Saturday, May 31, 2014

Hindi Motivational Stories......................दान दो, धनवान बनो

दान दो, धनवान बनो 


       धनपतराय करोड़पति सेठ थे, पर स्वाभाव से बड़े कंजूस। उनकी पत्नी थी सुमति। वह शीलवान, दयालु, सहनशील तथा दानी स्वाभाव की थी। उसने दाता का गुण अपनी माँ से सीखा था। सेठ जी जब काम-धन्धे पर जाते थे तब सुमति दीन-दुःखी की मदत करती, गरीबों की सहायता करती, बच्चों को पढ़ती, साधु-महात्माओं को खिलाती-पिलाती, दान-दक्षिणा देती। वह भूखे को अपने पेट की रोटी भी दान दे देती थी। सुसंस्कारी थी। कभी-कभार धनपतराय को पता चलता तो वह उसे खूब डाँटता -तुम तो बड़ी खर्चीली हो,मैं दिन-रात मेहनत करता और तुम खर्च करती रहती। सेठ जी को धनवान बनने की लालसा थी। सोने की चारपाई पर लेटा हुआ हूँ, सोने की थाली में खाना खा रहा हूँ - इसके वे दिन-रात स्वप्न देखा करते थे। और यही कारण था कि वे दिन-प्रतिदिन पाई-पाई जुटाकर पूँजी को बढ़ाने में व्यस्त रहते थे।

    एक दिन सेठ जी बाहर गये हुये थे। सुमति अकेली घर में थी। द्द्वार पर एक साधू-महात्मा आये। दिव्य ज्ञान से उनका मस्तक चमक रहा था। पवित्रता की सुगन्ध सर्वत्र फ़ैल रही थी। सुमति ने आदरपूर्वक उन्हें घर में बुलाया और अपने लिए बनाया हुआ भोजन तथा मिठाईयां आदि खिलायी। रुचिकर भोजन खाकर साधु संतुष्ट हुए। वह उन्हें दक्षिणा देने जा रही थी कि उतने में सेठ जी ने घर में प्रवेश किया। सेठ जी आग-बबूला हो उठे। उन्होंने पत्नी को डाँटना शुरू किया - पता नहीं तुम्हारी बुद्धि कैसी भ्रष्ट हुई है, मैं मेहनत करता हूँ और तुम इन लफंगे ढोंगी साधुओं को खिलाकर लुटाती रहती हो। इन दर-दर भटकने वालों का क्या भरोसा ? तुम कहीं मेरा घर न लूटा दो। बहुत भली-बुरी सुनाकर सेठजी ने साधु को निकालना चाहा। पर साधु जी शांत मुद्रा में खड़े थे। सारी भावनाओं को भली- भाँति समझ चुके थे।

     साधु जी ने कहा -सेठ जी ! क्या तुम्हेँ धनवान बनने की इच्छा है ? धन, सोना और रत्नों को पाने की इच्छा है ? सेठ जी बोले - हाँ, में सोने की चारपाई पर चैन की नींद सोना चाहता हूँ। साधु ने कहा - मैं भोजन कर प्रसन्न हुआ। तुम्हें जो चाहे दे सकता हूँ। धनपतराय जी का मन लालच से भर उठा। उन्होंने कहा - उपाय बताओ महाराज। साधु ने अपनी झोली से एक छोटा बीज निकाला और सेठ जी को देते हुए कहा - ये बीज तुम्हें सच्चे रत्न देगा (सेठ जी बड़े खुश हो रहे थे ), इस बीज को घर के पीछे बगीचे में लगाना। नित्य नियम से पानी देना। हीरे - रत्नों के फल लगेँगे। लेकिन यह याद रहे कि यह बीज तब फलीभूत होगा जब तुम सबके सहयोगी बन मदत करेंगे, सब की सेवा करोगे। सब को सम दृष्टि से देख उनसे व्यवहार करोगे। दान करोगे। जितना सत्कर्म करोगे, प्रभु चिन्तन करेंगे उतने ही जल्दी फल लगेंगे। इस बीज को प्रतिदिन शुभ-भावना रूपी जल से सीचना तो सहज फल मिलेंगे, अन्यथा नहीं।

    सेठ जी बीज बोया।और सच, एक दिन पौधा भी निकल आया। उन्हें आश्चर्य हुआ तथा विश्वास भी। अब वे साधु की हर एक बात का ध्यान रखने लगे। उन्होंने रोज सत्कर्म करना, सबके प्रति शुभ भावना रखना शुरू किया। सब की मदद कर उन्हें सुख देने लगे। असहाय की सहायता कर उनकी दुआओं लेने लगे ,हरेक के प्रति आत्मीयता उनके मन में जगने लगी। सब के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करने लगे।  उन्हें लगता - अब तो जल्दी ही मैं धनवान हो जाऊँगा। उन में परिवर्तन  देख सब खुश हो उन्हें दुआये देते। दुआओ को पाकर  सेठ जी शांति का अनुभव करते। अब धीरे- धीरे सेठ जी की धन इकट्ठा करने की लालसा क्षीण होती गयी और दान करने की इच्छा दिनोंदिन बढ़ने लगी। अब वे तृप्त थे और समझ चुके थे कि सच्चे रत्न से धनवान मैं बन गया हूँ। ये तो साधु की युक्ति थी मुझे शिक्षा देने की। धनपतराय, शान्ति पाकर अपने को अब धन्य-धन्य महसूस कर रहे थे।

सीख - सच्चा सुख देने में है लेने में नहीं जब इस की महसूसता आती है तो मन शांति से भर जाता है। और जो व्यक्ति शान्ति से भरपूर है वही सच्चा धनवान है। 

Friday, May 30, 2014

Hindi Motivational Stories ......ऐसा भी होता है

ऐसा भी होता है

           एक राजा बहुत दानी था। मरने के बाद जब धर्मराज के समाने गया तो चित्रगुप्त ने बताया कि राजा के खाते में लाखों मछलियाँ मारने का पाप लिखा है। राजा ने कहा मैं तो शाकाहारी था और मैंने कभी मछली को हाथ भी नहीं लगाया। तब चित्रगुप्त ने बताया कि आपके राज्य के एक मछुवारे ने आपके दान के पैसों से मछली पकड़ने वाले जाल की नई जाली खरीदी थी। परिणाम स्वरूप आपके खाते में दान - पुण्य जमा नहीं हुआ बल्कि पाप का खाता ही बढ़ गया। इस तरह से सेवा और जमा खाते  फर्क रह जाता है उसे समझा जा सकता है। मतलब दान हमेशा सुपात्र को दें।

सीख - दान भी सोच समझ करना है। 

Wednesday, May 28, 2014

Hindi Motivational Stories - तुलना से असन्तोष

तुलना से असन्तोष 

       एक बार एक मालिक ने १०० रुपये प्रतिदिन के हिसाब से ४ मजदूरों को काम पर लगाया जो सुबह ८ बजे काम पर आते थे और सायंकाल ५ बजे जाते थे। प्रतिदिन दोपहर एक घण्टे की छुट्टी मिलती थी। ये मजदुर नौकरी पाकर खुश थे और बड़ी सन्तुष्टता के साथ कार्य कर रहे थे। कुछ दिन के बाद मालिक ने ४ और मजदूरों को काम पर लगाया जो दोपहर १२ बजे काम पर आते थे और सायं ५ बजे जाते थे। उन्हें भी प्रतिदिन १०० रुपये ही मिलते थे। सुबह आने वाले मजदूरों ने एक-दो दिन तो यह सब देखा फिर उनमें कानाफूसी शुरु हो गयी कि हम ८ घण्टे काम करके भी १०० ही रुपये प्राप्त करते है और ये मजदुर केवल ५ घण्टा काम करते है परन्तु पाते है पुरे १०० रुपये। ऐसा क्यों ?

        धीरे-धीरे यह कानाफूसी जोर पकड़ती गयी। वे अपना काम करते-करते भी बीच-बीच में उन दूसरे मजदूरों को देखने लगे और काम से उनका ध्यान हटने लगा, असंतोष जीवन में छाने लगी, एकाग्रता भंग हो गयी और उनके कार्य में अनेक प्रकार की त्रुटियाँ निकलने लगी। पहले जिनके कार्य की सर्वत्र प्रशंसा हो रही थी, अब उन्ही के कार्य को असंतोषजनक कहा जाने लगा। इस असन्तोष का कारण है तुलना। जब तक तुलना नहीं कि किसी के साथ, पहले वाले मजदुर धन्य थे परन्तु दूसरे मजदूरों से तुलना करके, अपने पलड़े को हल्का पाकर उनके  श्रम में कमी हो गयी और परिश्रम भी कम नज़र आने लगा।

 सीख -  ऐसा ही आज मानव जीवन में भी हो रहा है। व्यक्ति के पास कोई कमी नहीं है परन्तु दूसरे से तुलना करने पर कई कमियाँ निकल ही आती है! तुलना करने के बजाये यदि दूसरे की भौतिक प्राप्तियों को तूल (महत्व ) ना दिया जाये तो इस समस्या का समाधान हो सकता है।




Hindi Motivational Stories ....... माँ का वात्सल्य


माँ का वात्सल्य 

            एक बार एक व्यापारी दो घोड़ियों को लेकर राजा के दरबार में उपस्थित हुआ और नम्रतापूर्वक राजा से निवेदन करने लगा कि अपके दरबार में एक से एक ज्ञानी है, क्या उन में से कोई भी यह बता सकता है कि इन दोनों घोड़ियों में से माँ कौन है और बेटी कौन है। राजा के लिए यह चुनौती भरा प्रश्न तो था ही, साथ ही दरबार की प्रतिष्ठा का भी सवाल था। सोच विचार कर राजा मन्त्री को इस रहस्य से पर्दा उठाने का भार सौप दिया।

     दरबार की समाप्ति पर उदास चेहरे के साथ मंत्री जब घर लौटा तो उनकी बुद्धिमान पुत्र वधु विशाखा ने उदासी का कारण जानना चाहा। मंत्री जी पहले तो टालते रहे परन्तु बाद में विशाखा के स्नेह भरे आग्रह के आगे नत मस्तक हो गये और सारी बात उसे बता दी। वह सुशील नारी इस छोटी-सी बात को सुनकर मुस्करा दी और कहा - पिता जी, यह तो बहुत आसान काम है। मंत्री जी ने उसके समाधान सूचक चेहरे को पढ़कर धिरे से पूछा - कैसे बेटी ?

    विशाखा ने कहा - पिता जी, दोनों घोड़ियों को अलग-अलग पात्र में दान डाल देना, जो माँ होगी वह धिरे-धिरे खायेगी और बेटी होगी वह जल्दी-जल्दी खायेगी। बेटी अपने पात्र का दाना समाप्त कर, माँ के पात्र में मुँह डालेगी और माँ हटकर बेटी को खाने देगी। इस प्रकार आपको पहचान हो जायेगी।

    निधार्रित समय पर दरबार में राजा, व्यापारी, दरबारीगण आये और मंत्री जी ने घोड़ियों की अलग-अलग पहचान बता दी। सौदागर इस पहचान से संतुष्ट हुआ। उसने राजा के ज्ञानी मंत्री को और राजा को साधुवाद दिया। और चल दिया अपने राह पर। परन्तु राजा के मन में प्रश्न उत्पन्न हुआ कि ऐसा हल मंत्री के मन की उपज कैसे हो सकता है, यह अवश्य ही किसी वात्सल्यमय नारी के द्वारा सुझाया गया है। राजा के पूछने पर मंत्री ने अपनी पुत्रवधु की बुद्धि का सच्चा- सच्चा हाल कह सुनाया। राजा ने दूसरे दिन विशाखा को दरबार में बुलाकर सम्मानित किया।

सीख - हर जगह हम समर्थ नहीं होते है तो अपने से छोटो का भी कभी कभी सहयोग लेना चाहिए या उनसे उस विषय के बारे में बात करनी चाहिये। जिस के बारे में हमें पता न हो।  ताकि विचार- विमर्श हो सके।



