Wednesday, April 30, 2014

Hindi Motivational Stories - 'अहंकार रहित व्यक्ति ही महान होता है'

       अहंकार रहित व्यक्ति ही महान होता है  


                      महाभारत का एक अनूठा प्रसंग है। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा भगवान् मैं ही आपका सब से बड़ा सेवक, भक्त और दानी हूँ। श्रीकृष्ण को आभास हो गया कि अर्जुन को इन गुणों का अहंकार हो गया। यह प्रसंग उस समय का है जब महाभारत का अंतिम दौर था। कौरव सेना धराशायी हो गई थी। युद्ध भूमि में कुछ योद्धा अन्तिम सांस लेने के लिए छटपटा रहे थे। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने साधु का वेश बनाया। और घायल अवस्था में पड़े कर्ण के पास गए और उससे कहा - हे कर्ण ! हम तुम्हारे पास कुछ दान लेने के लिए आये है। कर्ण ने कहा - महराज, मैं तो इस समय आपको कुछ नहीं दे सकता।  मैं तो यहाँ युद्ध भूमि में अन्तिम सांस ले रहा हूँ। साधु ने कहा  - अच्छा बच्चा, क्या साधु तुम्हारे द्धार से खाली जाएगा।

                       कर्ण ने कुछ विचार कर कहा - महाराज मेरे पास एक सोने का दाँत है, मैं उसे तोड़ कर आपको समर्पित करता हूँ। जब दाँत तोड़ कर साधु की तरफ बढ़ाया तो वह रक्त-रंजित था जिसे देखकर साधु ने कहा - छी-छी ; हम ऐसा दान नहीं लेते। साधु किसी का खून नहीं करता। तब दानवीर कर्ण ने अपना आखरी तीर छोड़ा और वह बाण दनदनाता हुआ मेघाच्छदित आसमान को चीरता चला गया। और पानी की धरा बह निकली। और दाँत को धो दिया और साधु ने उसे स्वीकार कर लिया। और ये देख कर अर्जुन का अहंकार चूर चूर हो गया और अर्जुन ने श्री कृष्ण से क्षमा माँगी।

सीख - इस प्रसंग से हमे अपने कई गुणों की कमी और अहंकार से दूर रहने की प्रेरणा मिलती है।


Tuesday, April 29, 2014

Hindi Motivational Stories - " सत्यता की जीत "

सत्यता की जीत 

         एक बार एक काफिला कहीं जा रहा था। उस काफिले में एक बालक था जिसका नाम था - विवेक। चलते चलते रस्ते में उस काफिले को लुटेरों ने घेर लिया। लुटेरे सब की तलाशी ले रहे थे ,छीन रहे थे ,लूट रहे थे। एक डाकू ने विवेक से पूछा - 'तेरे पास तो कुछ नहीं है रे.… ? क्यों नहीं है ?मेरे पास चालिस मुहरें है। विवेक ने कहा। कहाँ है ? मेरी सदरी में - सदरी में किधर ? अन्दर सिल राखी है मेरी माँ ने। और उसके बाद दूसरा डाकू पास आ गया। उसने भी वाही सवाल किया दोनों को उसने यही बात, इसी प्रकार बतायी। डाकुओ का सरदार भी उनके पास आ गया। लड़के ने तब भी यही कहा। सरदार ने अपने साथियों को आदेश दिया कि बालक की सदरी फाड़कर मुहरें निकाल कर देखों यह सच बोलता है या झूठ।

         सदरी फाड़ दी गई। चालिस मुहरें निकली। डाकू सरदार आश्चर्य से बालक का मुँह देखने लगा। उसने बालक से पूछा - तुमने हमें क्यों बताया था कि तुम्हारे पास चालिस मुहरे है! झूठ बोलकर बचा भी सकते थे। जी नहीं, बालक ने कहा - मेरी माँ ने चलते समय कहा था कि मैं किसी भी परिस्थिति में झूठ नहीं बोलूँ। मैं अपनी माँ की आज्ञा को नहीं टाल सकता। डाकू सरदार बालक का मुख देखता रहा गया। वह लज्जित  हो गया। उसने कहा - सच मुच तुम बड़े महान हो बालक ! अपनी माँ की आज्ञा का तुम्हें इतना ध्यान है जब की मैं तो खुदा के हुक्म को भी भुला बैठा हूँ, तुमने मेरी आंखें खोल दी है। और उस बालक ने उस डाकू की आँखों खोल दी उसी दिन से उसने डाके और लूट छोड़ दी और एक अच्छा आदमी बन गया। उसने बालक से ही प्रेरणा ग्रहण की। यह सत्य का प्रभाव था। सत्य की शक्ति थी। सत्य का तेज था।

सीख - इस तरह की कहानी अच्छी भी लगती है और सुनकर पढ़कर ख़ुशी होती है। तो क्यों न हम भी इस एक गुण सत्य को अपनाये और सत्य का तेज जीवन में अनुभव करे। अब इस झूठ की दुनिया में एक बार फिर सत्य का प्रकाश फैलाए।

Hindi Motivational Stories - " सेवा का फल - मेवा "

सेवा का फल - मेवा

            एक बार एक महात्मा जी निर्जन वन में भगवद्चिंतन के लिए जा रहे थे। तो उन्हें एक व्यक्ति ने रोक लिया। वह व्यक्ति अत्यंत गरीब था। बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटा पाता था। उस व्यक्ति ने महात्मा से कहा - महात्मा जी, आप परमात्मा को जानते है, उनसे बातें करते है। अब यदि परमात्मा से मिले तो उनसे कहियेगा कि मुझे सारी उम्र में जितनी दौलत मिलनी है , कृपया वह एक साथ ही मिल जाये ताकि कुछ दिन तो चैन से जी सकूँ। महात्मा ने उसे समझाया - मैं तुम्हारी दुःख भरी कहानी परमात्मा को सुनाऊंगा लेकिन तुम जरा खुद भी सोचो, यदि भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिल जायेगी तो आगे की ज़िन्दगी कैसे गुजारोगे ? किन्तु वह व्यक्ति अपनी बात पर अडिग रहा। महात्मा उस व्यक्ति को आशा दिलाते हुए आगे बढ़ा।

