज़रों से देख रहा था। क्यों कि जमींदार जानता था, कि यह लड़की शान्त खड़ी होकर सब से अन्त में छोटी रोटी लेकर चली जाती थी।

    जमींदार ने कहा - बेटी, तुम इसे ले जावों। यह तुम्हारे सन्तोष का फल है। लड़की ने उत्तर दिया - बाबू जी, सन्तोष का फल तो मुझे पहले ही प्राप्त हो गया कि भीड़ में धक्के नहीं खाने पड़े। जमींदार यही सोचता था, कि बच्ची तो छोटी है, परन्तु बात बड़ी ही ऊँची और सयानी करती है। जमींदार के बहुत कहने-सुनने पर लड़की सोने के दाने को लेकर घर चली गयी। बाद में जमींदार ने खूब सोच समझकर उस लड़की एवं उसके माता को अपने घर बुलावा लिया। और उसे धर्म-पुत्री बनाकर समूचे सम्पतिका उत्तराधिकार सौंप दिया। क्यों कि सन्तान हीन होने के कारण जमींदार को वैसे भी सन्तान की आवशकता थी। कहने का भाव यह है कि स्थूल धन से श्रेष्ठ सन्तोष धन होता है। क्यों कि उस बच्ची को सन्तोष का फल कितना मीठा प्राप्त हुआ।

 सीख - एक कहावत है , "जब आवे सन्तोष धन सब धूरि सामान" कहने का भाव ये है की अगर हमारे जीवन में सन्तोष है तो सन्तोष सब से बड़ा धन है इस के आगे बाकी सब धन धूल के सामान है। इस लिए जो कुछ आपके पास है उस में सन्तोष अनुभव करे।  

Hindi Motivational Stories......... स्वच्छा बुद्धि में ही स्वच्छा ज्ञान रहता है

स्वच्छा बुद्धि में ही स्वच्छा ज्ञान रहता है 

  एक व्यक्ति को एक महात्मा जी के पास ज्ञान-चर्चा के लिए जाना था। महात्मा जी का आश्रम ऊँची पहाड़ी पर स्तिथ था जहॉ पहुँचाने के लिए टेढ़े मेढे, पथरीले रास्तों से गुजरना पड़ता था। वह व्यक्ति चलते-चलते तन और मन दोनों से थक गया। उसके अन्दर ढेर सारे प्रश्नों एवं उल्टे-सुल्टी बातों की झड़ी लग गयी। वह सोचने लगा कि इस महात्मा जी को ऐसे निर्जन एवं उतार - चढ़ाव वाले रस्ते में ही आश्रम बनाना था, कोई और जगह नहीं मिली ?

             जैसे-तैसे करके वह महात्मा जी के पास पहुँचा और अपने आने का उद्देश्य बताकर रस्ते भर सोचे गए सारे प्रश्नों की बौछार महात्मा जी पर कर दी। महात्मा जी मुस्कराने लगे एवं अन्दर जाकर एक गिलास एवं जग भर पानी ले आये। खाली गिलास को भरने लगे। पूरा भरने लगे। पूरा भरने के बाद भी भरते ही रहे। वह व्यक्ति आश्चर्यचकित हो महात्मा जी को देखने लगा और बोला - महाराज, यह गिलास तो भर चूका है, फिर भी आप इसे भरते ही जा रहे ही। महत्मा जी ने कहा - जिस प्रकार भरे हुए गिलास में और पानी नहीं भरा जा सकता है, ठीक उसी प्रकार पहले से ही व्यर्थ बातों से भरें मन में ज्ञान की बाते कैसे भर सकती है ? ज्ञान समझने के लिए बुद्धि रूपी पात्र हमेशा खाली, शान्त एवं निर्जन होना चाहिए। वह व्यक्ति महात्मा जी का ईशारा समझ गया और उसने अपने दृष्टिकोण और आदत को बदलने का ढूढ़ निश्चय कर लिया। उसके  मन में महात्मा जी के प्रति सम्मान का भाव जग गया।

 सीख - बहुत बार हम जिस उपदेश को लेकर जाते है उसे भूलकर दूसरी बातों की चर्चा में चले जाते है, जिस से समय और व्यक्ति का मन ख़राब हो जाता है। इस लिए अपने लक्ष को हमेश साथ रखो और उसकी ही बातें करो तो सफल हो जाएंगे। और समय भी कम लगेगा। 

Friday, June 13, 2014

Hindi Motivational stories.... गलत प्रयोग से दुःख

गलत प्रयोग से दुःख 

   दोस्तों हम सभी जानते है की किसी भी चीज का प्रयोग गलत तरीके से करेंगे या विधि पूर्वक नहीं करेंगे तो दुःख ही होगा। इस पर बहुत उदहारण दिये जा सकते है। लेकिन मैं आपको सिर्फ एक घटना सुनना चाहूँगा  जिस से हम को समझ मिलेगा।

   एक गाँव में पानी की कमी रहती थी। एक परोपकारी सेठ ने पर्याप्त धन खर्च करके कुआँ बनवा दिया। लोगों का कष्ट दूर हो गया। गाँव में हँसी-ख़ुशी छा गई। एक दिन एक शरारती लड़का कुँए की दीवार पर चढ़ कर शरारते करने लगा और ऐसा करते करते वह उस में गिर कर मर गया। और लडके का पिता इस दुःख में अपना विवेक खो बैठा और सेठ को गाली देने लगा कि तूने कुआँ बनवाया, इसलिए ही मेरा लड़का अकाल-मृत्यु को प्राप्त हुआ। अब देखिये सेठ ने तो लोगो के सुख के लिए कुआँ बनवाया था। लेकिन बच्चे ने कुँए की दीवार को ही खेल का मैदान समझ लिया। अच्छी चीज का भी गलत प्रयोग करेंगे तो दुःख तो मिलेंगा ही।

सीख - हर बात की समझ हो और परिवार के लोग भी इस की जागरूकता रखे कही हम या हमारे बच्चे जाने अनजाने में कोई चीज का गलत तो प्रयोग नहीं कर है। हर चीज सही प्रयोग करे और सुखी रहे। 

Hindi Motivational Stories..... डर और दुविधा

डर और दुविधा


        एक सन्त सम्राट का अतिथि बना, और जहाँ सन्त बैठा था, उसके कुछ दुरी पर लेकिन टिक सामने तीन पिंजरे रखे थे। जिस में एक पिंजरे में एक चूहा था, उसके सामने सुखा मेवा पड़ा था। दूसरे में बिल्ली थी, उसके सामने मलाई भरा कटोरा था। तीसरे में बाज पक्षी था, उसके सामने ताजा मांस था।