Monday, May 26, 2014

Hindi Motivational Stories............... सत्य से बढ़कर असत्य

सत्य से बढ़कर असत्य 

     बहुत समय पहले की बात है जब राजा महाराजा अपने मंत्रियों से काफी प्रभावित रहते थे। जैसे राजा अकबर और राजा कृष्णराय और तेनालीरामा ऐसे ही एक राजा के पास मंत्री था वो कभी भी झूठ नहीं बोलता था। राजा एक दिन उस मंत्री की परीक्षा लेने की सोची। और भरे दरबार में सम्राट ने अपने हाथ के पंजे में एक पक्षी को लिया और मंत्री से पूछा - बताओ,  पक्षी जिंदा है या मृत ? मंत्री के सन्मुख यह नई तथा विचित्र परीक्षा की घड़ी थी। यदि वह कहता है कि पक्षी जिंदा है तो सम्राट पंजा दबा कर उसे मार देगा और यदि वह कहता है कि पक्षी मृत है, तो सम्राट पंजा खोलकर उसे उड़ा देगा। मंत्री के दोनों ही उत्तर झूठे ठहराये जाने की पूरी संभावना थी। आखिर मंत्री ने फैसला किया यदि मेरे एक झूठ से पक्षी के प्राण बच सकते है,  तो झूठ भी मुझे मंजूर है।

        मंत्री ने कहा - हे सम्राट,  आपके पंजे में जो पक्षी है, वह मृत है। ऐसा सुनते ही सम्राट ने पंजा खोल दिया और पक्षी उड़ गया। सम्राट  ने कहा - आज तो तुमने झूठ बोल दिया। मंत्री ने जवाब दिया - महाराज, यदि मेरे इस झूठ से इस निर्दोष पक्षी की जान बच गयी है, तो यह झूठ बोलकर भी मैं विजयी ही हूँ , हारकर भी विजयी हूँ।

       इस उत्तर से सम्राट बहुत खुश हुआ और भरे दरबार में उसकी तारीफ करने को विवश हो गया। कल्याण के लिए बोला गया झूठ, कई बार सत्य से भी बढ़कर होता है। सत्य लचीला होता है, वह व्यक्ति, समय, स्थान और परिस्थिति को परखकर निर्धारित होता है। एक व्यक्ति के सम्बन्ध में जो झूठ है, वही दूसरे के सम्बन्ध में कल्याणकारी हो सकता है।

सीख - किसी मासूम की जान बचाने ने लिए बोला गया झूठ, झूठ नहीं पर वो कल्याणकारी होता है इस लिए कहा गया सत्य से बढ़कर असत्य।
    

Sunday, May 25, 2014

Hindi Motivational Stories............मृत्यु की स्मृति और पाप से मुक्ति

  " मृत्यु की स्मृति और पाप से मुक्ति "


              एक संत थे जिनका जीवन निष्पाप एवं पवित्र था। बहुत लोग उनके उपदेश सुनने आते थे। एक दिन एक युवक ने संत से कहा - महात्मन ! मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि आप पाप रहित जीवन कैसे जी सकते है ? कितनी भी कोशिश कर लूँ फिर भी मुझ से पाप तो हो ही जाता है। आप पाप रहित जीवन कैसे जीते है, कृपया पाप रहित जीवन का रहस्य मुझे समझाइये।

                संत ने कहा - वत्स बहुत अच्छा हुआ जो तुम आ गये। क्यों कि मुझे तुम से एक विशेष बात करनी थी। युवक ने उत्सुकता से पूछा -महात्मन ! कैसी बात ?

      संत ने कहा - बेटे ! बात तेरे जीवन से सम्बन्धित है। आज सुबह मैंने सपने में देखा कि ठीक सातवें दिन आपकी मृत्यु होनी वाली है। तेरे पारिवारिक जनों का विलाप सुनकर मेरी नींद खुल गयी।  बेटे, मेरा सुबह का सपना हमेशा सच्चा होता है।

    मृत्यु की बात सुनते ही युवक के दिल की धड़कन बढ़ गयी, आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा, हाथ-पैर भय से कापने लगे और सिर चकराने लगा। वह वहाँ से सीधा भगवान के मन्दिर में जाकर उनके चरणों में झुककर प्रार्थना करने लगा - हे प्रभु ! हे मेरे रक्षक ! मैंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत पाप किये है। पाप करके कभी मैंने पश्चाताप नहीं किया। मैं अपनी करनी को शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता। प्रभु ! मुझे माफ़ कर दीजिये। जब वह घर लौटा तो उसका खाने - पीने, हँसने - बोलने में मन नहीं लगा। संसार के वैभव अब उसे आकर्षित नहीं कर रहे थे। पाप करना तो दूर अब तो पाप करने की इच्छा भी नहीं पैदा हो रही थी। संसार की सारी वस्तुएं उसे निःसार लगने लगी क्यों कि कोई ऐसी वस्तु नहीं थी जो उसे मृत्यु से बचा ले।

    धन, दुकान, माकन, पुत्र, पत्नी, परिवार और मित्र कोई भी उसे मृत्यु बचा नहीं सकता था। वह सोचने लग कि क्या कोई ऐसा डॉक्टर नहीं जिसके कैप्सूल से मौत रुक जाये, क्या कोई ऐसा वकील नहीं जो मृत्यु को स्टे- आर्डर दे सके, क्या कोई ऐसा वैज्ञानिक नहीं जिसके शोध से यमराज की गति अवरुद्ध हो जाये। बहुत सोचने पर उसे अहसास हुआ कि सद्गुण और प्रभुस्मरण ही एकमात्र आधार है। तभी उसने हृदय में पवित्रता का संचार होने लगा।

  इस प्रकार निष्पाप एवं पवित्र भावों से उसके छः दिन बीत गये। सातवें दिन का जब सूर्योदय हुआ तो उसके मन से मृत्यु का भय निकल चूका था। इतने में संत उसके घर पहुँचे और पूछा - वत्स ! सात दिन में तुमने कितने पाप किये ? उसने कहा - महात्मन ! पाप करना तो दूर, पाप करने के विचार भी पैदा नहीं हुये। जब मौत सिर पर खड़ी हो तो मन पाप में कहाँ लगता है, गत छः दिनों में मेरा जीवन ही बदल गया है, संत ने कहा - पवित्र जीवन जीने का यही रहस्य है। मैं भी मौत का प्रतिपल स्मरण करता हूँ।

सीख - अपने को पाप से बचाने का सिंपल तरीका - मौत का स्मरण करना है। मरना तो एक दिन है। तो क्यों न अच्छे कर्म का पूँजी जमा करें। कहते है इन्सान मरता है तो दो चीजें साथ चलते है अच्छा या बुरा सतकर्म या विक्रम। तो ये आपके ऊपर है कि आप क्या साथ ले जाना चाहते है।






Thursday, May 22, 2014

Hindi Motivational Stories ............भोले का साथी भगवन

भोले का साथी भगवन 


        एक बार की बात है एक सियार जंगल में से गुजर रहा था। दोपहर का समय था, गर्मी का मौसम था। गर्मी बहुत पड़ रही थी। सियार को बहुत प्यास लगी, उसका गला सूखता जा रहा था, उसे ऐसे लगा कि अगर जल्दी पानी नहीं मिलेंगा तो आज प्राण पखेरू उड़ जायेंगे। वह पानी की तलाश में हांफता हुआ आगे बढ़ रहा था कि उसकी निगाह एकाएक एक खड्डे की ओर गयी जिस में कुछ पानी था। उसे देखते ही जीवन बचने की कुछ उमीद लगी परन्तु वह खढडा कुछ गहरा था। उसमें वह जैसे-तैसे उतर तो जाता परन्तु फिर उस में से बाहर निकलना उसे मुश्किल लग रहा था। यह सोचकर उसे महसूस होने लगा कि आज उसकी मौत तो आ ही जायेगी। या तो वह प्यासा ही खढ़डे के बाहर मर जाएगा या पानी पीकर खढ़डे में पड़ा-पड़ा बाहर आने की चिंता में दम तोड़ देगा।

         अचानक ही उसने देखा कि एक बकरी उस ओर आ रही थी। उसे लगा कि वह भी पानी ही की तलाश में आ रही है। उसे ख्याल आया कि अब शायद काम बन जाये। जब बकरी उसके निकट पहुँची तो सियार ने उससे कहा - बहन बकरी, क्या तुम्हे प्यास लगी है ? क्या तुम पानी की तलाश में निकली हो ? बकरी बोली - हाँ भैय्या ? गला सुखा जा रहा है और प्यास के मरे दम घुटता जा रहा है। अगर थोड़ी देर पानी न मिला तो आज यह तेरी बहन बचेगी नहीं।

        सियार बोला - अरे, ऐसा क्यों कहती हो ? चलो मैं तुम्हे दिखाऊँगा पानी कहाँ है ? सियार मक्कार तो होता ही है। वह बकरी को बहन कहकर पुकारता हुआ नेता बनकर स्वयं को बड़ा निःस्वार्थ प्रगट करता हुआ खढडे की ओर ले चला। खढ्डे पर पहुँच कर सियार बोला - लो जितना पानी पीना हो, पि लो। बकरी बोली - भैय्या, पानी पीने के लिए इस में उतर तो जाऊँ परन्तु फिर निकालूंगी कैसे ? दूसरी बात यह है कि तुम भी तो पानी पी लो।  सियार बोला - अच्छा, तो फिर ऐसा करते है कि तुम कहती हो तो मैं भी पानी पि लेता हूँ। मैं भी उतरता हूँ, तुम भी उतरो। मैं पानी पीकर तुम्हारी पीठ पर चढ़कर बाहर निकल आऊंगा और बाहर खड़े होकर तुम्हारे सींगो से पकड़कर तुम्हे भी बाहर खींच लूँगा ताकि तुम भी बाहर आ सको। अगर मैं तुम्हें सींगो से खींच लूँ, तब तुम बुरा तो नहीं मानोगी ?

     बकरी बोली - इसमें बुरा मानने की भला क्या बात है ? तुम तो मेरा भला ही चाह रहे हो। लो, अब देर किस बात की है। दोनों उतर कर जल्दी से पानी पी लेते है। अब सियार तो बकरी की पीठ पर चढ़कर बाहर निकल आया। तब बकरी ने उसे कहा - लो भैय्या, अब मुझे भी खींच लो। ऐसा कहकर बकरी ने अपने सींग आगे बढ़ाये। परन्तु मक्कार सियार बोला - वाह बहन वाह, अगर तू मेरी खैर चाहती होती, तू कभी न कहती कि मुझे सींगो से पकड़कर बाहर खींच लूँ क्यों कि तुझे खीचने की कोशिश करने पर तो मैं स्वयं ही वापस खढ़डे में गिर जाऊँगा। तू स्वयं ही सोच की तू कितनी भारी और बड़ी है। मैं तुम्हे खींचने की कोशिश करूँगा तो तुम्हारे साथ मैं भी खढ़डे में मर जाऊँगा। इस लिए नमस्कार, मैं तो अब चलता हूँ क्यों कि मेरी साथी मेरा इंतज़ार करते होंगे। ऐसा कहकर वह तो वहाँ से चल दिया और बकरी वही ठगी-सी खड़ी रह गयी।

      सियार कुछ ही आगे बढ़ा था कि रास्ते में एक बाघ आ रहा था। बाघ सियार पर झपटा उसे अपनी भूख का शिकार और गले का ग्रास बना लिया। बकरी वहाँ खड़ी मैं.. में कर रही थी मानो भगवान से प्रार्थना कर रही हो कि प्रभु, सच्चाई वालों के आप ही साथी हो। हे प्रभु, आप मुझे इस खढ़डे से निकालो। वह अपना मुँह ऊपर को उठाकर मैं. मैं … मैं कर रही थी।

      कुछ देर बाद उसी रस्ते से एक भक्त स्वभाव का यात्री वह से गुजर रहा था। उसने मैं.. मैं की आवाज़ सुनकर जब चारों तरफ देखा उसे कोई बकरी दिखाई नहीं दी तो उसे ख्याल आया कि बकरी किसी परेशानी में है। वह उस आवाज़ का अनुशरण करते खढ़डे के पास पहुँचा गया। उसने उसे निकाल कर बाहर किया। जीवन की रक्षा पाकर बकरी ख़ुशी से उछलती-कुढ़ती चली गयी।

सीख -  इस कहानी से हमें ये सीख मिलती है कि हम चालाकी से अपना काम तो कर लेँगे पर उसका भुगतान कहाँ और कैसे किस रूप में भरना पड़ता है इस का पता वक्त ही बताएगा। इस लिये चालाकी नहीं करे। और एक सीख ये मिला की भोले का साथी भगवान है मुश्किल घडी में ईश्वर को दिल से याद करो तो मदत अवश्य मिल जाती है। 