     इन्हीं दिनों में उसे ईश्वरीय ज्ञान मिल चूका था। महात्मा जी ने उस व्यक्ति के लिए अर्जी डाली। परमात्मा की कृपा से कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति को काफी धन - दौलत मिल गई। जब धन -दौलत मिल गई तो उसने सोचा - मैंने अब तक गरीबी के दिन काटे है, ईश्वरीय सेवा कुछ भी नहीं कर पाया।  अब मुझे भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिली है। क्यों न इसे ईश्वरीय सेवा में लगाऊँ क्यों की इसके बाद मुझे दौलत मिलने वाली नहीं। ऐसा सोचकर उसने लग भग सारी दौलत ईश्वरीय सेवा में लगा दी।

     समय गुजरता गया। लगभग दो वर्ष पश्चात् महात्मा जी उधर से गुजरे तो उन्हें उस व्यक्ति की याद आयी। महात्मा जी सोचने लगे - वह व्यक्ति जरूर आर्थिक तंगी में होगा क्यों की उसने सारी दौलत एक साथ पायी थी। और कुछ भी उसे प्राप्त होगा नहीं।  यह सोचते -सोचते महात्मा जी उसके घर के सामने पहुँचे। लेकिन यह  क्या ! झोपड़ी की जगह महल खड़ा था ! जैसे ही उस व्यक्ति की नज़र महात्मा जी पर पड़ी, महात्मा जी उसका वैभव देखकर आश्चर्य चकित हो गए। भाग्य की सारी दौलत कैसे बढ़ गई ? वह व्यक्ति नम्रता से बोला, महात्माजी, मुझे जो दौलत मिली थी, वह मैंने चन्द दिनों में ही ईश्वरीय सेवा में लगा दी थी। उसके बाद दौलत कहाँ से आई - मैं नहीं जनता। इसका जवाब तो परमात्मा ही दे सकता है।

   महात्मा जी वहाँ से चले गये। और एक विशेष स्थान पर पहुँच कर ध्यान मग्न हुए। उन्होंने परमात्मा से पूछा - यह सब कैसे हुआ ? महात्मा जी को आवाज़ सुनाई दी।

किसी की चोर ले जाये , किसी की आग जलाये 
धन उसी का सफल हो जो ईश्वर अर्थ लगाये। 

सीख - जो व्यक्ति जितना कमाता है उस में का कुछ हिस्सा अगर ईश्वरीय सेवा  कार्य में लगता है तो उस का फल अवश्य मिलता है। इसलिए कहा गया है सेवा का फल तो मेवा है। 

Monday, April 28, 2014

Hindi Motivational Stories - " सम्बन्धों से स्नेह होता है "

सम्बन्धों से स्नेह होता है 

    एक नव- विवाहित वर और वधू गाड़ी में यात्रा कर रहे थे। रस्ते में उनके साथ उनके पिताजी को भी शामिल होकर आगे की यात्रा करनी थी। जब गाड़ी उस स्टेशन पर आई तो वर का पिता भी वहाँ प्लेटफार्म पर आया हुआ था। गाड़ी रुकते ही वर तो सुराही लेकर पानी भरने चला गया। उसका पिता उस डिब्बे को ढूंढ रहा था जहाँ उसका बेटा और उसकी बहू बैठे थे। उसे बेटा तो दिखाई दिया नहीं तथा गाड़ी चलने का समय भी नजदीक आता जा रहा था, इसलिए उसने एक डिब्बे में धुसपैठ करने की कोशिश की। अब जहा बहू बैठी थी ठीक  उसी डिब्बे में  पिताजी गये। अब बात ये थी की ना बहू उन्हें जनती थी और ना ही ससुर बहु को जनते थे। और बहू तो घुँघट करती थी। और पहचान न होने के कारण बहू ने उस वृद्ध व्यक्ति को अन्दर प्रवेश नहीं करने दिया। डिब्बे के भीतर से दरवाजे की चिटखनी बन्द करते हुए वह कड़क कर बोली - यह बूढ़ा घुसता चला आ रहा है, इसे दीखता नहीं है कि यहाँ पहले ही जगह नहीं है जा दूसरे डिब्बे में कहीं घुस जा। बूढ़ा भी उस नारी के कटु शब्द सुनकर अशान्त हुआ। वह बोला - मालूम नहीं, यह किस मुर्ख की बहू है, यह तो बोलना ही नहीं जानती।

           इस प्रकार कहासुनी हो रही थी कि इतने में बेटा (वर ) पानी की सुराही भर कर आ पहुँचा। अपने पिता को देख कर वह उनके सामने झुका और उसने नमस्कार किया और झगड़ा देखकर दुःखी भी हुआ और शर्मिन्दा भी। उसने अपनी पत्नी से कहा - जानती नहीं हो यह मेरे पिताजी, अथार्त तुम्हारे ससुर साहब है....…। ओहो, तुमने इन्हें बैठने के लिए न कर दी ! यह तो बहुत पाप कर दिया है..  तब बेटे ने पिता से क्षमा माँगी और उस बहू ने भी पश्चाताप प्रगट किया। वृद्ध महोदय भीतर बैठ गये, अब उनके लिये जगह भी बन गयी थी। वह झगड़ा भी निपट गया तथा अब शान्ति, सम्मान और प्रेम की बाते होने लगी क्यों की अब सम्बन्धों का ज्ञान हो गया था।

सीख -  अज्ञान में मनुष्य दुःखी होता है। और ज्ञान से मनुष्य सुख का अनुभव करता है। इसलिए ज्ञानवान बनो। 

Sunday, April 27, 2014

Hindi Motivational Stories - " प्रभु स्नेह ! सर्व दुःखो से छूटकारा "

प्रभु स्नेह ! सर्व दुःखो से छूटकारा 

      शंकराचर्य घर-बार छोड़ कर धर्म का प्रचार करना चाहते थे। परन्तु उनकी माँ उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करती थी। शंकराचर्य ने आखिर एक युक्ति सोची। वह एक बार अपनी माँ के साथ नहाने नदी पर गये। कपड़े किनारे पर रखकर शंकराचर्य ने माँ को किनारे पर बैठने को कहा। और अचानक ही नहाते-नहाते शंकराचर्य जोर-जोर से चिल्लाने लगे। माँ - माँ। . ओ मैं मरा ! मगरमच्छ ने मेरा पॉव पकड़ लिया ! रे कोई बचाओ … बचाओ …  इधर माँ घबरा गयी और हाय-हल्ला करने लगी। शंकराचर्य ने कहा - माँ, एक भगवान ही बचा सकते है वरना आज मैं मरा, हाय मरा , अरे मगरमच्छ, माँ मैं तो मरा …कह दो मैंने अपना बच्चा भगवान को दिया। जल्दी कह दो माँ, एक सर्वशक्तिवान भगवान ही गज को ग्रह से बचाने की भाँति मुझे बचा सकते है … हाय.… मरा जल्दी करो माँ.…. . । जल्दी के कारण माँ ने कुछ सोचा नहीं गया। उसे तो बच्चे का जीवन प्यारा था उसने तुरन्त कह दिया - मैंने यह बच्चा भगवान को दिया। फिर वह कहने लगी - बचाओ भगवान बचाओ ! अब यह आप की शरण में है, यह आप ही का बच्चा है।