   अब हुआ ऐसा कि तीनों भूखे थे पर सामने रखे पदार्थों को खा नहीं रहे थे। सम्राट को ये बात का पता लगा तो वे कारण जानना चाहा। सम्राट ने सन्त से पूछा आखिर ये तीनो खाना क्यों नहीं खा रहे है महाराज ? तब संत ने कहा - राजन् ! चूहा, बिल्ली से भयभीत है, बिल्ली, बाज पक्षी से भयभीत है। बाज पक्षी को किसी का भय नहीं पर उसे प्रलोभन है कि पहले बिल्ली को खाऊँ या चूहे को। इस दुविधा में उसे अपने पिंजरे में रखा मांस दिखाई नहीं दे रहा है। यदि लम्बे समय तक इनकी यही स्थिति रही तो अन्तत: ये तीनो प्राणी तड़प-तड़प कर मर जायेंगे।


सीख - ये कहानी आज की मनुष्य की दशा और मानसिकता बता रहा है। आज की मनुष्य की स्थिति ऐसी ही हो गयी है। डर और दुविधा ही दुःख का कारण है। इस लिए डारो नहीं आपके पास जो कुछ है उसको उपयोग करे और सुखी रहो। 

Hindi Motivational Stories....... करत करत अभ्यास से सफलता मिलती है

करत करत अभ्यास से सफलता मिलती है 

     एक राजा का राजकुमार जब वयस्क हुआ तो राजा उस से कहा कि तुम गद्दीनशीन होने से पहले अपने राज्य के प्रसिद्ध तलवारबाज से प्रशिक्षण लेकर आओ। लेकिन ध्यान रखना कि उस पहुँचे हुए गुरु के किसी कार्य में शंका नहीं उठाना। राजकुमार आश्रम में पहुँचे। गुरु जी ने उसे अपने अन्य शिष्यों के साथ आश्रम में लकड़ी काटना, सफाई करना, भोजन व्यवस्था करना आदि में लगा दिया। राजकुमार के मन में शंका उठी कि यहाँ न तो कोई तलवार दिख रही है, न कोई प्रशिक्षण परन्तु पिता की आज्ञानुसार उसने शंका को दबा दिया। इस तरह छ : मास गुजर गए।

    एक दिन गुरु जी लकड़ी लेकर राजकुमार के पास आए और कहा कि आज से मैं तुम्हें तलवार बाजी शिखाउँगा पर मेरी एक शर्त है कि मैं दिन में किसी भी समय आकर आप पर इस लकड़ी से प्रहार करूँगा। यदि आप "सावधान" शब्द का उच्चारण कर दोगे तो नहीं मारूँगा। इस अभ्यास में राजकुमार ने कई बार गुरु से मार खाई क्यों कि वह कभी बातों में और कभी काम में मशगूल होता था। पर धीरे-धीरे वह इतना सजग हो गया कि गुरु जी के मारने से पहले ही "सावधान" शब्द बोलने लगा। इसके बाद गुरु जी ने कहा कि जब तुम सो रहे होंगे तब भी मैं लकड़ी मारने आऊँगा। कुछ दिन तक सोए-सोए मार खाने के बाद राजकुमार नींद में भी इतना सजग रहने लगा कि गुरु जी के मारने से पहले ही "सावधान" शब्द बोलने लगा। ऐसा करते-करते वह इतना कुशल और सतर्क हो गया कि किसी भी समय, कोई भी, किसी भी दिशा से वार करे तो वह आसानी से सामना कर सकता था। वह अवस्था आने पर गुरु जी ने उसके हाथ में तलवार देकर प्रशिक्षण शुरू किया और राजकुमार तलवारबाजी में बहुत पारंगत हो गया।

    सीख - इस कहानी में गुरु स्वयं परीक्षा बन कर बार-बार अपने शिष्य के सामने आता है और शिष्य शुरू में उस परीक्षा में असफल होता क्यों कि जागरूक रहने का संस्कार ढूढ़ हुआ नहीं है परन्तु धीरे-धीरे अभ्यास करते-करते यह संस्कार इतना पक्का हो जाता है कि परीक्षा बनने वाला गुरु ही उसकी प्रशंसा करने लगता है। इसी तरह चाहे कोई भी मार्ग हो सांसारिक या आध्यात्मिक मार्ग में चलने वाले पर भी माया कभी उनकी जागृत अवस्था में और कभी स्वप्न अवस्था में वार करती है परन्तु जब एक योगी माया के सभी रूपों को परख लेता है कि वह कब,कैसे, कितनी शक्ति से, कहाँ आ सकती है तो अपने को सुरक्षित कर लेता है। लेकिन यह होता है सतत् अभ्यास और गहन धारणा के बल से। इस लिए अपने जीवन में धारणा और अभ्यास को बढ़ाओ। 

Thursday, June 12, 2014

Hindi Motivational Stories..... नर्क का विज्ञापन

नर्क का विज्ञापन 

   यह तो हम सब जानते है की मरने के बाद धर्मराज के सामने पेशी होती है। व लोगो के नर्क व स्वर्ग में जाने का फैसला होता है। एक बार ऐसा हुआ कि धर्मराज ने रिश्वत लेनी शुरू कर दी, उसके इस कार्य से हाहाकार मच गया। मृत्युलोक के वासियों ने शिष्टमण्डल भगवान के पास भेजा, उस पर भगवान ने कहा कि यदि मैंने धर्मराज की जगह किसी और को रख लिया तो वह भी जरूर रिश्वत लेगा। तो पृथ्वी निवासियों ने सुझाव दिया कि आप वोट डालने की तरीका अपना ले। एक दिन में जितने लोग यहाँ धर्मराज पूरी में आयेंगे वे सब एक-दूसरे के लिए वोट डालेंगे कि कौन नर्क में जायेगा और कौन स्वर्ग में, आखिर इस प्रणाली को अपना लिया गया।