Wednesday, May 21, 2014

Hindi Motivational Stories...................................... सत्यता की महानता

सत्यता की महानता 

      एक वन में कुमुद नाम के ऋषि रहा करते थे। एक कुछ कार्य से उन्हें बाहर जाना हुआ। और कुमुद ऋषि अपना कार्य पूरा करके वापिस लौटे तो देखा कि अन्य ऋषि उनके वन में लगे वृक्ष के फल तोड़कर खा रहा था। ये दृश्य देखने के पश्चात् कुमुद ऋषि उनके नजदीक पहुँचे और पूछा -  क्या आपने फल ग्रहण करने से पूर्व इस वन के अधिपति की अनुमति प्राप्त की है ? ये बात सुनकर दूसरे ऋषि चौके क्यों कि वो यहाँ से गुजर रहे थे तो भूख की व्यकुलता में बिना कुछ सोचे ही फल तोड़कर खाना शुरू  कर दिया। इस पर कुमुद ऋषि ने बताया के ये उनका ही वन है और वे ये समझते है कि बिना किसी आज्ञा से उसकी वस्तु का उपभोग भी चोरी है, पाप है। इसकी सजा तो आपको आवश्य भुगतनी चाहिए। ये सुनकर फल खाने वाले ऋषि को अत्यन्त पश्चाताप हुआ और उन्होंने सुझाव दिया कि सजा देने का अधिकार तो राजा के पास है, आप उन्हें अपना अपराध सुनाकर सजा पूरा करे। 

       ऋषि राजा के पास पहुँचे। सारी बात सुनने के पश्चात् राजा ने कहा कि इतने थोड़े से फल बिना पूछे ले लेना सो भी आप जैसे ऋषि के लिए कोई पाप नहीं है। मैं तो इसकी सजा देने में अक्षम हूँ। अगर कुमुद ऋषि इसे चोरी या पाप समझते है तो आप उन्हीं से क्षमा याचना कीजिये। ऋषि ये सुनकर पुनः वन अधिपति के पास पहुँचे और अपराध की सजा माँगी। इस बार कुमुद ऋषि ने जवाब दिया कि - जाईये, मैंने आपको क्षमा किया। पर अब तो अपराधी ऋषि ढूढ़ थे सजा भोगने के लिए। बहुत देर समझाने पर भी जब वे अपनी बात से नहीं टूटे तो कुमुद ऋषि ने वन से दूर कुटिया में जाकर उन्हें तपस्या करने का सुजाव दिया और कहा की शायद परमात्मा स्वयं ही क्षमा कर दे। अपराधी ऋषि का ग्लानियुक्त मन तो जैसे प्रतिक्षण उन्हें झकझोर रहा था। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी की परवाह किये बिना वो कुटिया में जाकर ध्यान मग्न हो गये। 

     दो दिन की कठिन तपस्या रंग लाई। अपने अन्दर एक नई शक्ति का अनुभव करते हुए उन्होंने सुना - " हे वत्स, मैंने तुम्हें क्षमा किया, तुमने सच बताकर अपनी चोरी स्वीकार की, इसी के लिये तुम्हारी आधी सजा से तुम्हे मुक्ति मिली और रही हुई सजा इस तपस्या से पूर्ण हुई। अब जाओ, जाकर अपना कर्तव्य  फिर से शुरू करो। "

सीख - इस कहानी से हम समझ सकते है की बिना अनुमति के कोई वस्तु का उपयोग करना भी पाप है। और अगर जाने - अनजाने ऐसा हो जाता है तो सच बताकर पश्चाताप करे और ईश्वर की याद में रहकर अपने मन को शुद्ध करे। 

Tuesday, May 20, 2014

Hindi Motivational Stories....................दुआये लें और बददुआओं से बचे !

दुआये लें और बददुआओं से बचे !

     
         बहुत पुरानी बात है एक आदिवासी गॉव में एक बनिया अनाज और किराना की दूकान चलाता था। एक दिन एक गरीब महिला ने सौ रुपये का नोट बनिये के हाथ पर रखा और साठ रुपये का सामान लिया, फिर बनिया अन्य ग्राहकों को सामान देने लगा। महिला खड़ी रही। समय बीतता जा रहा था, महिला ने बचे हुए चालीस रुपये माँगे। बनिये ने कहा - तुम्हें चालीस रुपये तो उसी समय दे दिये थे। महिला बोली - नहीं सेठ, तुमने मुझे पैसे नहीं दिये, मुझे कुछ और सामान भी लेना है, सो मुझे चालीस रुपये दे दीजिये।

      बनिये ने हर बार यही कहा कि मैंने रुपये दे दिये है, तब नौकर बोला, सेठजी, इसके चालीस रुपये देने अभी बाकी है। अब सेठ, नौकर पर बरस पड़ा - इतना ही तुझे है तो तू अपनी जेब से दे दे। यह सुन कर असहाय महिला फिर से गिड़गिड़ाई - सेठ, अभी भी मुझ गरीब के चालीस रुपये दे दे.…… वरना  महिला के ऐसे बोलने पर सेठ भड़क उठा - क्या कर लेगी, मैंने रुपये दे दिए है। सेठ, एक गरीब, लाचार की हाय ! मत लो, मैं आखिरी बार कह रही हूँ - महिला आँसू भरकर बोली लेकिन सेठ के दिल में तो लोभ था। वह बोला - क्या तुमको दुबारा चाहिए ?

      आखिर लाचार महिला का दिल जल उठा, अंतर्मन से हाय निकली - सेठ, एक माह में तुम्हारी दोनों आँखे की रोशनी चली जायेगी और आज ठीक एक वर्ष बाद तुम इस दुनिया में नहीं रहोगे। अब तो सेठ को और ही ज्यादा गुस्सा आ गया, बोला - चली जा यहाँ से, क्या तेरे कहने से ऐसा होगा ?

    मेरे साथियों लाचार की लगी हाय काम कर गयी ! ठीक पच्चीसवें दिन जब सेठ सुबह सोकर उठा तो उसे लगा कि कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। वह एक खम्भे से टकराकर गिर पड़ा। अब इस घटना के एक वर्ष बाद एक दिन अचानक सेठ को दौरा पड़ा और वह दुनियाँ से विदा हो गया। मात्र चालीस रुपये की लालच में गरीब की जो हाय ली उसका परिणाम कितना भयंकर निकला ? इस तरह की हाय इसी जनम में पूरी नहीं हो जाती, अगले जन्मों तक भी पीछा करती है।

सीख -  साथियो काश ! सेठ चालीस रुपये का लोभ न करता, महिला भी सुख से रहती, और सेठ भी पूरी उम्र जी लेता शान से एक छोटी सी गलती कारण कितना बड़ा भुगतान भरना पड़ा। यही पर हमको शिक्षा मिलता है की हमारे घर हम जो पैसा ले आ रहे है। वो हराम या बेईमान का तो नहीं है। चेक जरूर करे और हाय ! से बचे। हम अपने घर में नीति से, प्रेम से , प्रसन्नता से, पवित्रता से , ईमानदारी से आशीर्वाद से यदि ला रहे है तो घर में शान्ति और ख़ुशी होगी , अन्यथा नहीं। 

Monday, May 19, 2014

Hindi Motivational Stories ........................अशान्ति का कारण अहंकार

" अशान्ति का कारण अहंकार "

       मुम्बई में एक सेठ रहते थे जिनका नाम था सोमनाथ। उन्हें भक्ति और पूजा में विशेष रुचि थी। वे समय - समय पर किसी - न - किसी साधु - संत को अतिथि  के रूप में बुलाया करते और उनकी सेवा करते। उनके पास  धन सम्पत्ति होने के बाद भी वे बहुत अशान्त रहते थे। एक बार सेठ जी के ही निमन्त्रण पर एक सन्यासी उनके यह आकर ठहरे हुए थे। सेठ जी ने सन्यासी जी को बताया कि उनके जीवन में अशान्ति है।

         दोपहर भोजन के बाद सन्यासी और सेठ एक साथ बैठे कुछ बातें की उसके बाद सेठ ने सन्यासी जी को कहा चलिये मैं आपको अपने बंगले के विभिन्न भाग दिखता हूँ। बंगला देखने के बाद सेठ जी सन्यासी को बगीचे में ले गए। जहाँ रंग-बिरंगे फूलों की शोभा देखने- जैसी थी। और सेठ जी, अँगुली के इशारे से सन्यासी जी को बता रहे थे - इस फल का पौधा मैंने सिंगापुर से मँगाया था, वह सामने जो पेड़ है, उसकी कलम ऑस्ट्रेलिया से मंगायी गयी थी। और वह जो फूल दिखायी दे रहा है, वह जापान से लाया गया था.…

        और वो देखो वो मेरी ही फैक्टरी है जहाँ तीन हज़ार लोग काम करते है। और एक फैक्टरी का काम चल रहा है.। मेरे पास चार मोटर कार है। इस तरह सेठ अपनी सम्पत्ति के बारे में बताते जा रहे थे। और सन्यासी केवल …" हूँ , हूँ , हूँ  " ही करते रहे।

         जब वे वापस अपनी बैठक में लौटे तो सामने एक विश्व का नक्शा लटक रहा था दीवार पर। सन्यासी महोदय ने सेठ जी से कहा - नक़्शे की तरफ इशारा करते हुए , सेठ जी, इस में भारत देश को कहा दिखाया है ?सेठ जी ने भारत देश पर अँगुली रख दी। सन्यासी जी ने फिर पूछा - सेठ जी, इस में मुम्बई को कहाँ दिखाया है ? सेठ जी फिर अँगुली रख दी। उसमें तो मुम्बई को एक बिन्दु के ही रूप में दिखाया गया था। तब सन्यासी ने कहा सेठ जी इस में आपका बँगला और कारखाना कहाँ दिखाया है ? यह सुनकर सेठ जी को लज्जा का अनुभव हुआ क्यों कि जब मुम्बई को ही नक़्शे में बिन्दु - सम दिखाया है तो इतने बड़े विश्व में सेठ जी के बंगले और कारखाने को कैसे दिखाया जा सकता था।

         सेठ जी समझ गये कि सन्यासी जी ने उसके अभिमान को दूर करने के लिए ही यह सब पूछा है। फिर सन्यासी ने समझाया की शान्ति का अनुभव करने के लिये अभिमान और अंहकार को छोड़ना होगा। क्यों की अशान्ति का मुख्य कारण ही अहंकार है। सच्ची शान्ति ईश्वर की याद और उसकी महीमा में है। जो शास्वत सत्य है। सेठ जी को सारी बात समझ में आयी और वे ईश्वर की अराधना में रहने लगे।

सीख - हमारे पास चाहे कुछ भी हो लेकिन उसका अभिमान न हो क्यों की ये संसार ईश्वर की सुन्दर रचना है। हम भी उसकी रचना है। रचना से बड़ा रचने वाला है फिर अभिमान क्यों ?