    शंकराचर्य तट की ओर बढ़ने लगे। माँ ने सोचा कि शायद मगरमच्छ ढीला छोड़ता जा रहा है। उसकी आशा बंध गयी। वह फिर दोहराने लगी - बचाओ भगवान् ! हे प्रभु बचाओ, यह आप का ही बच्चा है, इसे मैंने आपके शरण में सौपा है। इस तरह शंकराचर्य तट पर आ पहुँचे और बोले - माँ, तूने अच्छा किया, मुझे भगवान् के हवाले कर दिया, वर्ना तो आज बचने की कोई आशा नहीं थी। तूने बचा लिया मुझे, माँ.… …। माँ बोली - मैंने नहीं, भगवान् ने तुजे बचाया है शंकर, इस बात को कभी मत भूलना। शंकराचर्य बोले - ठीक कहती हो माँ ! तो अब से मेरा यह जीवन भगवान के ही हवाले है तुमने तो उसे सौप दिया था न, माँ ? उसी ने बचाया है न मुझे ? माँ ने अब समझा कि शंकराचर्य किस अर्थ में उसे यह कह रहा है। धार्मिक स्वाभाव की और श्रदालु माता होने के कारण उसने कह दिया - हाँ, हो तो तुम भगवान के ही। परन्तु क्या मुझे छोड़ जाओगे ? तब शंकराचर्य ने कहा - माँ, मैं छोड़ने की भावना से नहीं जा रहा, धर्म का प्रचार करने जा रहा हूँ, जिस भगवान ने मुझे बचाया है, नया जीवन दिया है, उसकी महिमा करने जा रहा हूँ।

सीख - धर्म का प्रचार या भगवान की महिमा करने के लिए घर वालों को राजी कर या स्वीकृती लेकर आगे निकालना है। 

Hindi Motivational Stories - " युक्ति से मुक्ति "

युक्ति से मुक्ति 

         एक बार पागलखाने में से एक पागल किसी तरह अपने कमरे से बाहर निकल गया  तीसरी मंजिल के कमरों के बाहर छत का जो हिस्सा थोड़ा बाहर निकला था, उस छज्जे पर जा खड़ा हुआ। और कुछ समय के बाद अचानक हस्पताल के  वार्डन ने जब देखा कि वह पागल अपने कमरे में नहीं है तो उसे ढूँढते - ढूँढते उसका ध्यान तीसरी मंजिल के बाहर की छज्जे पर गया। उसने सोचा कि अगर वह रोगी वहाँ से छलाँग लगा देगा या पागलपन में इस पर बेपरवाही से घूमेगा तो यह मर जायेगा। इस लिये कुछ अधिक सोचे बिना वह भागा और स्वयं भी वहाँ छज्जे पर जा पहुँचा। वहाँ पहुँचा कर उसने पागल से कहा - सुनाओ भाई, क्या हालचाल है ? यहाँ क्या कर रहे हो ? पागल बड़ी मस्ती से बोला - सोच रहा था कि जैसे पंक्षी पंख फैला कर उड़ते हुए नीचे उतरता है , मैं भी आज पंक्षी की तरह फर्श पर उतरूँ। ऐसा कहते हुए पागल ने मुँह को नीचे की ओर झुकाया और अपनी दोनों भुजाओं तथा हथेलियों को पीठ के पीछे ले जाकर पंख की तरह रूप दिया।

        वार्डन डर गया और चौका! उसने पागल को एक हाथ से तो थपथपाया और दूसरे हाथ से उसके हाथ को पकड़ लिया ताकि वह कहीं नीचे छलाँग न लगा दे। परन्तु उसने देखा कि पागल में बल बहुत है और वह उसे पकड़ कर रोक नहीं सकेगा। उसे यह भी डर था कि अगर वह पागल को जबरदस्ती रोकेगा तो पागल कहीं उसे ही नीचे धक्का न दे दे। परन्तु कुछ ही क्षण में कुछ हो जाने वाला था, इसलिये जल्दी ही कुछ करना था।

      अचानक वार्डन को एक युक्ति सूझी। उसने मुस्कुराते हुए और दोस्ताना तरीके से पागल को कहा - वाह भाई वाह, आप जो करना चाहते हो वह कोई बड़ी बात तो है नहीं। आप तो कोई बड़ा काम करके दिखाओ। और, मुझे विश्वास है कि आप विशेष काम कर सकते है। पागल ने कहा - अच्छा, सुनाओ दोस्त, अगर यह बड़ा काम नहीं है तो और क्या चाहते हो ? तब वार्डन ने कहा - ऊपर से नीचे तो कोई भी जा सकता है पर फर्श से अर्श की ओर एक पंक्षी की तरह उड़ कर दिखाओ। और पंख तो आपको लगे हुए है। चलो आओ, हम दोनों एक-साथ नीचे से ऊपर की ओर उड़ेंगे। यह कहते हुए वह पागल की अंगुली प्यार से पकड़ते हुए उसे कमरे के रस्ते से नीचे ले चला। इस प्रकार उसने पागल की भी जान बचाई और अपना कर्तव्य भी निभाया। अगर वह पागल से जोर-जबरदस्ती या हाथापाई करता तो दोनों ही धड़ाम से धराशायी होते। तो सच है कि युक्ति से ही दोनों की (मौत के मुँह से ) मुक्ति हुई।

सीख - बहुत बार हम बुरे फस जाते या परस्तिथी अनुकूल नहीं होती है। तब युक्ति से ही छुटकारा प् सकते है इस लिये युक्ति से मुक्ति कहा गया है। 

Saturday, April 26, 2014

Hindi Motivational Stories - " व्यक्ति की पहचान, बोल "