  इसी बीच एक नेता जी मर कर धर्मराज के पास पहुँचे। वे सादा अपनी राजनीती में मस्त रहते थे। उन्हें नर्क और स्वर्ग के बारे में कुछ पता नहीं था। उन्होंने वोट डलवाने से पहले कहा मुझे नर्क और स्वर्ग दिखाया जाये, जो स्थान मुझे पसन्द आयेगा मैं वहाँ जाने के लिए अपना चुनाव स्वीकार करूँगा। चुनाव अधिकारी सहमत हो गया, उसने एक विमान मंगवाया और नेता जी को स्वर्ग की ओर ले गया। स्वर्ग का दरवाजा खोलकर नेता जी ने अन्दर झाँका तो देखा कि 15 -20 महात्मा लोग हाथ में माला लिए भगवान का नाम ले रहे है। मौसम बड़ा सुहावना है शांति का वातावरण बना हुआ है। कोई एक - दूसरे से बातचीत नहीं कर रहा है। नेताजी को यह अच्छा नहीं लगा, उन्होंने मुँह बनाकर अधिकारी को नर्क दिखाने को कहा।

  जब नेता जी ने नर्क का दरवाजा खोला तो देखा जगह-जगह लोग शराब पी रहे है, मौज उड़ा रहे है। सब लोग मस्त है और खूब रौनक लगी हुई है। नेता जी को नर्क पसन्द आया और वापस आकर वे अपने प्रचार में लग गये और कहने लगे कि मुझे नर्क में जाने के लिए वोट दीजिये। फिर क्या था नेता जी को नर्क के लिए वोट डाले और नेता जी को नर्क भेज दिया गया।

  वहाँ जाकर उन्होंने शरब पीया, खूब नाचें और जब वे थक गए तो उन्होंने नर्क के इन्क्वायरी ऑफिस में आराम करने की जगह पूछी तो नेताजी को सीधा चलने को कहा गया और उनकी आँखों पर पट्टी बाँध दी गई। सीधा चलते हुए, नेताजी बड़े जोर से एक गहरी खाई में गिर पड़े। गिरते ही उनकी बुरी तरह पिटाई होने लगी। नेताजी ने कहा यह कौन सी जगह है जो मुझे पीट रहे हो ? जवाब मिला कि यह नर्क है। नेता ने कहा यह नर्क कैसे हो सकता है। नर्क से तो मैं आ ही रहा हूँ। वहाँ तो बहुत खुशियाँ तथा खाने-पीने की चीज़ है। तो पीटते-पीटते एक बोला, वह तो हमारा नर्क का विज्ञापन डिपार्टमेंट है। यदि हम ऐसी विज्ञापन न करे तो हमारे नर्क में आयेगा ही कौन ? वास्तविक नर्क तो यह है।

सीख - स्वर्ग और नर्क की जानकारी हम सब को रखनी है। अल्प काल के सुख की लालसा में हम स्वर्ग के सच्चे सुख से कही वंचित न हो जाये। 

Hindi Motivational Stories.....मूल्यहीन वस्तु

मूल्यहीन वस्तु

      बहुत दिन पहले एक गुरु के पास दो शिष्य पढ़ते थे। एक का नाम था श्याम दूसरे का राम। दो - तीन वर्ष की पढ़ाई के बाद गुरु ने उन्हें दो मास की छुट्टी दी। तब गुरु ने दोनों की बुद्धिमत्ता देखने के लिए कहा - बच्चों, ऐसी चीज़ को ढूंढ कर आओ जिसकी दुनिया में पाई की भी कीमत न हो। दोनों ने बात को मान लिया और वहाँ से चले। श्याम ने सोचा अभी दो महीने है फिर कभी सोच लेंगे। वह मित्र-सम्बन्धियों से मिला, बाते करने में और घर के कारोबार में जुट गया। राम यात्रा करने के विचार से काशी की ओर चल पड़ा। बार - बार गुरु का प्रश्न उसे याद आने लगा। बेचारे राम ने बहुत सोचा, ढूंढा। अनेक स्थानों पर गया, अनेक तरह के लोगों से उसकी मुलाकात हुई, पर उसे ऐसी कोई चीज दिखाई न दी कि जिसका दाम पाई का भी न हो। दिन बीतते गए और ढूंढ़ते-ढूंढ़ते थक गया। दो मास पूरा होने में केवल तीन-चार दिन ही बाकी रह गये तब राम गुरु के पास लौटने लगा। राम प्रश्न का उत्तर न पाने से उदास था। रास्ते में ही श्याम का गाँव था तो सोचा शायद उसे उत्तर मिला होगा और वह उसका घर ढूंढने लगा। एक घर पर उसे थोड़ी भीड़ दिखाई दी और शोर भी सुनाई दे रहा था। राम ने वहाँ चलकर देखा तो वहाँ पर एक आदमी का देहान्त हुआ था।

   घर के लोग रोने-पीटने लगे थे और गाँव के लोग उसे सजा रहे थे। कुछ देर में ही पता चला वह तो श्याम का पिता ही था। और जब शव को उठाते समय उसके सगे थोड़ी देर और रोकना चाहते थे लेकिन गाँव वालों ने जबरदस्ती शव को कंधे पर उठाये शमशान की ओर चल पड़े।

      ये सब देखकर राम को श्याम की कुछ बाते याद आये , एक बार श्याम ने कहा था - मेरे पिताजी बहुत दयालु है, उन्हें गाँव में सभी लोग प्यार करते है, सम्मान देते है। राम सोचने लगा जिसे कल तक प्यार से देखते थे वही आज उसे क्षण भर रखना नहीं चाहते। जिससे कल तक कुछ चाहते थे उससे आज कोई भी नहीं। कल तक जो कीमत था आज कुछ भी नहीं। तब उसे निश्चय हुआ कि दुनिया में मानव के निर्जीव शरीर की पाई की कीमत नहीं है। कोई उसे रखना भी नहीं चाहता।

   दूसरे दिन दोनों गुरु के पास पहुंचे। बेचारा श्याम तो गुरु का प्रश्न ही भूल चूका था। कहने लगा - मेरे पिता का देहान्त हुआ इसलिए मैं वह चीज़ ढूंढ न सका। राम ने जवाब दिया - गुरुवर, दुनिया में बिना दाम की चीज तो मानव का निर्जीव शरीर है। उसे तो बिना दाम के भी कोई रख नहीं सकता। उसके जवाब से गुरु ने खुश होकर कहा - शाबास बेटा !