Hindi Motivational stories - शालिग्राम और शिव

शालिग्राम और शिव

       बहुत पुरानी बात है बहुत समय पहले की बात है, कुरक्षेत्र में शालिग्राम नाम का एक बालक रहता था। और हुआ ऐसा की बचपन में ही उनके पिता शिवानन्द चल बसे। शिवानन्द बड़े सज्जन पुरुष थे। लेकिन बालक शालिग्राम को उनका सहयोग नहीं मिल पाया।

              और शालिग्राम की माँ की केवल एक ही आशा थी की शालिग्राम अपने बाप जैसा गुणवान बने। इस लिए वह हर तरह शालिग्राम का ध्यान रखती उसका इंतज़ार करती रहती। लेकिन शालिग्राम को खेल - कूद के शिवाय और कुछ न सूझता था। और धीरे धीरे वह और ही कुसंग में गिरता जा रहा था। और उसे माँ की याद सिर्फ खाना खाने और पैसे लेने के लिए ही आती थी।

                     अब शालिग्राम रात को देर घर लौटता। माँ देर तक उसकी प्रतीक्षा करती, उसे समझाती परन्तु बालक  कहाँ मानता था ! और माँ  उसे केवल एक बात मानने को कहती कि तुम ऐसा कोई कर्म न करो जिससे तुम्हारे माता-पिता के नाम को दाग लगे।

     शालिग्राम यह सब बाते अपने दोस्तों को सुनाया करता। दोस्त सुनते -सुनते तंग आ गये। आखिर एक दिन उन्होंने कहा - तुम एक दिन माँ का काम तमाम क्यों  नहीं करते !उसके लिए साधन तुम्हें हम देंगे। शालिग्राम ने कहा - हाँ, अब ऐसा करना  पड़ेगा। और वो दोस्तों से साधन लेकर रात को घर की तरफ चल दिया।

      उस दिन वह रात को 12 बजे घर पहुँचा। सर्दी का मौसम था। वर्षा हो रही थी और वह ठंड के मरे तड़प रहा था। माँ बेचारी तो पहले से  इंतज़ार कर रही थी। उसने उसे वस्त्र दिये, खाना खिलाया और प्यार करते हुए वे शिक्षा भी देती रही। शालिग्राम ने तो मन में कुछ और ही ठानी हुई थी। उसी सोच को सोचते सोचते उसे नींद आ गई और कुछ देर बाद स्वप्न में को गए और स्वप्न में भी उसी उधेड़बुन में रहा। स्वप्न में उसने मौका पाकर अपनी माँ के साथ सदा के लिए सम्बन्ध तोड़ने का कार्य कर लिया और अपनी माँ के शीर्ष को बाहर ले चला ताकि दोस्तों को अपनी वफादारी का प्रमाण दिखाये।

     स्वप्न में ही शालिग्राम ने देखा कि वह धीरे - धीरे चल रहा था। बाहर वर्षा के कारण रस्ते में फिसलन हो रही थी। शालिग्राम फिसल कर कुहनियों के बल गिर पड़ा.…  .! 'हाय - यह शब्द उसके मुख से अनायास ही निकल गया। परन्तु इसके साथ ही एक कोमल ध्वनि उसके कानो में पड़ी - बेटा, तुझे कहीं चोट तो नहीं आई। वह इधर - उधर देखने लगा परन्तु यह आवाज़ तो उसकी माँ के शीर्ष से सुनाई दी थी। शालिग्राम की आँखों में पानी भर आया। वह अपने को कोसने लगा। वह माँ ,माँ ,माँ.… ऐसे चिल्लाने लगा। स्वप्न में 'माँ - माँ कहते उसकी आवाज़ बाहर भी सुनाई दी। माँ भागी - भागी उसके पास पहुँची और उसने कहा - बोलो बेटा ? शालिग्राम अपने सामने माँ को खड़ा देख आश्चर्याचाकित हुआ। वह सिसक -सिसक कर, 'माँ - माँ ' कहता हुआ अपनी माँ के गले से लग कर बोला - माँ, बताओ मेरे लिए क्या आज्ञा है ? मैं तुम्हे क्या दे सकता हूँ ? जो मेरे पास है, वह मैं अवश्य दूँगा।  माँ बोली - अच्छा तो आज मुझे अपनी बुराइयों का दान दे दो।

सीख - एक बात अपने सुनी होगी ठोकर से ही ठाकुर बनते है। लेकिन साद विवेक से काम लिया जय तो समय से पहले शै मार्ग पर चल सकते है वर्ना ठोकर खाने के बाद तो ठिकाने पर आ ही जाना है और जो ठोकर खाने के बाद भी नहीं सुधरते तो उनके लिए क्या काहे ?................  आप सोचिए।


Friday, May 16, 2014

Hindi Motivational Stories.....................

" अन्न का मन पर प्रभाव "

       अन्न का मन पर प्रभाव इस बात को हम सुनते है और सोचते भी है हाँ बात तो सही है इस के बहुत से उदहारण हम अपने धर्मिक और विज्ञानं के किताबों में पढ़ते है। जैसा अन्न वैसा मन जैसा पानी वैसी वाणी इस तरह के स्लोगन्स भी हम पढ़ते रहते है। पर इस बात का हमारे मन और बुद्धि पर कितना असर होता है या हम इस बात का कितना चिन्तन करते है और अनुकरण जीवन में कहा तक करते है, इस बात पर निर्भर होता है।

       इस बात का एक सुन्दर उदहारण महभारत के एक प्रसंग में आता है। युद्ध पूरा होने के बाद भीष्म पितामह सर - शय्या पर लेटे हुए थे और अर्जुन को धर्मोपदेश दे रहे थे। धर्म की बड़ी गम्भीर लाभदायक बातें बता रहे थे। और द्रौपदी भी वहाँ खड़ी थी, उसको हँसी आ गई। पितामह का ध्यान उधर गया और पूछा बेटी क्यों हँसती हो ? क्या बात है ?

       द्रौपदी ने कहा - ऐसी कोई खास बात नहीं है, फिर पितामह ने कहा - बेटी तुम्हारी हँसी में कुछ रहस्य है। तब द्रौपदी ने कहा - पितामह आपको बुरा तो नहीं लगेगा। पितामह बोले - नहीं बेटी , बुरा नहीं लगेगा। तुम जो चाहो पूछो। तब द्रौपदी ने कहा - पितामह, आपको स्मरण है, जब मेरी इज़्ज़त दुर्योधन की सभा में उतारने का प्रयत्न दुःशासन कर रहा था, उस समय मैं रो रही थी, चिल्ला रही थी। आप भी वहाँ उपस्थित थे। लेकिन उस समय आपका यह ज्ञान - ध्यान का उपदेश कहाँ गया था ?

       भीष्म बोले - तुम ठीक कहती हो, बेटी। उस समय मैं दुर्योधन का पाप भरा अन्न खाता था, इस लिए मेरा मन मलीन हुआ पड़ा था। मैं चाहते हुए भी धर्म की बातें उस समय नहीं कह सका। और आज अर्जुन के तीरों ने उस रक्त को निकाल दिया है, इसलिए मेरा मन शुद्ध हो गया है। इस लिए आज धर्मोपदेश दे रहा हूँ।

सीख - धर्म के रक्षक भीष्म पितामह, जिनके आगे मानव नत मस्तक हो जाते, वह स्वयं सब कुछ भूले हुए थे क्योंकि पाप भरे अन्न का प्रभाव उनके मन पर पड़ा हुआ था। इस लिए अन्न का मन पर प्रभाव इस बात को जान कर हमें अन्न को उतनी ही शुद्धता से ग्रहण करना चाहिए।


Hindi Motivational Stories ..............

" सहनशीलता शहनशाह बनाती है "


          एक बार की बात है कि महात्मा गाँधी जी, पानी वाले जहाज में सफर कर रहे थे। शाम का समय था। सभी यात्री अपने - अपने केबिन से बाहर आकर खुले में बैठे थे। कुछ यात्री मनोरंजन के अनेक साधनों से स्वयं को तथा अन्य यात्रियों का मनोरंजन कर रहे थे, तो कुछ यात्री जहाज के किनारे पर खड़े होकर समुद्र में उठती लहरों का आनन्द ले रहे थे। परन्तु गाँधी जी एक कुर्सी में बैठे ध्यान - मग्न होकर एक पुस्तक पढ़ रहे थे। 
     
        उसी समय एक अंग्रेज आया जो गाँधी जी से चिढ़ता था। वह गाँधी जी के हाथ में कागज के चार पेज जिन पर कुछ लिखा हुआ था और एक पिन के साथ जुड़े थे। वो पेपर्स गाँधी जी को पकड़ा कर चला गया और दूर एक कोने में खड़े होकर गाँधी जी के चेहरे में उभरते भावों का अध्ययन करने लगा। गाँधी जी ने उन पृष्ठो को क्रमानुसार खोला तथा उसे पूरा ऊपर से नीचे तक पढ़ा। उन कागजों पर बहुत ही बुरे तथा असभ्य शब्दों में गाँधी जी के लिये गालियाँ लिखी हुई थी। चारों पृष्ठो को पढ़ने के बाद गाँधी जी उस अंग्रेज के पास गये। गाँधी जी को अपने तरफ आते देख कर अंग्रेज अपने सामने पड़े पेपर लेकर पढने का नाटक करने लगा। गाँधी जी उसके पास पहुँचकर एक कुर्सी लेकर उसके सामने बैठ गये और बड़े ही प्यार से बोले - श्रीमान जी, मुझे इस पिन की अत्यन्त आवश्यकता थी, जो अपने मुझे दे दिया। इस लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद। बाकी इन कागजों की मुझे आवश्यकता नहीं है, क्यों कि ये मेरे काम की चीज़ नहीं है इसलिये इन्हें आप वापस अपने पास ही सम्भाल कर रखें। हो सकता है यह आपके काम आ जाये। इतना कह कर गाँधी जी ने बड़े प्यार से उस अंग्रेज़ से हाथ मिलाया तथा वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गये। 

       अब अंग्रेज सोचने लगा मैंने इस व्यक्ति के लिए इतने असभ्य शब्दों का प्रयोग किया, परन्तु इसका तो इस पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा उल्टा उसने मुझे धन्यवाद दिया। यह सोच- सोच कर अंग्रेज़ आत्म -ग्लानि से भर गया तथा महात्मा गाँधी जी की महानता के आगे नतमस्तक हो गया। 

सीख - सहनशीलता वाला व्यक्ति खुद शहनशाह होता है उसकी सोच को कोई बदल नहीं सकता चाहे वो किसी भी तरह का प्रयोग करे बुरे शब्दों का या बुरे व्यवहार का क्यों की सहनशील व्यक्ति अन्दर से सम्पन होता है इस लिये वो बाहर की बातों से परेशान नहीं होते। 



Friday, May 9, 2014

Hindi Motivational Stories - " दर्पण "

दर्पण 

        महान दर्शन शास्त्री सुकरात शक्ल से अति बदसूरत थे। यदि कोई उनके विचार सुने बिना ही पहली बार उन्हें देखे तो घृणा हो जाये परन्तु उनके उच्च विचार सभी को पहले ही बार में अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे। एक बार सुकरात वृक्ष की शीतल छाँव में बैठे आइने में अपना मुख निहार रहे थे। उसी समय उनका एक शिष्य वहाँ आ गया। सुकरात को यह किया कलाप करते देख न चाहते हुए भी उसे हंसी आ गई। उसने हंसी को दबाने के बहुत प्रयास भी किया परन्तु वह सफल न हो सका। शिष्य को हँसता देख सुकरात ने उसकी हंसी का कारण पूछा। शिष्य ने सुकरात के प्रश्न को टालना चाहा परन्तु सुकरात के बार -बार पूछने पर शिष्य को झुकना ही पड़ा और उसने डरते हुए कहा कि - आप शक्ल से सुन्दर भी नहीं है और अपने चेहरे को आइने में निहार रहे है अंतः यह देखकर मुझे हंसी आ गई। मेरी इस गलती को माफ़ करे। 

         यह सुनकर सुकरात ने बहुत ही अच्छा उत्तर दिया - देखो, मैं दर्पण में अपना चेहरा यह सोच कर नहीं देख रहा था कि, ' मैं चेहरा देखकर ईश्वर को दोष दूँ कि उसने मुझे इतना बदसूरत क्यों बनाया ? बल्कि दर्पण इसलिए देखता हूँ कि मैं ऐसे कौन से उत्तम कर्म करूँ जो कि मेरे चेहरे की कुरूपता को ढक ले। 

        सुकरात का रहस्य भरा उत्तर सुनकर शिष्य ने सोचते हुए कहा - फिर तो सुन्दर व्यक्ति को अपना चेहरा दर्पण में नहीं देखना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर में सुकरात ने कहा - नहीं, सुन्दर व्यक्ति का भी अपना चेहरा दर्पण में यह सोच कर अवश्य देखना चाहिए कि मैं ऐसे कौन से अच्छे कार्य करूँ, ताकि मेरी सुन्दरता सदैव ही बनी रहे। मैं ऐसे कोई गंदे कर्म न करूँ जिससे मेरी सुन्दरता धूमिल हो जाये। 

सीख - अच्छे विचार और श्रेष्ठ कर्म मनुष्य को महान बनाते है। इसलिए रोज जब हम दर्पण में देखे तो चेहरे को  ठीक रखने के साथ अच्छे कर्म करने का भी मन में संकल्प ले और वैसे ही करें। 

Hindi Motivational Stories - " जीवन की सफलता "

जीवन की सफलता 

     एक बार एक शिक्षक ने ब्लैक बोर्ड पर एक रेखा खींची और छात्रों से पूछा कि इस रेखा को बिना मिटाये छोटा करो। सभी छात्र प्रश्न का उत्तर सोचने लगे। इस प्रश्न का उत्तर किसी के मस्तिष्क में नहीं आ रहा था। इस लिए सभी शांत थे। तभी एक छात्र उठा। उसने हाथ में चॉक ली और उसी रेखा के नीचे में एक उससे भी बड़ी रेखा खीच दी। छात्र के इस उत्तर से शिक्षक ने प्रसन्न होकर कहा कि इस तरफ के सवाल तुम्हारे जीवन में भी आयेंगे और तुम्हें अपने से बड़े दिखाई देंगे। लेकिन तुम अपनी सूझ-बुझ से उससे भी बड़े बन जायेंगे और तब तुम्हे लालसा होगी कि उनसे भी ऊँचे बनूँ , परन्तु इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्हें गिराना नहीं, अपितु स्वयं को और योग्य बनाना। यही जीवन की सफलता है। 

सीख - जीवन में सफलता पाने के लिए किसी को गिराना नहीं है सच्ची सफलता तो सब को साथ लेकर चलने में है। 

Hindi Motivational Stories - " बड़ा कौन ? "

बड़ा कौन ?