व्यक्ति की पहचान, बोल 

            एक बार एक जंगल में राजा, मंत्री और दरबान रास्ता भूल गये। तीनों ही एक दूसरे से बिछड़ गये थे। राजा इधर उधर देखता हुआ एक पेड़ के पास आया और उस पेड़ के नीचे एक फ़क़ीर को  बैठा हुआ देखा। (जो की अन्धा था ) राजा ने फ़क़ीर से पूछा हे प्रज्ञाचक्षु क्या यह रास्ता नगर की तरफ जायेगा ? हाँ राजन, यह रास्ता नगर की तरह जायेगा। और थोड़ी देर बाद मंत्री उसी जगह पर आया और फ़क़ीर से पूछा हे सूरदास क्या यह रास्ता नगर की ओर जायेगा। हाँ मंत्रीजी नगर की ओर ही जायेगा। और अभी अभी राजा जी इसी रास्ते से गये है। उसके बाद दरबान आता है और रोब से पूछता है अबे औ अन्धे, क्या यहाँ से कोई आगे गया है ? हाँ दरबान जी यहाँ से राजा और मंत्री जी आगे गये है। आगे जाने पर थोड़ी दूरी पर राजा, मंत्री और दरबान तीनों इकट्ठे मिल जाते है। और हरेक उस अन्धे फ़क़ीर के साथ हुई बात के बारे में एक-दूसरे को बताया। बिना आँखों के उसने कैसे पहचान लिया कि कौन राजा,कौन मंत्री, तथा कौन दरबान ? तब तीनों मिलकर फ़क़ीर के पास गये और अपना प्रश्न पूछा। तब फ़क़ीर ने कहा आप तीनों को वाणी तथा शब्दों से मैंने पहचान लिया कि कौन कौन है ? 'प्रज्ञाचक्षु' जैसा कर्ण मधुर शब्द राजा के मुख पर ही हो सकता है। सूरदास इतना मधुर नहीं तो इतना कठोर भी नहीं इसलिए मंत्री हो सकता है और अन्धे के सम्बोधन से तथा रोब से दरबान जी भी तुरन्त पहचाने गये।

     नाक, कान, हाथ-पाँव पर से मनुष्य जीतनी जल्दी नहीं पहचाना जा सकता लेकिन भाषा व्यक्ति की परख देती है। इस लिए किसी ने कहा है -

         वाणी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय। 
      औरों को शीतल कर, आपे ही शीतल होय।।

सीख - हर व्यक्ति से मीठा व्यव्हार रखो मीठा बोलो बोल ही हमारे सच्ची पहचान है। 

Hindi Motivational Stories - ' उन्नति में विघ्न रूप ईर्ष्या '

उन्नति में विघ्न रूप ईर्ष्या 

किसी मोहल्ले में कुछ बच्चे छोटे छोटे शीशे के मर्तबान लेकर बैठे थे। सभी मर्तबानों पर ढक्कन भी लगा हुआ था और हरेक बच्चे ने अपने-अपने मर्तबान में कोई-न- कोई छोटा मोटा जन्तु, कीड़ा, मच्छर कैद कर रखा था। वे देख रहे थे कि किस प्रकार ये जन्तु उछाल-उछाल कर मर्तबान से बाहर निकलने की कोशिश करते थे परन्तु ढक्कन बन्द होने के कारण निकल नहीं पाते थे। ज्यों ही वे जरा सा ढक्कन ऊपर करते, तत्क्षण ही वे उछाल कर बाहर निकल आते और वे बच्चे फिर उसे पकड़ कर अन्दर बन्द कर देते।  इस प्रकार ये बच्चे खेल में मस्त थे।

        परन्तु इन्हीं बच्चों के साथ एक बच्चा ऐसा भी था जिसके पास मर्तबान तो थे पर उसका ढक्कन नहीं था उसके मर्तबान में दो केकड़े थे। केकड़े मर्तबान के बीच में उछलते भी थे परन्तु ढक्कन न होने पर भी उस मर्तबान से बाहर नहीं आ पाते थे। सभी बच्चे इस दृश्य को देख हैरान हो रहे थे। वे सोच रहे थे कि उनके मर्तबान का ज्यों ही ढक्कन उठता है, तो मर्तबान में पड़ा जन्तु फ़ौरन उछाल कर बाहर आ जाता है परन्तु इसके मर्तबान पर तो ढक्कन भी नहीं है। फिर भी इसके केकड़े बाहर क्यों नहीं आ रहे। वे आपस में खुसर-पुसर करने लगे और कहने लगे कि ये केकड़े जरूर कमजोर होंगे तभी तो ढक्कन खुला होने पर भी ये बाहर नहीं आ रहे है। आखिर उन में से एक बच्चे ने उस बच्चे से पूछ ही लिया - क्या तुम्हारे ये केकड़े कमजोर है जो मर्तबान पर ढक्कन न लगा होने पर भी ये उससे बाहर नहीं आ पाते ? उसने जवाब दिया - अरे नहीं, ये तो बहुत बलवान है। परन्तु इनके बाहर न आ पाने का भी एक राज है। वह क्या राज है ? सभी बच्चे एक आवाज़ में बोल उठे। उसने कहा - बात यह है कि ये दोनों केकड़े एक दूसरे से बढ़कर कर ताकतवर है। परन्तु जब एक बाहर निकलने के लिए उछलता है तो दूसरा केकड़ा उसकी टाँग खीच लेता है और जब दूसरा केकड़ा छलाँग लगता है तो पहला उसकी टाँग खींच लेता है। और इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे की टाँग खींचते रहते है और दोनों में से कोई भी बाहर नहीं आ पाता।

      इस राज को सुनकर सभी खिलखिला कर हँस पड़े। ठीक ऐसी ही हालत आज के संसार की है। इस संसार में कई मनुष्य ऐसे है जिन्हें आगे बढ़ने का मौका ही नहीं मिलता मानो कि उनका ढक्कन बन्द है। अगर उन्हें मौका मिले तो वे बहुत जल्दी ही उन्नति कर सकते है परन्तु चाहे कोई भी वजह हो, उन्हें मौका नहीं मिलता है, वे उसके लिए प्रयास भी करते है परन्तु कुछ अन्य ईर्ष्यालु व्यक्ति उनकी टाँग खींच लेते है याने उनके प्रयास में वे कोई- न -कोई विघ्न डाल देते है। इससे न वे खुद आगे बढ़ पाते है न औरों को ही बढ़ने देते है। 