सीख - मानव का यह शरीर विनाशी है। आत्मा अविनाशी है। जब तक आत्मा शरीर में है तब तक इस शरीर की कीमत है। आत्मा ही इस शरीर से सब कर्म करती है  न की शरीर। इस लिए कीमत आत्मा की है शरीर की नहीं। इस सत्य को जान कर मान कर कर्म करने से सुख शान्ति और प्रेम की अनुभूति होती है।

Wednesday, June 11, 2014

Hindi Motivational Stories.... सहनशीलता दीर्घायु बनती है

सहनशीलता दीर्घायु बनती है 

    एक सन्त बहुत बूढ़े हो गये। देखा कि अन्तिम समय समीप आ गया है तो अपने सभी शिष्यों को अपने पास बुलाया। प्रत्येक से बोले - तनिक मेरे मुँह के अन्दर तो देखो भाई, कितने दाँत शेष है ? प्रत्येक शिष्य ने मुँह के भीतर देखा। प्रत्येक ने कहा - दाँत तो कई वर्ष पहले समाप्त हो चुके है महाराज, एक भी दाँत नहीं है।

 सन्त ने कहा - जिहा तो विधमान है ?
 सब ने कहा - जी हाँ।
 सन्त बोले - यह बात कैसे हुई ? जिहा तो जन्म के समय विधमान थी, दाँत तो उसके बहुत पीछे आये, पीछे आने वालों को पीछे जाना चाहिए था। ये दाँत पहले कैसे चले गये ?

 शिष्यों ने कहा - हम तो इसका कारण समझ नहीं पाये।

 तब सन्त ने अति गम्भीर तथा शान्त स्वर में कहा - यही बतलाने के लिए मैंने तुम्हें बुलाया है। देखो, यह जिहा अब तक विधमान है तो इसलिए कि इस में कठोरता नहीं और ये दाँत पीछे आकर पहले समाप्त हो गये। एक तो इसलिए कि ये बहुत कठोर थे। इन्हें अपनी कठोरता पर अभिमान था। यह कठोरता ही इनकी समाप्ति का कारण बना। इसलिये मेरे बच्चो, यदि देर तक जीना चाहते हो तो नम्र बनो, कठोर न बनो।

सीख - जीवन में कठोर स्वाभाव वाले व्यक्ति को कोई पसन्द नहीं करता। जो नम्र और मीठा बोलता है वो सबको अच्छा लगता है लोग उससे दोस्ती करना पसन्द करते है।   

Sunday, June 8, 2014

Hindi Motivational Stories..... श्रेष्ठ विचार ही विजय बनाते है

श्रेष्ठ विचार ही विजय बनाते है 

    भारत के एक नगर में एक बुद्धिमान राजा राज्य करता था। वह कोई भी कार्य करता, उसको भली-भाँति सोच-समझ कर उस कर्म का परिणाम को देख कर ही करता। उसकी निर्णय शक्ति परख शक्ति बहुत प्रबल थी। राज्य के बहुत से लोग उसके पास अपनी घरेलु समस्याएं लेकर आते और समाधान होकर जाते थे। इस प्रकार पुरे नगर में वह प्रसिद्ध हो गया था।

 समय बदलता गया दिन महीने साल गुजरते गए और राजा बहुत बूढ़ा हो गया। परन्तु उसकी बुद्धि क्षीण नहीं हुई। राजा के तीन पुत्र थे। तीनों में रात-दिन का अन्तर था। बूढ़े राजा के सामने एक प्रश्न खड़ा था। वह सोचता था की मरने के पहले ही इन सब को अपना-अपना भार सौप दूँ। परन्तु किसको उत्तराधिकारी बनाया जाये। वह तीनों में से किसी को नाराज भी नहीं करना चाहता था और बुद्धिहीन बेटे को राज्य-अधिकारी भी नहीं बनाना चाहता था।

  विचार करने पर एक युक्ति सूझी। उसने तीनो बेटों को पास बुलाया और कहा - देखो, मैं बूढ़ा हो गया हूँ। इस दुनिया में चन्द ही रोज का मेहमान हूँ। इस संसार से जाने से पहले मैं चाहता हूँ की आप तीनों में से एक को राज्याधिकारी बना दिया जाये। मैं बुद्धिमता, समझ और सूझ-बुझ के हिसाब से ही यह निर्णय करना चाहता हूँ। और राजा ने तीनो को सौ-सौ रुपये दिए और कहा कि - घर के पिछले भाग में तीन बड़े-बड़े कमरे है खाली पड़े है, आप तीनों को उन कमरों को इन रुपयों से लाये गए सामान से भरना है। जिसका ढंग सब से अच्छा होगा, उसी को राज्याधिकारी नियुक्त किया जायेगा। एक सप्ताह का समय है आप लोगो के पास सोच-विचार समझ से कार्य करो। तीनो पुत्रों ने हामी भरी और रुपये लेकर अपने-अपने कमरे में चले गए।

   समय पूरा होते ही राजा अपने बेटों को लेकर कमरे देखने गया तो सब से पहले बड़े बेटा का कमरा देखा और उसने कमरा तो भर दिया था परन्तु सारी गला-सड़ा सामान था जो बदबू दे रहा था। और फिर दूसरे बेटा का कमरा देखा तो पहले वाले से अच्छा था गाय भैंस के चारा से पूरा कमरा भर रखा था। उस के बाद तीसरे बेटे का कमरा देखा कमरा पूरा खाली था परन्तु कमरा बहुत ही साफ़-सुन्दर था और अन्दर चारो तरफ चार दीपक जला रखे थे और अगरबत्ती की खुशबु से पूरा कमरा महाक रहा था।

 राजा ने दोनों बेटों को कहा अब आप ही बताये की राज्याधिकारी किसे बनना चाहिये तो दोनों भाईयो ने छोटे भाई की तरह इशारा किया और राजा ने उसे ही राज्याधिकारी बना दिया।

 अपनी बुद्धिमता के कारण ही छोटे भाई ने विजय प्राप्त की है। ये कहते हुए राजा ने घर की चाबियाँ छोटे बेटे के हाथ में सौप दी और कहा - बस, अब तुम संभालो। मैं अपना अन्तिम समय प्रभु-भजन में व्यतीत करूँगा।

सीख - अच्छे विचार ही मनुष्य को श्रेष्ठ और विजय बनाते है। इस लिए शुभ संकल्प करते चलो और विजय की रह पर चलते रहो। 

Saturday, June 7, 2014

Hindi Motivational stories...... प्राण जाय पर वचन न जाय

प्राण जाय पर वचन न जाय 

     अकबर बादशाह की सेना राजपूतोँ ने चित्तौड़गढ़ पर अधिकार कर लिया था। महाराणा प्रताप अरावली पर्वत के वनों में चले गये थे। महाराणा के साथ राजपूत सरदार भी वन एवं पर्वतों में जाकर छिप गये थे। महाराणा और उनके सरदार अवसर मिलते ही मुग़ल-सैनिकों पर टूट पड़ते और मार-काट मचाकर फिर बनो में छिप जाते थे।