    एक  राजा ने अपने तीन बच्चों की महानता की परीक्षा लेनी चाही। उसने सारी सम्पति के तीन हिस्से करके एक हीरा अपने पास रख लिया और कहा कि यह उसे मिलेगा जो तीनों में से सब से महान कार्य करेगा। एक मास की निश्चित अवधि के बाद तीनों ने अपनी-अपनी महानताये पेश की। पहले राजकुमार ने कहा कि एक व्यक्ति ने मेरे पास दो लाख रुपये अमानत के रूप में रखे और मैंने उसे ज्यूँ के त्यूँ लौटा दिये। राजा ने कहा ये क्या महानता है, ना लौटाते तो तुम बेईमान कहलाते। दूसरे राजकुमार ने कहा मैंने एक डूबते हुए बच्चे को बचाया। राजा ने कहा यह तुम्हारा फर्ज था। तीसरे राजकुमार ने कहा कि मेरा दुश्मन एक ऐसी चट्टान पर सोया पड़ा था जिसके पास नदी बह रही थी। यदि वह जरा भी करवट लेता तो नदी में गिर पड़ता। मैंने उसे उठाकर सुरक्षित स्थान पर सुला दिया। राजा बड़ा प्रभावित हुआ। हीरा तीसरे राजकुमार को मिल गया। क्यों कि उसका कार्य वास्तव में हिरे तुल्य था।

सीख - हमें महान बनने के लिए अपने अन्तर मन में सब के प्रति समान भाव रखना है। चाहे दोस्त हो या दुश्मन हो समय पर मतभेद मिटाकर सब की सेवा करना है। आपके कर्म इतने महान हो जो दुश्मन भी आपको सलाम करे।  

Thursday, May 8, 2014

Hindi Motivational Stories - " साधना से भगवान मिलते है "

साधना से भगवान मिलते है 

            एक राजा था। वह बहुत न्याय प्रिय तथा प्रजा वत्सल्य एवं धार्मिक स्वाभाव का था। वह हमेशा अपने इष्ट देव की बड़ी श्रद्धा और आस्था से पूजा करता था। और एक दिन इष्ट देव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा कहा - राजन मैं तुम से प्रसन्न हूँ। बोलो तुम्हारी क्या इच्छा है, मैं उसे पूर्ण करूँगा। प्रजा को चाहने वाला राजा बोलो भगवान मेरे पास आपका दिया सब कुछ है। आपकी कृपा से राज्य में अभाव, रोग - शोक भी नहीं है। फिर भी मेरी एक इच्छा है कि जैसे आपने मुझे दर्शन देकर ध्यन किया है, वैसे ही मेरी सारी प्रजा को भी दर्शन दीजिये।

            भगवान ने बहुत समझाया ये सम्भव नहीं है पर राजा के जिद्द ने भगवान को राजी कर लिया और कल अपनी सारी प्रजा को लेकर पहाड़ी के पास आना और पहाड़ी के ऊपर से सभी को दर्शन दूँगा। ऐसा भगवान ने कहा और राजा बहुत खुश हुआ। और सारे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सभी मेरे साथ पहाड़ी के पास चलेँगे जहाँ सभी को भगवान दर्शन देंगे।

         दूसरे दिन राजा अपनी प्रजा के साथ अपने स्वजनो के साथ पहाड़ी की ओर चलने लगा तो रास्ते में एक स्थान पर तांबे के सिक्को का पहाड़ दिखा। तांबे के सिक्को को देखते ही प्रजा भागी उस तरफ और सिक्को का गठरी बांध कर घर की तरफ चल दी राजा ने बहुत समझाया पर उसका कोई असर नहीं हुआ। और आगे बड़े तो चाँदी के सिक्को का पहाड़ आया तो कुछ रही हुई प्रझा उस पहाड़ की तरफ गयी और चाँदी के सिक्को को गठरी में बांधने लगी। और अभी सिर्फ स्वजन और रानी राजा के साथ थे और कुछ दूर जाने पर एक सोने के सिक्को का पहाड़ आया तो स्वजनों ने राजा का साथ छोड़ कर सोने के सिक्को की गठरी बांधने लगा गये और गठरी लेकर अपने घर की ओर चल दिये।

         राजा ने रानी को समझाया की लोग कितने लोभी है भगवान से मिलने के बजाय वो इन सब में फँसकर अपना भाग्य की रेखा को छोटा कर रहे भगवान जो सब का दाता है उन से बड़ी कोई और वस्तु नहीं है। रानी राजा की बात सुनकर राजा के साथ चलती रही। अब राजा और रानी दोनों ही आगे का सफर तय कर रहे थे और कुछ दूर जाने पर राजा और रानी ने देखा कि सप्तरंगी आभा बिखेरता हीरों का पहाड़ है। अब तो रानी भी दौड़ पड़ी और हीरों की गठरी बनाने लगी। फिर भी उनका मन नहीं भरा तो साड़ी के पल्लू में भी बाँधने लगी। रानी के वस्त्र देह से अलग हो गये, परन्तु हीरों की तृष्णा अभी भी नहीं मिटी। यह सब देख राजा को आत्मा ग्लानि और वैराग आया। वह आगे बढ़ गया। वहाँ भगवान सचमुच खड़े उसका इंतज़ार कर रहे थे। राजा को देखते ही भगवान मुस्कुराये और पूछा - राजनं कहाँ है तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे प्रियजन। मैं तो कब से उनसे मिलने के लिये बेक़रारी से उनका इन्तज़ार कर रहा हूँ।

        राजा ने शर्म और आत्मा-ग्लानि से अपने सर को झुका दिया। तब भगवान ने राजा को समझाया - राजनं जो लोग भौतिक प्राप्ति को मुझ से अधिक मानते है , उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती और वे मेरे स्नेह तथा आशीर्वाद से भी वंचित रह जाते है। दूसरा बिना प्रेम और पुरुषार्थ के भी मुझे नहीं पा सकते। तुमने स्वम् को पहचाना, मुझे प्रेम से याद किया, तब तू मुझे पा सका।

सीख -  भगवान की प्राप्ति उन्हीं को होती है जो भौतिक प्राप्ति से दूर रहते है याने संसार में रहते संसार आप में न हो तो ही भगवान की प्राप्ति और उसका प्रेम मिलेगा। कर्म करे पर कर्म फल की इच्छा न हो। इच्छा ये हो मैं सदा भगवान की याद में राहु। 

Wednesday, May 7, 2014

Hindi Motivational Stories - " जैसी दॄष्टि - वैसी सृष्टि "

जैसी दॄष्टि - वैसी सृष्टि 

    एक वृक्ष के नीचे पांच- सात व्यक्ति विश्राम कर रहे थे, एक नृत्यकार है , एक संगीतकार है, एक उदासीन संत है, एक नौजवान है, जो अभी अभी घर से लड़कर आया है, बड़ा दुःखी है बहुत बेचैन है। आराम कर रहे इन्हीं मनुष्यों में एक लकड़ी का व्यापारी भी है।

             अब कुछ देर में मौसम में बदलाव आया हवा के तेज झोंके से डालीयाँ, पत्ते झूमते है, हिलोरे लेते है।  ये सब देखकर जो नृत्यकार है वह नृत्य की दुनिया में खो जाता है। सोचता है मेरे से भी ज्यादा सुन्दर यह वृक्ष नृत्य कर रहा है। इसकी डालियाँ में कितनी लचक है, इसके पत्ते कितने सुन्दर ढंग से झूम रहे है। पेड़ का नृत्य देखकर नृत्यकार विस्माद् की दुनिया में खो जाता है। उसको वृक्ष नाचता हुआ प्रतीत होता है।

           दूसरा, संगीतकार है, जब हवा के तेज झोंके पेड़ से स्पर्श करते है, सायं - सायं की आवाज़ बुलन्द होती है, वह संगीतकार सुर व् संगीत की दुनिया में खो जाता है। सोचता है सिर्फ मैं ही नहीं गा रहा हूँ यह वृक्ष भी गा रहा है। गीत, संगीत इस वृक्ष से भी निकल रहा है। नृत्यकार को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वृक्ष नृत्य कर रहा है, संगीतकार को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे पत्ते पत्ते से संगीत का जन्म हो रहा है।

          तीसरा, उदासनी महात्मा क्या देखता है, एक सुखा पत्ता हवा के झौके से डाली से टूट कर जमीन पर आ गिरता है। आँखों में आँसू आ गये सन्त के। मुख से शब्द निकला, एक दिन संसार रूपी वृक्ष से भी ऐसे ही टूटकर गिर जाऊंगा, जैसे पत्ता टूटकर गिर दिया। जैसे गिरे हुए पत्ते को पुनः वृक्ष व डालियाँ से जुड़ता असंभव है, वैसे ही मरे हुए मनुष्य को अपने कुटुम्ब सम्बन्धियों से तथा संसार से जुड़ना बहुत असंभव है, बहुत असंभव। और वैराग की दुनिया में खो गया, स्वयं उपराम हो गया कि यहाँ तो सारे पत्ते झड़ने ही है।

         चौथा, मनुष्य जो आराम कर रहा था वह लकड़ी का व्यापारी है, वह सोचता है कि अगर यह पेड़ मैं खरीद लूँ तो इस में इमरती लकड़ी कितनी, जलाऊँ लकड़ी कितनी और उस में से बाकी मालवा जो है वह कोपला बना सकेगा कि नहीं ? मैं कितने का यह वृक्ष खरीदूँ, कितने का बेचूँ, क्या मुझे बचेगा ? सोचकर वह व्यापार की दुनिया में खो गया।

        अब पाँचवा, जो आराम कर रहा था वह एक नौजवान था, अभी- अभी घर से लड़कर आया है, हवा के तेज झौको से जब शाखा, शाखा से टकराती है, पत्ते -पत्तों से टकराते है, वह सोचता है झगड़ा तो यहाँ भी है, शाखा, शाखा से लड़ रही है, पत्ते, पत्तों से लड़ रहे है सिर्फ मेरे घर में ही लड़ाई नहीं है, यहाँ वृक्ष में भी बहुत बड़ी लड़ाई है।

सीख - जैसी-जैसी दॄष्टि है मनुष्य की वैसी ही सृष्टि दिखाई देती है अथार्त जैसी नज़र है वैसे ही नज़ारे देखने को मिलते है। वृक्ष एक ही है लेकिन सब के अलग-अलग दॄष्टिकोण से दिखता है। इन्ही अलग - अलग दॄष्टिकोण से ही परमात्मा के अनेक नाम रूप प्रचलित हुए है।

Tuesday, May 6, 2014

Hindi Motivational Stories - " सच्चा स्नेह "