सीख - इस कहानी से यही सीख मिलता है कि हमें एक दूसरे से ईर्ष्या नहीं करना है एक दूसरे को आगे बढ़ने के लिए मदत करना है और हर एक की विशेषता को देख उन्हें उस अनुसार मौका देना है। तभी हम भी उन्नति की और बढ़ सकते है। 

Friday, April 25, 2014

Hindi Motivational Stories - ' कर्म अनुसार प्राप्ति '

कर्म अनुसार प्राप्ति 

          एक बार एक राजा एक व्यक्ति के काम से खुश हुआ। उसने उस व्यक्ति को अपने पास बुलाकर कहा कि तेरी मेहनत, वफादारी व हिम्मत से मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए मैं आज तुझे कुछ इनाम देना चाहता हूँ। फिर उसने कहा कि काम तो चाहे तुमने लगभग 500 रुपये जितना किया है पर मैं तुम्हें कुछ इससे अधिक देना चाहता हूँ। वह व्यक्ति बहुत खुश हो रहा था। और राजा ने उससे कहा, आज रात तुम मेरे व्यक्तिगत कमरे में ही गुजरना। वहाँ सब प्रकार का कीमती सामान है, तुम्हे जो चाहिए, वह उसमें से ले लेना परन्तु सुबह 7 बजे कमरा खाली कर देना।

        व्यक्ति का तो ख़ुशी का ठिकाना न रहा। वह अपने भाग्य को सराहने लगा और सोचने लगा कि सचमुच, भगवन जब देता है तो छप्पर फाड़कर ही देता है। और वह व्यक्ति रात के ठीक 9 बजे राजा के कमरे में प्रवेश किया। अनेक प्रकार की आलीशान वास्तुअों, कीमती सामान को देख कर उसकी आँखे चमक उठी।वह एक- एक चीज़ को बडे ध्यान से देखता और मन में सोच लेता कि वह यह चीज भी अपने साथ ले जाएगा, वो भी ले जाएगा और इस प्रकार उसने कई वस्तुअों को अपने साथ ले जाने की योजना बना ली। और फिर मन-ही-मन मुस्कुराते हुए सामने बिछे हुए नरम-नरम गद्दों वाले बिस्तर की ओर चल दिया। उसने सोचा कि सारा दिन बहुत काम करके वह थक गया है। तो क्यों न कुछ देर सुस्ता ही लिया जाय और उसके बाद सब सामान इकट्ठा कर सुबह होते ही सामान सहित कमरे से बाहर चले जाएंगे।

          यह सोचकर वह उस पलंग पर जाकर चैन से लेट गया। थका हुआ तो था ही, और कुछ ही क्षणों में उसे निद्रा देवी ने घेर लिया। वह सोया रहा, सोया रहा और इतना सोया रहा कि सुबह के 7 बज गए। उसी वक्त राजा का नौकर ने आकर दरवाजा खटखटाया। वह व्यक्ति आँखे मलता हुआ हड़बड़ा कर उठ बैठा। उसने जल्दी से बिस्तरे से उठ कर दरवाजा खोला। नौकर ने कहा समय पूरा हो गया है। उस व्यक्ति ने घड़ी की तरफ देखा और कमरे से बाहर निकलते वक्त सामान तो बाँधकर नहीं रखा था सो एक टेबल लैंप को ही खींचता हुआ ले आया। और किसी से पूछने पर मालूम हुआ कि उस लैम्प की कीमत कुल 500 रुपये ही है। जितना उस व्यक्ति ने काम किया था, उसको उतनी ही प्राप्ति हो गई।

         जरा सोचिये सारा कमरा, कीमती सामान, आलीशान वस्तुअों से भरा उस व्यक्ति के समाने थी , वह उस में से जितना चाहे उतना ले सकता था परन्तु तकदीर के बिना मनुष्य को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। चाहे कारण कोई भी हो जैसे नींद का। परन्तु याद रखना तक़दीर भी अपने ही कर्मो से बनती है। श्रेष्ठ कर्म करने वालो की ही श्रेष्ठ तक़दीर बनती है। और निकृष्ट कर्म या खोटे कर्म करने वाले की खोटी तक़दीर। जैसे उस व्यक्ति ने 500 रुपये का काम किया था और 500 रुपये की ही उसको चीज़ मिल गई।

सीख - मनुष्य को चाहे कुछ भी हो अपने कर्मो पर सब से पहले पूरा ध्यान देना है। कर्म से ही तक़दीर बनती है।

          

Thursday, April 24, 2014

Hindi Motivational Stories - " महाराज रघु का दान "

महाराज रघु का दान 

                        महाराज रघु अयोध्या के सम्राट थे। वे भगवन श्री राम के पितामह थे। उनके नाम से ही उनको  क्षत्रिय रघुवंशी कहे जाते है। एक बार महाराज रघु ने एक बड़ा यज्ञ किया। और जब यज्ञ पूरा हुआ तो महराज ने ब्राह्मणों तथा दीन -दुःखियों को अपना सब धन दान कर दिया। महराज इतने बड़े दानी थे कि उन्होंने अपना आभूषण, सुन्दर वस्त्र और सब बर्तन तक दान में दे दिया और खुद साधारण वस्त्र पहनकर रह गये। और वे मिट्टी के बर्तनों से काम चलाने लगे। यज्ञ में सब कुछ दान करने के बाद कुछ ही समय बाद उनके पास वरतन्तु ऋषि के एक शिष्य कौत्स नाम का ब्राह्मण कुमार आये। महाराज ने उनको प्रणाम किया, आसन पर बैठाया और मिट्टी के गडुवेसे उनके पैर धोये। स्वागत-सत्कार किया और ब्राह्मण जब जाने लगा  तो महारज ने पूछा - ' आप मेरे पास कैसे पधारे है ? मैं क्या सेवा करूँ ?