    महाराणा प्रताप के सरदारों में से एक सरदार का नाम रघुपति सिंह था। वह बहुत ही वीर था। अकेले ही वह जब चाहे शत्रु की सेना पर धावा बोल देता था और जब तक मुग़ल-सैनिक सावधान हो, तब तक सैकड़ो को मारकर वन-पर्वतो में भाग जाता था। मुग़ल सेना रघुपति सिंह के नाम से घबरा उठी थी। मुगलों के सेनापति ने रघुपति सिंह को पकड़ने वाले को बहुत बड़ा इनाम देने की घोषणा कर दी। रघुपति सिंह वनो और पर्वतों में घुमा करता था। एक दिन  समाचार मिला कि उसका इकलौता लड़का बहुत बीमार है और घड़ी दो घडी में मरने वाला है। रघुपति सिंह का हृदय अपने पुत्र को देखने के लिये व्याकुल हो उठा। वह वन में से घोड़े पर चढ़कर निकला और अपने घर की ओर चल पड़ा। पुरे चितौड़ को बादशाह के सैनिकों ने घेर रखा था। हर दरवाजे पर बहुत कड़ा पहरा था। पहले दरवाजे पर पहुँचते ही पहरेदार ने कड़क कर पूछा कौन हो तुम ?

   रघुपति सिंह झूठ नहीं बोलना चाहता था, उसने अपना नाम बता दिया। इस पर पहरेदार बोला - तुम्हें पकड़ने लिये सेनापति ने बहुत बड़ा इनाम घोषित किया है, में तुम्हें बंदी बनाऊंगा।

   रघुपति सिंह बोला - भाई ! मेरा लड़का बीमार है। वह मरने ही वाला है। मैं उसे देखने आया हूँ। तुम मुझे अपने लडके का मुँह देख लेने दो। मैं थोड़ी देर में ही लौट कर तुम्हारे पास आ जाऊँगा।

    पहरेदार सिपाही बोला - यदि तुम मेरे पास न आये तो ? रघुपति सिंह - मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि अवश्य लौट आऊंगा। पहरेदार ने रघुपति सिंह को नगर में जाने दिया। वे अपने घर गये। अपनी स्त्री और पुत्र से मिले और उन्हें आश्वासन देकर फिर पहरेदार के पास लौट आये। पहरेदार उन्हें सेनापति के पास ले गया। और सारी बात बताई। सेनापति ने सब बातें सुनकर पूछा - रघुपति सिंह क्या तुम नहीं जानते थे कि पकड़ जाने पर हम तुम्हें फाँसी देंगे ? तुम पहरेदार के पास दोबारा क्यों लौट आये ? रघुपति सिंह ने कहा - मैं मरने से नहीं डरता। राजपूत वचन देकर उससे टलते नहीं और किसी के साथ विश्वासघात भी नहीं करते।

    सेनापति रघुपति सिंह की सच्चाई देखकर आश्चर्य  पड़ गया। उसने पहरेदार को आज्ञा दी - रघुपति सिंह को छोड़ दो। ऐसे सच्चे वीर को मार देना मेरा ह्रदय स्वीकार नहीं करता।

सीख - पूर्व में इंसान अपने वादे पर अटल रहता था। लेकिन आज बाहर की बात छोड़ो अपने घर में अपनों से किया वादा भी पूरा नहीं करते। इस लिए अपने आप को ऐसा तैयार करो जो बोलो सो करो।   

Hindi Motivational stories....बुद्धि ही धनवान बनाती है

बुद्धि ही धनवान बनाती है

    एक रेल में बचपण के तीन साथी यात्रा कर रहे थे। एक निर्धन था, एक मध्यम वर्ग का और एक धनी परिवार से। साथ में धनी साथी के पिता भी थे। बातें चल निकली। निर्धन मित्र बोला की आप लोग भाग्यशाली है जो सुख से रह रहे है, मैं तो अभागा ही रह गया। और इतने में ट्रैन रुकी। धनी साथी के पिता ने गन्ने ख़रीदे और तीनों साथियों को बराबर बाट दिया। पहला मित्र गन्ने को छिला और चूसकर वही कचरे को सीट के निचे फेक दिया। दूसरा मित्र  मध्यम  परिवार से था। उसने भी गन्ने को छिला और चूसकर कचरे को एक अख़बार में लपेट कर अगले स्टेशन पर कचरे के डिब्बे में डाल दिया। पर तीसरे मित्र ने गन्ने को चाकू से छिला। छिलकों को एक तरफ रख दिया। गन्ना चूसकर कचरा पात्र में डाल दि। सावधानी पूर्वक छिले गये छिलकों को दो रंगों में रंग कर उसने उनका एक पंखा बना दिया और उसे अगले स्टेशन पर बेच दिया।

    यह सारा माजरा धनी साथी के पिता देख रहे थे। उन्होंने कहा कि बेटे ! गन्ने तुम तीनों चूसे। निर्धन युवक को सम्बोधित करते हुए वे बोले - बेटे तूने गन्ना चूसा पर दूसरों के लिये परेशानी पैदा कर दी। बचपन में तुम तीनों साथ पढ़े, तू नदी किनारे खेलता ही रहा, पढ़ा ही नहीं। दूसरे ने कुछ पढ़ा तो उसने कुछ कमाया भी। उसने गन्ना चूसा पर दुसरो को परेशानी नहीं दी। मेरे बेटे ने गन्ना भी चूसा, मगर किसी को परेशान किये बिना कमाया भी।

सीख  - ये कहानी हमें अपना बुद्धि का सदुपयोग करना सीखता है। इस लिए अपने बुद्धि  सदुपयोग कर सुख दो और सुख लो। 