सच्चा स्नेह 

    सुभद्रा कृष्ण की बहन थी लेकिन कृष्ण का द्रौपदी के साथ अधिक स्नेह था। सुभद्रा को यह महसूस होता था और वह कृष्ण से पूछती रहती थी ऐसा क्यों, आपका द्रौपदी के साथ मेरे से अधिक स्नहे क्यों ? एक दिन श्रीकृष्ण के अँगुली में गन्ना खाते समय गन्ने का छिलका लग गया और खून बहने लगा, तो फ़ौरन आवाज़ निकला कि कोई कपड़ा लाओ और अँगुली पर बाँधो। सुभद्रा छोटा सा कपड़ा ढूंढ़ती रही और द्रौपदी जो वहाँ खड़ी थी उसने अपनी कीमती साड़ी से कपड़ा फाड़कर श्रीकृष्ण की अँगुली पर बाँध दिया। तब श्रीकृष्ण की अँगुली ने कहा कि देखो इस कारण मुझे द्रौपदी से अधिक स्नेह है क्यों कि उसका मेरे साथ अधिक स्नेह है। उसने अपनी कीमती साड़ी की फिकर न कर मेरी अँगुली तथा खून का महत्व समझ साड़ी से कपड़ा फाड़कर मेरी अँगुली पर बाँध दिया।

सीख - इस घटना से हमें ये सीख मिलता है जो जिस से जितना ज्यादा स्नेह करता है उतना ही स्नेह वो पाएगा इस लिए अगर हम ज्यादा प्यार ईश्वर से करेंगे तो उतना ही प्यार हमें ईश्वर से भी मिलेगा। 

Hindi Motivational Stories - ' स्वमान सम्मान देता है '

स्वमान सम्मान देता है 

         एक संन्यासी अपने गन्तव्य स्थान की लकड़ी के सहारा लिए अंधकारमय रास्ते के बीचों-बीच बढ़ता जा रहा था। उसे स्पष्ट दिखाई भी नहीं दे रहा था। और सामने से अचानक उस अंधकारमय रास्ते में उस राज्य का बादशाह अकेले राजधानी का भ्रमण करता हुआ  पहुँचा। बादशाह ने अपने आपको सम्राट मानते हुए रास्ते से अलग हटने की आवश्यकता नहीं समझी और संन्यासी को अन्धेरे के कारण बराबर दिखाई नहीं दिया। अंतः दोनों की टक्कर हो गयी। इस से बादशाह को बड़ा क्रोध आया और कहा - देखकर नहीं चलते, कौन हो तुम ?

         संन्यासी ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया - मैं सम्राट हूँ.… । बादशाह खिलखिला कर हँस पड़ा और उसने व्यंग्य  के साथ कौतूहलवश पूछा - अच्छा सम्राट ! यह बताईये कि मैं कौन हूँ ? तुम गुलाम हो। संन्यासी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया। यह तो सरासर बादशाह का अपमान था। अपमानित राजा आगबबूला हो गया और गश्त लगाने वाले सिपाहियों को आदेश दे उस संन्यासी को जेल में डलवा दिया। अगले दिन प्रातः काल दरबार में बादशाह ने संन्यासी को बुलवाया और पूछा - रात को तुमने अपने आपको बादशाह और मुझको गुलाम क्यों कहा ?

      संन्यासी ने धैर्यता,शांतिपूर्वक और मधुर वाणी से जवाब दिया - इसलिए कि मैंने अपने मन और इन्द्रियों को जीत लिया हूँ। इच्छाओं और वासनाओं का मैं विजेता हूँ। आपने मुझे कैद कर लिया फिर भी मेरे मन में आपके प्रति तनिक भी रोष नहीं है और आप अपने ही गुलाम है, अपनी जिहा के, अपनी वासनाओं के..... और मैं अपने मन का सम्राट हूँ। यह मेरा स्वमान है। राजा उसकी बातों से अत्यंन्त प्रभावित हुआ और उस संन्यासी को बड़े सम्मान के साथ बिदायी दी और कहा जब भी ऐसा कुछ हो तो हमें सेवा का मौका दे ये यचना भी किया।

सीख - स्वमान ही सम्मान देता है, इस में समय जरूर लगता है। अपने आप को स्वमान में सेट करने में पर एक बार अपने इस पर कार्य किया तो ये आप को सम्मान के साथ जीवन जीने देता है। स्वमान और सम्मान एक सिक्के के दो पहलू है। इसलिए स्वमान में रहो। 

Hindi Motivational Stories - " सकारात्मक दॄष्टिकोण "

सकारात्मक  दॄष्टिकोण 

  एक प्रसिद्ध जूता बनाने वाली कम्पनी ने एशिया खण्ड में मॉल्स की श्रृंख़ला खोलने का विचार किया। सफलता सुनिश्चित करने के लिये कम्पनी प्रबंधन ने एशिया खण्ड के बाजार का गहन सर्वेक्षण करवाया। पहला सर्वेक्षण टीम के परिणाम, कुछ इस प्रकार मिले -  देश के मूल निवासी असभ्य, बबर्र और जंगली है , जो जानवरों के चमड़े और पेड़ो के पत्तों से बने कपड़े और टोपी भी केवल ठंड और बरसात में ही पहनते है। ऐसे में जब कि कपडे भी उनके लिए अनावश्यक है तब वहाँ जूते बेचना मूर्खता है। अब कम्पनी के अध्यक्ष ने इस रिपोर्ट को एक तरफ किया और उसी सर्वेक्षण के लिए दूसरी टीम को फिर भेजा। नई टीम ने लिखा - सड़कों के अभाव तथा यातायात के साधनों की कमी के कारण जूते इस देश के नागरिकों के लिए वरदान सिद्ध हो सकते है। स्थानीय लोगों और चिकित्सकों के संदर्भ से यह जानकारी मिली है कि स्थानीय लोगों को सब से ज्यादा चोट पैरों में लगती है अंतः जूतो के व्यापार में सफलता संभव है। अध्यक्ष ने इस नई रिपोर्ट पर पूरा ध्यान दिया और वहाँ तत्काल काम शुरू किया। और सफलता पाया। 

सीख - एक छोटी सी बात बताती है कि दॄष्टिकोण  का परिणाम पर कितना असर पड़ता है। इस लिए हमेशा अपनी सोच को नज़र को सकारत्मक रखे। यही सफलता का राज है। 

Hindi Motivational Stories - " शंका दुःख का कारण "

शंका दुःख का कारण

     मेरे दोस्तों हम सब जीवन जीते है हमारा खाना पहनावा लग भग एक जैसा ही है १९ /२० का फरक वो एक अलग बात है। जीवन में सुख सब चाहते है और इस सुख के लिये हम वस्तु वैभव और दूसरों से अपेक्षाएँ करते है पर फिर भी सुख पाने की आशा बानी ही रहती है। और एक सुखमय सन्सार दुःख में कैसे बदलता है इस के लिए एक छोटी कहानी के दवरा समझेंगे।

          एक बहुत ही प्यारा परिवार था, राम और श्याम दो सागे भाई थे। दोनों का आपस में बहुत प्यार था,  दोनों की पत्नियाँ भी सुशील और संस्कारी थी। गृहस्थी बड़े सुन्दर ढंग से चल रही थी। राम यदि कोई भी वस्तु अपनी पत्नी के लिए लाता तो ठीक वैसे ही श्याम की पत्नी के लिए भी लाता था। खुद के लिए कोई  वस्तु  लाता तो ठीक वैसी ही अपने छोटे भाई के लिए भी ले आता था। अब एक बार राम एक जैसी दो साड़ीयाँ लाया। उसने अपनी पत्नी से कहा - पहले छोटी बहु को पसन्द की साड़ी दे देना, बची हुई तुम रख लेना। पत्नी ने वैसा ही किया।

        एक किसी प्रसंग पर दोनों ने वे साड़ीयाँ पहनी थी। अब हुआ ऐसा की राम की पत्नी की साड़ी की अन्य महिलाओं ने तारीफ की जब कि श्याम की पत्नी की साड़ी का सिर्फ रंग ही अलग था पर किसी ने भी उसकी तारीफ नहीं की। बस, शंका का जन्म हो गया कि जान-बूझकर मेरे जेठ ने अलग रंग की साड़ीयाँ खरीदी है। दोनों भाईयों में जो आज तक अपूर्व विश्वास था , सिर्फ एक छोटी-सी शंका ने ऐसा कहर ढा दिया कि उनकी गृहस्थी पूर्णतः नर्क में परिवर्तित हो गयी। दोनों परिवार साथ रहते थे पर शंका के कारण दोनों अलग अलग परिवार में रहने लगे।

सीख - दोस्तों इस कहानी से एक बात हम सीख सकते है चाहे कुछ भी हो शंका को दूर ही रहने देना चाहिए। क्यों की शंका ही दुःख का मुख्या कारण है। 

Monday, May 5, 2014

Hindi Motivational Stories - 'ट्रस्टीपन'

'ट्रस्टीपन' 

              एक राजा वर्षो तक सुखपूर्वक राज्य करता रहा लेकिन कुछ समय बाद देश में समस्याये बढ़ गयी तो उसकी चिंता भी बढ़ने लगी। उसे न भूख लगती, न नींद आती। वह बहुत परेशान रहने लगा। घबराकर वह अपने गुरु के पास गया, बोला - गुरुदेव, राज - काज में मन नहीं लगता, राज्य में परेशानियाँ बढ़ गयी है, इच्छा होती है, राज - काज छोड़कर कहीं चला जाऊँ। गुरु अनुभवी था, उसने कहा - राज्य का भार पुत्र को सौंप दो और आप निश्चिंत रहो। राजा ने कहा, पुत्र अभी छोटा है। फिर गुरु ने कहा - अपना राज्य मुझे सौंप दो। राजा खुश हो गया। उसने पूरा राज्य गुरु को सौंप दिया और स्वयं वहाँ से जाने लगा। गुरु ने पूछा - कहाँ जा रहे हो ? राजा ने उत्तर दिया - किसी दूसरे देश में जाकर धंधा करूँगा। गुरु ने कहा - इसके लिए धन कहाँ से आयेगा ? राजा ने कहा - खज़ाने में से ले जाऊँगा।

             गुरु ने कहा, खज़ाना आपका है क्या ? वह तो आपने मुझे सौंप दिया। राजा ने कहा - गुरुदेव गलती हो गयी, मैं यहाँ से कुछ नहीं ले जाऊँगा। बाहर जाकर किसी के पास नौकरी कर लूँगा। तब गुरु ने कहा - नौकरी ही करना है तो मेरे पास ही कर लो। राजा ने पूछा - काम क्या करना होगा ? गुरु ने कहा - जो मैं कहूँ, वही करना होगा। राजा ने गुरु का आदेश स्वीकार कर लिया और उसके यहाँ नौकर हो गया। गुरु ने उसको राज्य की सम्भाल का पूरा काम दे दिया। जो काम राजा पहले करता था वही पुनः उसके हिस्से में आ गया। अन्तर सिर्फ यह रहा कि अब वह राज - कार्य भार नहीं रहा बल्कि निमित्त भाव से कार्य किया जाने लगा। अब उसे भूख भी लगाने लगी, नींद भी आने लगी। कोई भी समस्या नहीं रही।

          एक सप्ताह बाद गुरु ने राजा को बुलाकर पूछा - अब क्या हाल है। राजा ने कहा - आपका उपकार कभी नहीं भूलूँगा। अब मैं परमानंद में हूँ। वही स्थान, वही कार्य पहले बोझ लगता था, अब खेल लगता है, तनाव दूर हो गया और जिम्मेदारी का बोझ उत्तर गया है।

सीख - ये सन्सार ईश्वर की रचना है और हम उस रचयता के रचना याने बच्चे हो गये।  भगवान हमारा पिता है। इस लिये भगवान भी कहते है बच्चे, आपके पास जो भी कुछ है , उसमें से मेरा-पन निकाल कर, उसे ईश्वर की अमानत मानकर, श्रीमत प्रमाण सेवा में लगाओ तो आप भी हल्के हो जायेंगे। बोझ सम्बन्धो और वस्तुओ का नहीं होता है। मेरे पन में होता है। अंतः मेरे- पन को तेरे - पन में बदल दो। 'मेरा' के स्थान पर 'तेरा ' कर दो। मेरा नहीं 'ईशवर का ' यह महावाक्य जीवन का आदर्श बना लो।  

Hindi Motivational Stories - " इच्छाओ को जीतो "