                 कौत्स ने कहा - ' महाराज ! मैं आया तो किसी काम से ही था: किन्तु आपने तो सर्वस्व दान कर दिया है। मैं आप - जैसे महादानी उदार पुरुष को संकोच में नहीं डालूँगा। ' लेकिन महाराज रघु ने नम्रता से प्रार्थना की - ' आप  अपने आने का उदेश्य तो बता दें। ' तब कौत्स ने बताया कि उनका अध्ययन पूरा हो गया है। अपने गुरुदेव के आश्रम से घर जाने से पहले गुरुदेव से उन्होंने गुरुदक्षिणा माँगने की प्रार्थना की। गुरुदेव ने बड़े स्नेह से कहा - 'बेटा ! तूने यहाँ रहकर जो मेरी सेवा की है, उससे में बहुत प्रसन्न हूँ। मेरी गुरुदक्षिणा तो हो गयी। तू संकोच मत कर। ख़ुशी से घर जा। ' लेकिन कौत्स ने जब गुरुदक्षिणा देने का हठ कर लिया तब गुरुदेव को क्रोध आ गया। और वे बोले - ' तूने मुझसे चौदह विधाएँ पढ़ी है, इस लिए हर एक विधा के लिए एक करोड़ सोने की मोहरें लाकर दे। ' और वाही गुरुदक्षिणा के चौदह करोड़ सोने की मोहरें लेने कौत्स अयोध्या आये थे।

          महाराज ने कौत्स की बात सुनकर कहा - 'जैसे आपने यहाँ तक आने की कृपा की है, वैसे ही मुझ पर थोड़ी- सी कृपा और करें। तीन दिन तक आप मेरी अग्निशाला में ठहरो। रघु के यहाँ से एक ब्राह्मण और वो भी कुमार निराश लौट जाय, यह तो बड़े दुःख और कलंक की बात होगी। मैं तीन दिन में आपकी गुरुदक्षिणा का कोई - न - कोई प्रबन्ध अवश्य कर दूँगा। ' कौत्स ने महाराज की आज्ञा पर अयोध्या में रुकना स्वीकार कर लिया।

          महाराज ने अपने मन्त्री को बुलाकर कहा - ' यज्ञ में सभी सामन्त नरेश कर दे चुके है। उनसे दुबारा कर लेना न्याय नहीं है। लेकिन कुबेर जीने मुझे कभी कर नहीं दिया। वे देवता है तो क्या हुआ, कैलाश पर रहते है। इस लिए पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट को उन्हें कर देना चाहिये। मेरे सब अश्त्र-शस्त्र मेरे रथ में रखवा दो। मैं कल सबेरे कुबेर पर चढ़ाई करूँगा। आज रात मैं उसी रथ में सोऊँगा। और जब तक ब्राह्मण कुमार को गुरुदक्षिणा न मिले, मैं राजमहल में पैर नहीं रख सकता। ' उस रात महाराज रघु रथ में ही सोये।

            जैसे ही सुबह हुई बड़े सबेरे उनका कोषाध्य्क्ष उनके पास दौड़ा आया और कहने लगा - ' महाराज ! खजाने का घर सोने की मोहरों से ऊपर तक भरा पड़ा है। कल रात में उसमें मोहरों की वर्षा हुई है। ' महाराज समझ गये कि कुबेर जी ने ही मोहरों की वर्षा की है। महाराज ने सब मोहरों का ढेर लगवा दिया और कौत्स से बोले - ' आप इस धन को ले जाएं !'  कौत्स ने कहा - ' मुझे तो गुरुदक्षिणा के लिये चौदह करोड़ मोहरें चाहिये। उससे अधिक एक मोहरा भी मैं नहीं लूँगा। ' महाराज ने कहा - ' लेकिन यह धन आपके लिए आया है। और ब्राह्मण का धन हम अपने यहाँ नहीं रख सकते। आपको ही ये सब लेना पड़ेगा। ' तब कौत्स बड़ी दृढ़ता से कहा - ' महाराज! मैं ब्राह्मण हूँ। धन का मुझे करना क्या है। आप इस का चाहे जो करें, मैं तो एक मोहरा अधिक नहीं लूँगा। ' और कौत्स चौदह करोड़ मोहरें लेकर चले गये। शेष मोहरें महाराज रघु ने दूसरे ब्राह्मणों को दान कर दिया।

सीख - इस कहानी से हमें सीख मिलता है की सच्चे ब्राह्मण की निशानी है। सदा जीवन उच्च विचार उसे धन मोहरें आदि से कोई लेना देना नहीं है। उसके लिए तो ये कांकड़ पत्थर  है और ब्राह्मण के पास तो इस से बड़ा ज्ञान का खजाना है। ज्ञान का धन है सब से बड़ा तो हम सब को पहले ज्ञान धन को ग्रहण करना चाहिये।


Wednesday, April 23, 2014

Hindi Motivational Stories - " सेवा ही सर्वोत्तम "

सेवा ही सर्वोत्तम 

               एक बार अकबर अपने राज दरबार में आते ही सभा से तीन प्रश्न किये और कहा कि जो इनका ठीक उत्तर देगा उसको काफी बड़ा इनाम मिलेगा। प्रश्न कुछ इस तरह के थे।

१ )  सब से अच्छा फूल कौन सा है ?
२ ) सब से बड़ा राजा कौन -सा है ?
३ ) सब से अच्छा बेटा किसका है ?

            दरबार में जो बुद्धिमान लोग थे, उन्होंने उत्तर देने की कोशिश की। किसी ने कहा सब से अच्छा फूल गुलाब का है, किसी ने कहा कमल का फूल सब से अच्छा है। और दूसरे प्रश्न के उत्तर में किसीने राजा के बारे में अकबर का नाम बताया और नहीं बताते तो उन्हें ये भी डर था की कहीं अकबर नाराज न हो जाये। इस तरह अब तीसरे प्रश्न के उत्तर में लगभग सभी ने यह उत्तर दिया की महाराज का सुपुत्र ही सब से अच्छा है। और ये भी डर था की कहीं राजकुमार को ये मालूम हो जाय की अमुक व्यक्ति ने अमुक महाराजा के सुपुत्र को अच्छा बताया है तो राजकुमार से कही दुश्मनी न हो जाये।

          राजा इन उत्तरों से संतुष्ट नहीं थे, और वे जान भी गए की ये सब प्रशंसा करने वाले है और उनके अन्दर डर भी था। और उत्तर में कुछ नवीनता नहीं और न ही कोई अच्छा विचार है। और जैसे हमेशा होता है पहले सब दरबारियों को मौका मिलता है और जब अकबर संतुष्ट नहीं होते है तो वो खुद बीरबल की तरफ इशारा करते है और फिर आज भी वाही हुआ अकबर ने बीरबल से मुस्कुराते हुए कहा अब आप ही बताइये जनाब इनका सही जवाब क्या है ? और अब सब की नज़र बीरबल की ओर थी।