Friday, June 6, 2014

Hindi Motivational Stories.... कला का सम्मान करो

कला का सम्मान करो


            प्रदर्शनी में प्रदर्शित भगवान की उस भव्य मूर्ति को देखने वालों में सम्राट समुद्र गुप्त, उनके महामात्य व अन्य राज्य कर्मचारी भी शामिल थे और सभी एक स्वर में मूर्तिकार के कला-कौशल की हृदय से सहराना कर  रहे थे। जब सम्राट ने कलाकार का नाम पूछा तो प्रदर्शनी में सन्नाटा छा गया। क्यों कि कलाकार का नाम किसी को पता ही न था। आश्चर्य की बात थी कि इतना अनोखा कलाकार स्वयं को छिपाये हुए क्यों है ? काफी खोज-बीन के पश्चात् राज्य कर्मचारी एक काले-कलूटे युवक को पकड़ कर लाये  सम्राट से बोले-महाराज, गजब हो गया ! इस शूद्र ने भगवान की पवित्र मूर्ति बनाई। दर्शकों में कुछ ऊँची जाति के लोग भी खड़े थे। वे चिल्लाये-पापम् -शान्तम् ! गजब !! महान गजब !!! इस शूद्र को भगवान की मूर्ति गढ़ने  अधिकार किसने दिया। इसके हाथ काट दिये जाने चाहिए। उनकी आवेशपूर्ण बातें सुन कर मूर्तिकार डर के मारे थर-थर काँपने लगा और सम्राट के चरणों में गिर कर क्षमा याचना करने लगा।

            सम्राट समुद्र गुप्त ने बड़े प्यार से उसे उठाया और उच्च वर्ण के लोगों की ओर आँखे तरेर कर देखते हुए कहा -छी : ! कैसी अन्याय पूर्ण बातें कर रहे है आपलोग ! भगवान की मूर्ति बनाने वाले इन सुन्दर हाथों के प्रति आप सबको ऐसा निर्णय ? आप ऊँचे और कुलीन लोगो से मुझे ऐसी अपेक्षा न थी। तोड़ दो इस ऊँची-नीच की दीवार को, तभी सभी आपस में प्यार से हिल-मिल कर रह पाएंगे, समाज सुख-शांति व समृद्धि आयेगी और सही अर्थो में हम वसुधैव-कुटुम्बकमह की भावना को धरा पर साकार कर पायेंगे। यों कहकर सम्राट ने उस काले शूद्र युवक के हाथ अपने हाथों में लेकर चुम लिए और उसे सबके बीच एक हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ ईनाम में देते हुए अपना राजमूर्तिकार घोषित कर दिया।

सीख - ये कहानी व्यक्ति की कला कौशल की सरहाना करते हुए ऊँच-नीच का भेद भाव मिटाकर सभी लोगो को हिल मिलकर रहने की प्रेरणा देती है। इस लिए हमें व्यक्ति की जाति धर्म को न देखकर उसकी गुण और कला को देख सम्मान करना चाहिए।
   

Thursday, June 5, 2014

Hindi Motivational Stories.... परिश्रम का चमत्कार

परिश्रम का चमत्कार 

                 चंद्रपुर गाँव में एक किसान रहता था। उसके दो बेटे थे। मरते समय उसने दोनों बेटों को एक जैसा संपत्ति बांट दी और सीख देते हुए कहा कि तुम दोनों हमेशा अच्छे से अच्छा खाना खाने की कोशिश करना। इसी से तुम हमेशा मेरी तरह धनी व सुखी रह सकोगे। किसान के मरने के बाद छोटे भाई बड़े भाई से कहा - भैया, चलो किसी बड़े शहर में चलकर रहते है। वहीँ हमें अच्छे से अच्छा खाना मिल सकता है। बड़े भाई ने कहा - अगर तुम चाहो तो शहर जा सकते हो, मैं यही गाँव में रहूँगा और जो अच्छे से अच्छा खाना यहाँ मिलेगा, वही खाऊँगा।

                छोटे ने अपनी जमीन-जायदाद बेचीं और सारा पैसा लेकर शहर में उसने बड़ा सा घर लिया। अच्छे से अच्छे रसोईये व् नौकर रखे, उनसे अच्छे से अच्छा खाना बनवाकर खाने लगा और आराम से रहने लगा। सोचने  लगा कि अब वह जल्दी ही अपने पिता की तरह धनी और सुखी हो जायेगा। लेकिन हुआ उसका उल्टा। जल्दी ही उसका सारा पैसा ख़त्म हो  गया और फिर सारा सामान व् मकान भी बिक गया। अंतः उसे गाँव में लौटना पड़ा।

               गाँव आकर उसने देखा कि उसका बड़ा भाई बहुत धनी हो गया है। उसने कहा - भैया, मुझे वह खाना दिखाओ, जिसे खाकर तुम इतने धनवान बने हो। मैं तो शहर में अच्छे से अच्छा खाना खाया फिर भी कंगाल हो गया। बड़े भाई ने कहा खाना दिखाना क्या ? में तुम्हें खिलाऊँगा भी। लेकिन पहले खेत पर चलें। और बड़े भाई खेत में काम करने लगा और छोटे को भी काम पर लगा दिया इस तरह दोनों खेत में बहुत देर तक परिश्र्म करते रहे और फिर उन्हें बहुत जोर की भूख लगी। छोटे ने कहा मेरे हाथ पैर जवाब दे रहे है। अब तो अपना वह अच्छे से अच्छा खाना खिलाईये। दोनों हाथ पैर धोने के बाद पेड़ की छाया में बैठ गए। फिर बड़े भाई ने पोटली खोली और उस में से रोटी निकालकर एक छोटे भाई को दिया और एक खुद ने ली। छोटे का तो भूख के मारे बुरा हाल था। वह फ़ौरन उस मोटी- सी सुखी रोटी पर टूट पड़ा। भूख के मारे उसे वह रोटी छप्पन भोग तरह लग रही थी। बड़े ने पूछा, कहो रोटी का स्वाद कैसा है ? बहुत अच्छा, बहुत अच्छा कह कर उसने पूरी रोटी ख़त्म कर दी। इस रोटी से मुझ में जरा-सी-जान आयी। अब चलिये, घर चलकर मुझे अपना अच्छा खाना भी खिलाइये। बड़े भाई ने कहा यही तो वह सब से अच्छा खाना है, क्यों तुम्हे अच्छा नहीं लगा ? छोटे ने कहा -रोटी तो बहुत स्वादिष्ट लगी, लेकिन क्या यही आपका अच्छा खाना है ? आश्चर्य से छोटे ने पूछा ! मेरे भाई, मेहनत करने के बाद कड़कड़ाकर भूख लगाने पर खाया गया खाना ही दुनिया का  सब से अच्छा खाना होता है। इसी अच्छे खाने से धनी और सुखी रहा जा सकता है। पिताजी के कहने का यही मतलब था। इस तरह बड़े भाई ने छोटे को समझाया। तब छोटे के समझ में आ गया की धनवान बनना है तो परिश्रम करो परिश्रम का ही चमत्कार है।