इच्छाओ को जीतो 

                 सिकन्दर जब भारत में आया तो उसने एक योगी की दिल से सेवा की। योगी के दिल में आया कि सिकन्दर को जरूर कोई इच्छा है जिसके कारण यह मेरी इतनी सेवा कर रहा है। उसने राजा सिकन्दर से पूछा - आप क्या चाहते है ? राजा ने कहा - मेरा सारे विश्व पर राज्य हो जाये। योगी ने कहा - तथास्तु , लेकिन मेरी एक शर्त है , यह एक खप्पर है इसे आप अनाज से भर देना। सिकन्दर ने कहा - महाराज जी , आप अनाज की बात कर रहे है, मैं तो इसे हीरों से भर दूँगा। तभी उसने सैनिकों से हीरे मँगवाये और लगा भरने। बहुत देर हो गई भरते - भरते लेकिन खप्पर भरने को ही नहीं आया। सिकन्दर थक गया। योगी ने कहा - यह खप्पर मानव की इच्छाओं का प्रतिक है , यह कभी नहीं भरता। एक इच्छा पूरी होती है तो दूसरी आ जाती है, दूसरी पूरी होती है तो तीसरी आ जाती है। इस तरह मानव की इच्छाये कभी पूरी नहीं होती है। आज आप विश्व पर राज्य करना चाह रहे है फिर आकाश पर और अन्य ग्रहों पर राज्य करना चाहेंगे। इस तरह सारे विश्व पर राज्य प्राप्त करने के बाद आपकी इच्छाये शान्त होने के बजाये और बढ़ेगी। 

सीख - ' इच्छा मात्रम अविद्या ' जो व्यक्ति अपने इच्छाओं को समझ ले और उन पर विजय बने तो वह बिना कुछ पुरषर्थ के भी सुखमय जीवन जी सकता है। किसी ने ये कहा है की मनुष्य अपने इच्छाओं को कम कर दे तो वो सुखी बन जाएगा। 

Hindi Motivational Stories - ' तृष्णा दुःख का कारण '

' तृष्णा दुःख का कारण '

    एक गरीब कलाकार की कला पर प्रसन्न होकर राजा ने उसे अशर्फियों से भरें (८ १/२ ) साढ़े आठ घड़े इनाम में दे दिया। कलाकार  के मन में प्रसन्नता तो हुई पर साथ ही एक चाह - सी उठी कि नवाँ घड़ा आधी खाली है, भर जाए तो कितना अच्छा हो। इस विचार ने उसे बेचैन कर दिया और वहा मारा- मारा फिरने लगा कि कहीं से आधा घड़ा अशर्फियाँ मिले। भरे हुए 8 घड़े उतना सुख नहीं दे पाए जितना दुःख उसे आधे खाली घड़े को देख कर उत्पन्न हो गया। इसलिए कहा जाता - बढ़ता है लोभ अधिक धन के संचय से जब तक एक भी घड़ा नहीं था तो चैन से सोता था, इतने मिल गए तो चैन छीन गया। वाह रे इन्सान, तेरी कैसी प्रवृति है ?

सीख - एक कहावत सुनी होगी आपने  ' आप होत बूढ़े पर तृष्णा होत जवान ' इन्सान के पास जीतना है और जितना मिलता है उसी में आनन्द उठावे यही जीवन का राज है। ये एक सच्ची कला जीवन जीने का जिस में ये कला है वाही इस सृष्टि रुपी नाटक का सच्चा कलाकार है।

Saturday, May 3, 2014

Hindi Motivational Stories - एकता से सफलता

" एकता से सफलता "

   एक गरीब परिवार था पर सभी सदस्यो में आपसी एकता बहुत थी। सो एक दिन वे सभी कमाने के लिए निकले बहुत दूर जाने पर एक पेड़ की छाया में बैठ गए। अब भूख भी बहुत लगी थी सो सभी भोजन का सामान जुटाने लगे। पिता ने बड़े पुत्र से कहा - जाओ, कुछ लकड़ियाँ ले आओ। यह सुन छोटा बेटा बोल पड़ा - इन्हें मत भेजो, मैं ले आता हूँ। पिता ने कहा - सभी एक - एक कार्य करो। एक लकड़ी लाए, दूसरा पानी, तीसरा पत्थर लाकर चूल्ह बनाए। देखते देखते सब तैयारी हो गई। वृक्ष पर बैठा एक देवदूत यह सब देख रहा था। और सोचा इनके पास तो खाना बनाने के लिए समग्री तो नहीं है बस लकड़ी पानो चूल्ह से क्या करेंगे। तब उसने हँसकर पूछा - पकाओगे क्या ? खाओगे क्या ? बड़े लड़के ने ऊपर देवदूत को देखा तो कहा - तुम जो हो। ये बात सुनते ही देवदूत के मन में आया इन्होंने मुझ पर आस राखी है तो में जरूर पूरी करूँगा और उन्हें एक स्थान दिखाया जहाँ बड़ा खजाना दबा पड़ा था। और उस दौलत को निकल कर दूसरे दिन वे सभी वापस चले गये और आनन्द से रहने लगे।

      अब पड़ोसी ने उनकी समृद्दि देखी तो पूछा - तुम एक ही रात में इतने सम्पत्तिवान कैसे हो गए ? उन्होंने सारी बात सुना दी। पड़ोसी भी उनकी नक़ल करता हुआ सारे परिवार को लेकर उसी वृक्ष के नीचे पहुँचा और भोजन बनाने का प्रयत्न में जुट गया। उसने बड़े पुत्र से कहा - जाओ, थोड़ी लकड़ियाँ ले आओ। उसने क्रोध से कहा - छोटे को क्यों नहीं कहते हो, क्या उसकी टाँग टूटी हुई है? पिता ने फिर छोटे को कहा।  वह बोला - मैं तो बहुत थक गया हूँ, मुझ से चला नहीं जाता, दुसरो को क्यों नहीं कहते, इनकी टैंगो में पानी नहीं भरा है? पिता ने तीसरे पुत्र से कहा परन्तु वह भी नहीं गया। तंग आकर पत्नी ने कहा - अच्छा, मैं जाती हूँ। इस पर उसने कहा - तू कहाँ जायेगी, बैठी रह, ऊँची - नीची जगह में कहीं गिर जायेगी। वृक्ष पर बैठा देवदूत यह सारा तमाशा देखता रहा। फिर बोला - तुम विचित्र लोग हो। लकड़ी नहीं, पानी नहीं , खाने का सामान नहीं, तब क्या भूखे रहोगे। बड़े लड़के ने कहा - तुम जो हो। देवदूत ने कहा - मैं उनके लिये हूँ जो एक होकर रहते है। तुम तो आपस में ही फूटे बैठे हो। तुम को कुछ देने का कोई लाभ नहीं होगा। यह कह कर वह देवदूत अदृश्य हो गया।

सीख - कभी भी नक़ल नहीं करनी है और परिवार में एकता हो तो वो परिवार सुखी और समृद्ध होगा इस लिये सदा एकता में रहो। 

Friday, May 2, 2014

Hindi Motivational Stories - " मृत्यु से मित्रता "

मृत्यु से मित्रता 

    एक चतुर व्यक्ति को काल से बहुत डर लगता था। एक दिन उसे चतुराई सूझी और काल को अपना मित्र बना लिया। उससे कहा - मित्र, तुम किसी को भी नहीं छोड़ते हो, किसी दिन मुझे भी गाल में धर लोगो। काल ने कहा - सृष्टि नाटक का यह शाश्वत नियम है इस लिए मैं मजबूर हूँ। आप मेरे मित्र है मैं आपकी जितनी सेवा कर सकता हूँ करूँगा ही, आप मुझ से क्या आशा रखते है बताइये। चतुर व्यक्ति ने कहा - मैं इतना ही चाहता हूँ कि आप मुझे लेने पधारने के कुछ दिन पहले एक पत्र अवश्य लिख देना ताकि मैं अपने बाल - बच्चो को कारोबार की सभी बाते अच्छी तरह से समझा दूँ और स्वयं भी भगवान के भजन में लग जाऊँ। काल ने प्रेम से कहा - यह कौन सी बड़ी बात है मैं एक नहीं आपको चार पत्र भेज दूँगा। मनुष्य बड़ा प्रसन्न हुआ सोचने लगा कि आज से मेरे मन से काल का भय भी निकल गया, मैं जाने से पूर्व अपने सभी कार्य पूर्ण करके जाऊँगा तो देवता भी मेरा स्वागत करेंगे।

       दिन बीतते गये आखिर मृत्यु की घड़ी आ पहुँची। काल अपने दूतों सहित उस चतुर व्यक्ति के समीप आकर कहने लगा - आपके नाम का वारंट मेरे पास है मित्र चलिए, मैं सत्यता और दृढ़तापूर्वक अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए एक क्षण भी तुम्हें और यहाँ नहीं छोड़ूँगा। मनुष्य के माथे पर बल पड़ गये, भृकुटी तन गयी और कहने लगा धिक्कार है तुम्हारे जैसे मित्रों पर, मेरे साथ विश्वासघात करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती ? तुमने मुझे वचन दिया था कि लेने आने से पहले पत्र लिखूँगा। मुझे बड़ा दुःख है कि तुम बिना किसी सूचना के अचानक दूतों सहित मेरे ऊपर चढ़ आए। मित्रता तो दूर रही तुमने अपने वचनों को भी नहीं निभाया।

        काल हँसा और बोला - मित्र इतना झूठ तो न बोलो। मेरे सामने ही मुझे झूठा सिद्ध कर रहे हो। मैंने आपको एक नहीं चार पत्र भेजें। आपने एक भी उत्तर नहीं दिया। मनुष्य ने चौक कर पूछा - कौन से पत्र ? कोई प्रमाण है ? मुझे पत्र प्राप्त होने की कोई डाक रसीद आपके पास है तो दिखाओ। काल ने कहा - मित्र, घबराओ नहीं। मेरे चारों पत्र इस समय आपके पास मौजूद है। मेरा पहला पत्र आपके सिर पर चढ़कर बोला, आपके काले सुन्दर बालों को पकड़ कर उन्हें सफ़ेद कर दिया और यह भी कि सावधान हो जाओ, जो करना है कर डालो। नाम, बड़ाई और धन - संग्रह के झंझटो को छोड़कर भजन में लग जाओ पर मेरे पत्र का आपके ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। बनावटी रंग लगा कर आपने अपने बालों को फिर से काला कर लिया और पुनः जवान बनने के सपनों में खो गए। आज तक मेरे श्वेत अक्षर आपके सिर पर लिखे हुए है। कुछ दिन बाद मैंने दूसरा पत्र आपके नेत्रों के प्रति भेजा। नेत्रों की ज्योति मंद होने लगी। फिर भी आँखों पर मोटे शीशे चढ़ा कर आप जगत को देखने का प्रयत्न करने लगे। दो मिनिट भी संसार की ओर से आँखे बंद करके, ज्योतिस्वरूप प्रभु का ध्यान, मन में नहीं किया। इतने पर भी सावधान नहीं हुए तो मुझे आपकी दीनदशा पर बहुत तरस आया और मित्रता के नाते मैंने तीसरा पत्र भी भेजा। इस पत्र ने आपके दाँतो को छुआ, हिलाया और तोड़ दिया। और अपने इस पत्र का भी जवाब न देखकर और ही नकली दाँत लगवाये और जबरदस्ती संसार के भौतिक पदार्थों का स्वाद लेने लगे। मुझे बहुत दुःख हुआ कि मैं सदा इसके भले की सोचता हूँ और यह हर बात एक नया, बनावटी रास्ता अपनाने को तैयार रहता है। अपने अन्तिम पत्र के रूप में मैंने रोग - क्लेश तथा पीड़ाओ को भेजा परन्तु आपने अहंकार वश सब अनसुना कर दिया।

       जब मनुष्य ने काल के भेजे हुए पत्रों को समझा तो फुट -फुट कर रोने लगा और अपने विपरीत कर्मो पर पश्चाताप करने लगा। उसने स्वीकार किया कि मैंने गफलत में शुभ चेतावनी भरे इन पत्रों को नहीं पढ़ा, मैं सदा यही सोचता रहा कि कल से भगवान का भजन करूँगा। अपनी कमाई अच्छे शुभ कार्यो में लगाऊँगा, पर वह कल नहीं आया। काल ने कहा - आज तक तुमने जो कुछ भी किया, राग -रंग, स्वार्थ और भोगों के लिए किया। जान-बूझकर ईश्वरीय नियमों को तोड़ना जो करता है, वह अक्षम्य है। मनुष्य को जब बातों से काम बनते हुए नज़र नहीं आया तो उसने काल को करोड़ों की सम्पत्ति का लोभ दिखाया।