       बीरबल ने मर्यादा और शिष्टाचार पूर्वक महाराज को संबोधित करके कहा, महाराज ! यों तो गुलाब व कमल अपनी- अपनी जगह पर सभी फूलों में अच्छे भी है और बड़े भी परन्तु मेरे विचार से सब से बड़े व अच्छे फूल रूई के फूल है क्यों की उन से जो हमें रुई मिलती है और उससे जो कपड़े बनते है, उन्हें पहनकर एक व्यक्ति न केवल स्वयं को सर्दी- गर्मी से बचाता है बल्कि एक सुसभ्य इन्सान दिखाई देता है। उनके बिना तो आम इंसान हैवान की तरह नंग-धडंग दिखाई देता है। आपका जो दूसरा प्रश्न है , उसके विषय में मेरा मन्यता ये है की राजाओं में सब से बड़े इंद्र है क्यों की वे वर्षा करते है। यदि वे वर्षा न करें तो खेती नहीं होंगी।  खेती नहीं होंगी तो अनाज नहीं मिलेगा और अनाज नहीं मिलेंगे तो जनता भूखों मरेंगी। और अब रह तीसरा प्रश्न सब से अच्छा बेटा किसका है ? मेरे विचार से सब से अच्छा बेटा गाय का होता है क्यों की वह हल न चलाए तो खेती नहीं होंगी। बेचारा घास और भूसा खाता है और वह भी अपनी पैदावार में से और मेहनत करके प्रजा का पेट भरने की सेवा करता है। बीरबल के इन उत्तरों को सुनकर राजा बहुत खुश हुए और राज दरबार के सभी लोग भी।

सीख - इस कहानी से हमें ये सीख मिलता है कि सेवा करने वाला ही सब से बड़ा और अच्छा होता है। इस लिए सेवा करते रहो चाहे छोटा हो या बड़ा पर करते रहो।


Hindi Motivational stories - " क्षमाशीलता "

क्षमाशीलता 

                   एक राजा स्वाभाव से ही न्याकारी था और क्षमाशील भी। वह अपराधियों को दण्ड भी देता था। परन्तु किसी की क्षमता और परिस्तिथि को देखकर उसके दण्ड को हल्का भी कर देता या उसे क्षमा भी कर देता था। इस प्रकार प्रजा उस राजा के गुणों और कर्तव्यों से सन्तुष्ट थी और स्वम् को शौभाग्यशाली मानती थी कि उन्हें एक ऐसे राजा की छत्रछाया प्राप्त हुई है।

               एक बार राजा के कोषाध्य्क्ष और लेखाधिकारी ने जब पिछले हिसाब-किताब की जाँच की तो उन्हें मालूम हुआ कि एक कर्मचारी ने १००० रुपये का ऋण लिया हुआ है जो उसने अभी तक चुकता नहीं किया है और चुकता करने की अवधि पूरी हो गयी है। लेखाधिकारी ने सोचा पहले उस कर्मचारी से बात करते है और फिर बात आगे देखेंगे, तो लेखाधिकारी उस कर्मचारी से मिला और सारी बात बता दी आपका ऋण चुकाने का समय समाप्त हो गया है और अगर रकम नहीं चुकाया तो राजा के सामने आपको पेश होना होगा। कर्मचारी सारी बात समझ रहा था की राजा के सामने पेश होना माना दण्ड के साथ कारावास भी हो सकता है पर कर्मचारी लाचार और मजबूर था ये बात अधिकारी भी समझ गया था। और बहुत कोशिश करने के बाद अधिकारी को ये पक्का हुआ की कर्मचारी असमर्थ है तो वह कर्मचारी से कहा अब आपको राजा के सामने पेश किया जायेगा। और कुछ दिन बाद निश्चित दिन और समय पर कर्मचारी को राजा के आगे पेश किया गया। और लेखाधिकारी राजा को कर्मचारी की सारी कहानी सुनाने लगा तब राजा हर बात को ध्यान से सुन रहा था और कर्मचारी की तरफ देख भी रहा था। और कर्मचारी गर्दन नीचे झुकाए, आँखे धरती पर गाड़े चुपचाप खड़ा था। एक ओर तो उसे लज्जा आ रही थी कि आज वह अपने पैसे नहीं चूका सकता, दूसरी ओर वह अपनी विवशता के कारण मायूस था, तीसरी ओर वह इस भय से अशान्त था कि न जाने अब महाराज क्या दण्ड सुनायेंगे।

         जब लेखाधिकारी सारा किस्सा सुना रहा था तब राजा उस कर्मचारी के हाव-भाव और उसकी रूपरेखा को ध्यान से देख रहा था। राजा को ऐसा महसूस हुआ कि यह कर्मचारी लाचार है, यह बल-बच्चेदार आदमी है, कोई दुःख की घड़ी आने पर इसने ऋण तो ले लिया परन्तु वेतन से बचत न रहने पर यह उतने समय में पैसे नहीं चूका पाया जितने समय में चुकाने की इससे आशा की थी। इस सारी स्तिथि को भांपकर राजा ने यह हुक्म दिया कि यह कर्मचारी पैसा चुकाने में असमर्थ मालूम होता है वर्ना इसकी नीयत में दोष नहीं है। अंतः इसे माफ़ किया जाता है और जो रकम इसने ली थी, उसे ऋण की बजाय राज दरबार से सहायता के रूप में शुमार किया जाए और इसके बाद इस किस्से को समाप्त किया जाए। राजा के ऐसा हुक्म सुनाने के बाद ऐसा लग रहा था कि जैसे कर्मचारी में फिर से जान आ गई हो। अब उसके चेहरे पर ख़ुशी व शुक्रिया की रेखाएँ उभर आई थी और उसने वहाँ से प्रस्थान किया। वहाँ से छूटने के बाद कर्मचारी सीधे ही एक व्यक्ति के पास गया जिसने १०० रूपया उस कर्मचारी से उधार लिया था। उस व्यक्ति के पास पहुँचकर कर्मचारी अपने आने का प्रयोजन बताया। उसने उस व्यक्ति से कहा १०० रूपया वापस कर दे। उस व्यक्ति ने कहा कि उसकी पत्नी बीमार है और इस परस्तिथि में वह उसका ऋण चुकाने में असमर्थ है। पर कर्मचारी उसको बार बार कहने लगा मुझे आज ही मेरे पैसे चाहिये। और व्यक्ति कर्मचारी से क्षमा याचना करने लगा पर कर्मचारी उसकी एक भी न सुनी और उस पर एक जोर का प्रहार किया ताकि वो व्यक्ति डर कर कही से पैसा ल दे। लेकिन जैसे ही प्रहार हुआ वह व्यक्ति चिल्लाने लगा उसे चोटे आई और आखिर यह किस्सा राजा के पास पहुँच गया।