सीख - बिना मेहनत किये कितना भी अच्छा खाना खाने से धनवान नहीं होंगे। परिश्रम करके खाना खायेंगे तो धनवान जरूर बनेंगे। 

Wednesday, June 4, 2014

Hindi Motivational Stories............. अपकारी पर भी उपकार करें

अपकारी पर भी उपकार करें


      बहुत बार ऐसा ही होता है कि हम अपराधी को अपराध का सजा देना ही अपना फ़र्ज़ समझते है। और कहानी का टाइटल कुछ  कहता है। एक बार की बात है महाराज रणजीतसिंह कहीं जा रहे थे। साथ ही बहुत से अमीर-उमराव व अंग-रक्षक थे। इतने बड़े काफिले के होते हुए भी अचानक एक पत्थर महाराज के सिर पर आकर लगा। उनका सिर फट गया और वे लहू-लुहान हो गये। इस अप्रत्यक्ष घटना से चारों तरफ अफरा-तफरी मच गयी। तुरंत पत्थर मारने वाले को ढूंढने के लिए सैनिक इधर-उधर घोड़े दौड़ाने लगे।

   थोड़ी देर में दो सिपाही एक मरियल से बूढ़े और एक पतले-दुबले लड़के को पकड़कर महाराज के सामने लाये। बूढ़ा भय से थर थर काँप रहा था। बड़ी कठिनाई से वह कह पाया - मैं बे कसूर हुँ महाराज मैं तो अपने बच्चे की भूख मिटाने के लिए कुछ तोड़ना चाहता था। महाराज ने बूढ़े को सांत्वना दी - घबराओ मत बाबा। अपनी बात आराम से कहो।

   महाराज, यदि पत्थर आम की डाली को लग जाता तो मैं आम पा जाता, पर पत्थर आम को न लग कर आपको लग गया, मैं अपने किये की क्षमा चाहता हूँ। बाबा, यदि तुम्हारा पत्थर आम को लगता तो तुम्हे और तुम्हारे बच्चे को आम खाने को मिल जाता न ? हाँ महाराज ! बूढ़े ने काँपते आवाज में कहा। किन्तु अब तो तुम्हारा पत्थर महाराज रणजीतसिंह को लगा है, और वह वृक्ष से गया- गुजरा नहीं है। तुम्हे और तुम्हारे बेटे को स्वादिष्ट भोजन, फल और मिष्ठान खाने को मिलेंगा। बूढ़ा भौचक ! अमीर-उमराव सन्न ! अंगरक्षक हैरान ! किन्तु महाराज के मुख पर मधुर मुस्कान खिल रही थी। महाराज ने आज्ञा दी - इस बूढ़े को साल भर खाने-पीने योग्य अन्न दिया जाये और पाँच हजार रूपया नगद !यह दूसरा आश्चर्य था।

   एक अमीर ने पूछ ही लिया -  यह आप क्या कर रहे हो, महाराज ! अपराधी को सजा की बजाय पुरुस्कार दे रहे हो ? रंजीत सिंह ने शांत भाव कहा - अरे भाई, जब निर्जीव पेड़ पत्थर की मार सह कर भी लोगों को मीठा फल देता है फिर हम तो चैतन्य इन्सान है, जीवमंडल के सर्वच्चा प्राणी है ,हमें चाहे लोग जाने-अनजाने लाख भला-बुरा कहें, चोट पहुंचाये, हमारा मार्ग में बाधा उत्पन्न करें लेकिन हमें सबका कल्याण करना चाहिए, सबको सुख देना चाहिए। मित्र, महान बनना है तो वृक्ष से कुछ सीखो।

सीख - इस कहानी से हमें सीख मिलता है की जब प्राकृति नेचर हम को सदा दे रहा है चाहे हम उसे पत्थर मरे या तोड़े वह सिर्फ देता ही है। हर तरह से देता ही है तो हमें भी दाता बनना है सब को सुख देना है। 

Tuesday, June 3, 2014

Hindi Motivational Stories....अहंकार

अहंकार 

   बहुत पुरानी बात है। दो मित्र पाठशाला में साथ-साथ पढ़े और बड़े हुए, पर प्रालब्ध की बात, एक तो राजा हो गया, दूसरा फ़क़ीर। राजा राजमहल में रहने लगा और फ़क़ीर गाँव-गाँव भटकने लगा। राजा अपने प्रशासन के कारण और फ़क़ीर अपनी त्याग-तपस्या के कारण विख्यात हो गये। एक बार वह फ़क़ीर राजधानी में आया, राजा को पता लगा। वह बड़ा प्रसन्न हुआ कि उसका मित्र आया है। उसने उसके स्वागत की अच्छी व्यवस्था की। महल सजाया। नगर में दीपावली करने का हुक़्म दिया। जब फ़क़ीर अपने राजा मित्र से मिलने चला, तो लोगों ने बहका दिया कि राजा बड़ा अहंकारी है। तुम्हें अपने वैभव दिखाना चाहता है। अपनी अकड़ दिखाना चाहता है। वह तुम्हें दिखाना चाहता है कि देखो, तुम क्या हो ? एक नंगे फ़क़ीर। उस फ़क़ीर ने कहा - देख लेंगे, उसकी अकड़।

   फ़क़ीर जब राजमहल के द्दार पर पहुँचा, तो राजा और उसका समस्त मत्रिमंडल फ़क़ीर के स्वागत के लिए उपस्थित हुआ। राजा ने देखा कि वर्षा के दिन तो नहीं है, फ़क़ीर के घुटनों तक कीचड़ लगी है। राजा क्या कहता, वह फ़क़ीर को लेकर अन्दर गया तो उसके सारे बहुमूल्य गद्दे-गलीचे गंदे हो गये।

  राजा को बुरा लगा, जब एकांत हुआ तब उसने फ़क़ीर से पूछा - मित्र मैं हैरान हूँ। वर्षा का तो समय नहीं रास्ते सूखे पड़े है. पर तुम्हारे पैरो पर इतनी कीचड़ कहाँ से लग गई ? तब फ़क़ीर ने उत्तर दिया - अगर तुम अपने वैभव की अकड़ दिखाना चाहते हो, तो हम भी अपनी फकीरी दिखाना चाहते है। उत्तर सुनकर राजा हँसा बोला - मित्र, आओ गले लग जाये, क्यों कि मैं कहीं पहुँचा, न तुम कहीं पहुँचे। हम दोनों वहीं के वहीं है, जहाँ पहले थे।