     काल ने हँसकर कहा - यह मेरे लिए धूल है। लोभ संसारी लोगो को वश में कर सकता है , मुझे नहीं।  यदि तुम मुझे लुभाना ही चाहते थे तो सच्चाई और शुभ कर्मो का धन संग्रह करते। काल ने जब मनुष्य की एक भी बात नहीं सुनी तो वह हाय -हाय करके रोने लगा और सभी सम्बन्धियों को पुकारा परन्तु काल ने उसके प्राण पकड़ लिए और चल पड़ा अपने गन्तव्य की ओर।

सीख - समय के साथ उम्र की निशानियों को देख कर तो कम से कम हमें प्रभु की याद में रहने का अभ्यास करना चाहिए और अभी तो कलयुग का अन्तिम समय है इस में तो हर एक को चाहे छोटा हो या बड़ा सब को प्रभु की याद में रहकर ही कर्म करने है। 

Hindi Motivational Stories - " ईमानदार बनो "

ईमानदार बनो  

     एक पेड़ पर चातक पक्षी अपने पिता के साथ रहता था। एक दिन चातक पक्षी को प्यास लगी उसने पिता के सामने कहीं से भी पानी पी लेने की जिद्द की। पिता ने उसे बहुत समझाया परन्तु पुत्र जिद्द पर अड़ा रहा। आखिरकार पिता ने उसे सागर का जल पी लेने की छुट्टी दे दी। चातक ने हिन्द महासागर की ओर उड़ान भरी। और जब रात हुआ तो रास्ते में एक घर के आँगन में नीम के पेड़ पर विश्राम करने लगा। कुछ देर बाद एक नौजवान ने लगभग 11. 30 बजे उस घर में प्रवेश किया। पेड़ के नीचे लेटे वृद्ध पिता ने देरी से आने का कारण पूछा ?  नौजवान ने बताया रास्ते में पैसे से भरा एक बटुआ मुझे मिला था और बैलगाड़ी में बैठे एक सज्जन तक पहुँचाने में चार घण्टे दौड़ना पड़ा। घटना सुनकर वृद्ध की आँखों में आंसू बहने लगे उसने पुत्र की पीठ थपथपाते हुए रुंधे गले से कहा - शाबास बेटा, आज तूने मेरा सिर ऊँचा कर दिया, चाहे जान चली जाये पर तुम अपनी ईमानदारी कभी भी मत छोड़ना जैसे कि चातक पक्षी मेघ के जल के अलावा कोई बूँद गले में नहीं उतारता। इसके बाद दोनों ने प्यार से भोजन किया और आँगन में ही सो गये। सारी घटना को पक्षी साक्षी हो सुनने वाले चातक पुत्र की आँखों की नींद उड़ गयी। उसके कानों में बार - बार वृद्ध के शब्द गूँज रहे थे -जैसे कि चातक पक्षी मेघ के जल के..... … । सुबह हुई और चातक -पुत्र उड़ चला, समूद्र की ओर नहीं पर अपने पिता के कोटर की ओर। जब उनके पिता ने अपने पुत्र को आते देखा तो पुत्र से पूछा तो उसने सारी घटना सुना दी। इस प्रकार हम सभी को भी उस नौजवान और चातक पक्षी की तरह बनकर रहना है। 

सीख  - चाहे कैसी भी बात हो या अपनी इच्छा के वश हो अपने वसुलो नहीं तोड़ना। इस के चाहे हमें मरना भी पड़े। ये इस कहानी से हम को सीख मिलता है। 

Hindi Motivational Stories - ' नीयत का प्रभाव '

  नीयत का प्रभाव 


           एक राजा अपने मन्त्री के साथ शिकार पर निकला। शिकारी की खोज में वे दोनों जंगल में आगे की और बढ़ते जा रहे थे। इतने में राजा को एक शिकार दिखाई पड़ा। और उस शिकार के पीछे भागते भागते राजा बहुत आगे निकल गए और मन्त्री का घोड़ा थोड़ा बिदक जाने के कारण पीछे रह गया। मन्त्री को सख्त प्यास लगी थी।  प्यास बुझाने के लिए वह इधर उधर देखने लगा कि कहीं से उसकी प्यास बुझ सके। थोड़ी ही देर के बाद उसे एक कुटिया दिखाई पड़ी। वह कुटिया एक किसान का था। और उसके अस पास की जमीन पर खेत की हुई थी, जहाँ बहुत ही सुन्दर भरपूर हरियाली वाले वृक्ष लगे हुए थे और उन पर बहुत ही सुन्दर रसीले पौष्टिक फल लगे थे, जिसे देखते ही खाने का मन हो आता था। मन्त्री जी अपनी प्यास बुझाने के लिए उस कुटिया के दरवाजे पर दस्तक दी , जिसे सुनकर उस कुटिया का मालिक किसान बाहर आया और आगन्तुक की तरफ देखते हुए बोला कहो महाराज, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ? मन्त्री जी ने कहा अभी तो मुझे बहुत प्यास लगी है अगर आप जल पिला दे तो बड़ी राहत मिलेगी। वह किसान अपने बाग में गया और वहाँ से रस निकला कर बड़े ही आदर भाव से फलों का रस भेंट किया। मन्त्री बहुत ही प्रसन्न हुए क्यों की एक तरफ तो उनकी प्यास बुझी दूसरी तरफ, रसीले तथा पौष्टिक पदार्थ भी खाने को मिले।

         परन्तु , मन्त्री थोड़ा लोभव्रति वाला व्यक्ति था इसलिए उसकी व्रति में उन फलों को देख लोभ भर गया। उसने किसान को धन्यवाद किया और वहाँ से चल पड़ा। मन्त्री का यह स्वभाव था कि वह सदा पैसा इकट्टा करने की उधेड़बुन में लगा रहता था। ताकि राजा का खजाना भरपूर हो तो राजा मन्त्री की वाह वाह करे और यही मन्त्री करता रहता था। कोई न कोई बहाना ढूंढ़कर 'कर' लगान और राजा का खजाना बढ़ाना। जब मन्त्री महल में पहुंचा और राजा की कुशलपूर्वक पहुँचने के बारे में समाचार लेने के लिए उनसे मिला तो उसने किसान और खेत का कहानी राजा को सुना दी। महाराज इस धरती पर इतने पौष्टिक और स्वादिष्ट फल निकलते है तो किसान को अच्छा आमदनी भी होती होगी। तो इस विषय में मेरे एक सुझाव है,, अगर हुज़ूर उसे पसंद करें तो हुकुमनामा जारी कर दे। राजा बोला ! मन्त्री जी आपकी राय, सलाह और सुझाव सदा ही अच्छे होते है उनसे सरकार को सदा फायदा ही होता है। अवश्य ही अब भी कोई लाभकारी राय ही होगी। कहिये ! क्या कहना चाहते है ? मन्त्री बोला - महाराज मेरा ऐसा विचार है कि जिस धरती  इतना स्वादिष्ट, रसीले, पौष्टिक, लुभावने फल उगते है तो जरूर किसान उनकी बिक्री से अच्छा आर्थिक लाभ लेता होगा। अंतः में ऐसा समझता हूँ कि यहाँ की धरती पर 'कर' अथवा लगान की रकम बढ़ा देनी चाहिए।
     
        राजा बोला, मन्त्री जी, आपने जो बात कहीं है वो मुझे भी उचित लगती है और हमें पसन्द है, इसलिए दरबार का हुक्म है कि ऐसा ही किया जाये। राजा की स्वीकृति प्राप्त होते ही मन्त्री ने हुक्मनामा जारी कर दिया।

        इस तरह से समय बीतता जा रहा था। कुछ वर्ष पश्चात मन्त्री जी राजा के साथ फिर से उसी कुटिया के सामने आ रुके अपनी प्यास बुझाने के लिये। किसान ने आगन्तुकों को आते देख अपने स्वभाव के अनुसार उन दोनों का आतित्थय किया। वह बाग में गया और एक छोटी-सी टोकरी में फल भर कर ले आया और उन फलों से रस निकालने लगा। परन्तु इस बार इतने सारे फलों से थोड़ा ही रस निकला। वह रस भी न तो पीने में स्वादिष्ट था और न ही पौष्टिक। मन्त्री जी को फलों के रस से इस बार आनन्द नहीं आया। मन्त्री जी देख रहे थे कि फल सूखे-सूखे से है, और न ही स्वादिष्ट थे। आखिर मन्त्री जी से न रहा गया। उन्होंने उस किसान से पूछ ही लिया। मन्त्री जी ने कहा - जमीदार जी शयद आपको याद नहीं, पिछली बार जब मैं आया था तब भी आपने मुझे रस पिलाया था परन्तु उन फलों के रस में और इन फलों के रस म में रात और दिन का अन्तर है। समझ में नहीं आया वहीं खेत, वही बीज है, उनका संरक्षण करने वाले भी वही है, फिर इनमे इतना अन्तर क्यों पड़ गया ?

       किसान ने दोनों की तरफ देखा और कहा, महाराज, मुझे आपका परिचय नहीं है कि वास्तव में आप कौन है ? इसलिये सच्ची बात बताने में मुझे कुछ संकोच हो रहा है। मन्त्री बोला, जमीदार जी, इस में संकोच करने की बात नहीं है। आप नि ; संकोच बताइये कि क्या बातहै ? किसान ने कहा सच बतलाऊं महाराज, हमारे राजा की नीयत बदल गयी है जिसके कारण ही यह सब हुआ। अच्छी फसल, अच्छी पैदावार देख राजा ने जमीन का लगान बढ़ा दिया। उसकी इस लोभवृत्ति के परिणाम स्वरूप यह सब हुआ। राजा ने जब यह सुना तो उसके पैरो तले से जमीन निकल गयी।  मन्त्री जी भी खिसियाई नज़रों से राजा की तरफ देख रहे थे। दोनों की बुद्धि में वास्तविकता समझ में आ गयी थी।

सीख - आदमी की नीयत जब बदल जाती है लोभ वृत्ति बढ़ जाती है तो ऐसा ही होता है। कुदरत की देन में अन्तर हो जाता है। इस लिये कहा जाता है।  'नीयत साफ तो मुराद हासिल '

Thursday, May 1, 2014

Hindi Motivational Stories - ' न रहेगा बॉस न बजेगी बाँसुरी '

न रहेगा बॉस न बजेगी बाँसुरी '


       शंकर और पार्वती साधु का वेश धारण कर एक लोटा दूध माँगने निकले। एक बहुत बड़े डेरी वाले के पास गए जिसकी सैकड़ो की तादाद में भैंसे थी। उसने दूध माँगने पर टका-सा जवाब दिया -अरे मोट्टे , जा तेरे जैसे निठल्ले को एक लोटा दूध देने लगा तो मेरी डेरी तो गई पानी में !

             साधु ने आशीर्वाद दिया कि बाबा तुझे और ज्यादा भैंसे का मालिक बनाए। इसके बाद शंकर और पार्वती एक साधु की कुटिया में गए और कहा - साधु महाराज एक लोटा दूध का सवाल है। भगवन की याद में तल्लीन साधु उठा और ताजा दूध निकाल कर प्रेमपूर्वक सारा दूध साधु को दे दिया। शंकर भोले ने एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा - बाबा करे तेरी एक गाय मर जाय। 

              पार्वती को बड़ा आश्चर्य हुए उसने झट पूछा - महाराज आप का यह कैसा वरदान और अभिशाप है। इस पर शंकर ने कहा, ' हे पार्वती, उस डेरी वाले को तो बाबा की याद आती ही नहीं और कभी-कभी कुछ क्षण मिलते भी होंगे तो अब उसे बाबा का नाम लेने का अवसर ही नहीं मिलेगा। क्यों की कुछ भैंसे बड़ा दिया है। और उसका पाप का घड़ा जल्दी भर जायेगा और वहाँ दण्ड का भागी बन जायेगा। और साधु जब बाबा की याद में बैठता है तो उसे बीच बीच में गाय के दूध, चारे या गाय के बच्चे की याद आती है। इसलिए जब गाय नहीं रहेगी तो वह निरंतर याद में मस्त रहेगा। और उसे उसका पुण्य का फ़ल मिलेगा। -  इसे कहते है - न रहेगा बॉस न बजेगी बाँसुरी। 

सीख - कभी कभी किसी मोड़ पर हम ये सोचते है की मैं तो अच्छा करता हूँ पर मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है। तब कही न कही हम अगर इस कहानी को याद करे तो जवाब मिल जायेगा।