सीख - मित्रों इस कहानी में एक में धन की अकड़ थी, तो दूसरे में त्याग की। पर राजा के उद्दार की संभावना तो थी, फ़क़ीर की नहीं। क्यों कि जो अपनी गलती जान लेता है, ह्रदय से मान लेता है, वह सुधर सकता है। 

Monday, June 2, 2014

Hindi Motivational Stories...... स्वालम्बन की श्रेष्ठता

स्वालम्बन की श्रेष्ठता 

   ग्रीस में किलोथिस नामक एक बालक एथेंस के जीनों की पाठशाला में पढ़ता था। किलोथिस बहुत गरीब था। उसके बदन पर पुरे कपडे भी नहीं थे, पर पाठशाला में प्रतिदिन जो फ़ीस देनी पड़ती थी, उसे किलोथिस रोज नियम से देता था। पढ़ने में वह इतना तेज था कि दूसरे सब बच्चे उससे ईर्षा करते थे। कुछ लोगो ने यह संदेह किया की किलोथिस जो दैनिक फ़ीस के पैसे देता है, वो कहीं से चुराकर लाता होगा, क्यों कि उसके पास तो फटे चिथड़े कपड़े के सिवाय और कुछ है नहीं। आखिकार एक दिन ऐसा भी हुआ उसे चोर बता कर पकड़वा दिया। और मामला अदालत में गया। किलोथिस ऐसे समय में बड़ा हिम्मत से काम लिया निर्भयता के साथ जज (हाकिम) से कहा कि मैं बिल्कुल निर्दोष हूँ। मुझ पर चोरी का झूठा दोष लगाया गया है। मैं अपने इस ब्यान के समर्थन में दो गवाह पेश करना चाहता हूँ। गवाह बुलाये गये। पहला गवाह था एक माली। उसने कहा, यह बालक प्रतिदिन मेरे बगीचे में आकर कुए से पानी खींचता है और इसके लिए इसे कुछ पैसे मजदूरी के रूप में दे दिये जाते है। दूसरी गवाही में एक बुढ़िया आयी। उसने कहा, मैं बूढ़ी हूँ। मेरे घर में कोई पीसने वाला नहीं है। यह बालक हर रोज मेरे घर पर आटा पीस जाता है और उसे बदले में अपनी मजदूरी के पैसे ले जाता है।

  इस प्रकार शारीरिक परिश्रम करके किलोथिस कुछ पैसे रोज कमाता है और उसी से अपना निर्वाह करता है और पाठशाला की फ़ीस भी भरता है। किलोथिस की इस नेक कमाई की बात सुनकर जज (हाकिम) बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे इतनी सहायता देनी चाही कि जिससे उसको पढ़ने के लिए मजदूरी नहीं करनी पड़े, परन्तु उसने सहायता स्वीकार नहीं की और कहा, मैं स्वयं परिश्र्म करके ही पढ़ना चाहता हूँ। किसी से दान लेने के स्थान पर स्वालम्बी बनकर आगे बढ़ना ही मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया है।

सीख - बाल्यकाल के जीवन में समाविष्ट ये संस्कार ही व्यक्ति को आगे चलकर महामानव बनाते है तथा ऐसे लोग ही आगे चलकर श्रेष्ठ नागरिक बनते है। 

Sunday, June 1, 2014

Hindi Motivational Stories........ सच्चे दिल से प्रभु समर्पण हो

सच्चे दिल से प्रभु समर्पण हो 

     एक बार एक लकड़हारा अपनी प्यास बुझाने के लिए कुए में झाँका तो वह आश्चर्य नज़रों से कुए में देखता ही रह गया। वह अपनी प्यास भी भूलकर आश्चर्यचकित हो गया, उसने देखा - एक सन्यासी जंजीरों के सहारे कुए में उल्टा लटका हुआ है। उसने लोहे की मज़बूत जंजीरो से अपने पैरोँ को बाँधा हुआ है। श्राप के भय से भयभीत होते भी लकड़हारे  सन्यासी से पूछने का साहस किया। 

 लकड़हारा -  महात्मन ! आप क्या कर रहे है ? 
 संन्यासी   - बेटा, भगवान से मिलने के लिए कठोर तप कर रहा हूँ। मुझ से प्रसन्न होकर एक दिन भगवान अवश्य ही दर्शन देंगे।
लकड़हारा  -  क्या ऐसा करने से भगवान प्रसन्न हो जायेंगे ?
संन्यासी  -  हाँ, जब अपने भक्त  अधिक पीड़ामय देखेंगे तो भगवान से सहन नहीं होगा और वे दौड़े चले                           आयेंगे।
       लकड़हार पानी पीना भूल गया और उसने सोचा की मैं  भी ऐसा करूँगा। उसने घास की रस्सी बनायीं और उस कुआ पर एक लकड़ी रख कर उसमें रस्सी बाँध कर वह लटकने लगा। परन्तु ज्युँ ही वह लटका, रस्सी उसका बोझ झेल न सकी और टूट गयी। उसकी आँखे बंद हो गयी परन्तु अगले ही क्षण अपने आपको भगवान की बाँहो में पाया। अब उसकी ख़ुशी का पारावार नहीं था। उसी क्षण भगवान ने उस सन्यासी को भी दर्शन दिये। 

          संन्यासी ने प्रभु से प्रश्न किया ? मैं इतने दिन से तपस्या कर रहा हूँ।  मुझे अपने बहुत दिन बाद दर्शन दिये और इस लकड़हारे को अभी-अभी आपने अपनी बाहों में थाम लिया। 

               प्रभु मुस्कुराए, बोले - भक्त, तुम पुरे इन्तजाम से कुए में लटके थे। ताकि तुम गिर न सको। परन्तु यह लकड़हारा पूर्णत: मुझ पर समर्पण हो चुंका था। उसने यह सोचा ही नहीं कि मेरा क्या होगा। इस लिए उसकी भक्ति श्रेष्ठ है। तुम में अपनेपन का मान था, वह सर्वस्व न्यौछावर कर चूका था। 

सीख - समर्पण प्रयोजन से नहीं दक से दिल से हो तो समर्पण स्वीकार होता है ईश्वर को इस लिये सच्चा दिल 
 ईश्वर पर बलिहार जाने से ईश्वर का दर्शन होता है।