          राजा ने सारी कहानी सुनी और कहा कर्मचारी से मैंने तो तुम पर दया करके तुम्हारे १००० रुपये माफ़ कर दिये थे, तुम ऐसे निर्दयी निकले कि तुम अपने ऋणी को १०० रुपये भी माफ़ नहीं कर सके। अब में यदि तुम पर १००० रुपये का दण्ड लगाऊ और कारावास में कड़ा दण्ड भी दूँ, तब तुम्हारा क्या हाल होगा ? यह सुनकर उस कर्मचारी के लज्जा से पसीने छूट गए और उसे अपने कर्म पर बहुत अफ़सोस हुआ।

सीख - हम देखते है कि इस कलयुग में प्राय : हरेक मनुष्य का दूसरों से ऐसा ही व्यवहार है। परमपिता न्यायकारी भी है और क्षमाशील भी। वह गुणवान भी है और कल्याणकारी भी।  मनुष्य पर अपने कर्मो का भरी ऋण चढ़ा हुआ है। और यदि सच्चे मन से ईश्वर से माफ़ी मांग ले तो दयालु परमात्मा उसे क्षमा भी कर दे। परन्तु अफ़सोस है कि वह अपनी १००० भूलों को क्षमा कराना चाहता है और दूसरे किसी की एक भूल भी माफ़ नहीं करना चाहता है। इस लिए हमें खुद को क्षमा करना है और साथ साथ दूसरे को क्षमा कर देना है। तब ईश्वर से सच्ची क्षमा मिलेंगी।

Monday, April 21, 2014

Hindi Motivational Stories - ' सत्यवादी महाराज हरिश्चन्द्र '

सत्यवादी महाराज हरिश्चन्द्र

               सूर्यवंश में त्रिशंकु बड़े  प्रसिद्ध राजा हुए है। उनके पुत्र हुए महाराज हरिश्चंद्र। महाराज हरिश्चन्द्र  इतने प्रसिद्ध सत्यवादी और धर्मात्मा थे कि उनकी कीर्ति से देवताओं के राजा इन्द्र को भी डाह होने लगी। और एक बार इंद्र ने महर्षि विश्वामित्र को हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने के लिए उकसाया। इन्द्र के कहने से महर्षि विश्वामित्रजी ने राजा हरिश्चन्द्र को योग बल से ऐसा स्वप्न दिखलाया कि राजा स्वप्न में ऋषिको सब राज्य दान कर रहे है। दूसरे दिन महर्षि विश्वामित्र अयोध्या आये और अपना राज्य माँगने लगे। स्वप्न में किये दानको भी राजा ने स्वीकार कर लिया और विश्वामित्र को सारा राज्य दे दिया।

             महाराज हरिश्चन्द्र पृथ्वी भर के सम्राट थे। अपना पूरा राज्य उन्होंने दान कर दिया था। अब दान की हुई भूमि में रहना उचित न समझकर स्त्री तथा पुत्र के साथ वे काशी आ गये, क्यों की पुराणों में यह वर्णन है कि काशी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अंतः वह पृथ्वी में होने पर भी पृथ्वी से अलग मानी जाती है।
अयोध्या से जब राजा हरिश्चन्द्र चलने लगे तब विश्वामित्र ने कहा - ' जप, तप, दान आदि बिना दक्षिणा दिये सफल नहीं होते। तुमने इतना बड़ा राज्य दिया है तो उसकी दक्षिणा में एक हज़ार सोने की मोहरें और दो। '
राजा हरिश्चन्द्र के पास अब धन कहाँ था। राज्य - दान के साथ राज्य का सब धन तो अपने - आप दान हो चूका था। ऋषि से दक्षिणा देने के लिये एक महीने का समय लेकर वे काशी आये। काशी में उन्होंने अपनी पत्नी रानी शौव्या को एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया। राजकुमार रोहिताश्व बहुत छोटा बालक था। प्रार्थना करने पर ब्राह्मण ने उसे अपनी माता के साथ रहने की आज्ञा दे दी। स्वम् अपने को राजा हरिश्चन्द्र एक चाण्डाल के हाथ बेच दिया और इस प्रकार ऋषि विश्वामित्र को एक हज़ार मोहरें दक्षिणा में दी।

            महारानी शौव्या अब ब्राह्मण के घर में दासी का काम करने लगी। और चाण्डाल के सेवक होकर राजा हरिश्चन्द्र श्मशान घाट की चौकी दारी करने लगे। वहाँ जो मुर्दे जलाने को लाये जाते, उन से कर लेकर तब उन्हें जलाने देने का काम चाण्डाल ने उन्हें सौंपा था। एक दिन राजकुमार रोहिताश्व ब्राह्मण की पूजा के लिये फूल चुन रहा था और उस समय उसे साँप ने काट लिया। साँप का विष झटपट फ़ैल गया और रोहिताश्व मरकर भूमि पर गिर पड़ा। अब उसकी माता महारानी शौव्या को न कोई धीरज बाँधने वाला था और न उनके पुत्र की देह श्मशान पहुँचाने वाला था। वो रोती - बिलखती पुत्र की देह को हाथों पर उठाये अकेली रात में श्मशान पहुँची। वे पुत्रकी देह को जलाने जा रहीं थी कि हरिश्चन्द्र वहाँ आ गये और मरघट का कर माँगने लगे। बेचारी रानी के पास तो पुत्र की देह ढकने को कफ़न तक नहीं था। उन्होंने राजा को स्वर से पहचान लिया और गिड़गिड़ाकर कहने लगी - ' महाराज ! यह तो आपका ही पुत्र मरा पड़ा है। मेरे पास कर देने को कुछ नहीं है। राजा हरिश्चन्द्र को बड़ा दुःख हुआ ; किंतु वे अपने धर्म पर स्थिर बने रहे। उन्होंने कहा - 'रानी ! मैं यहाँ चाण्डाल का सेवक हूँ। मेरे स्वामी ने मुझे कह रखा है कि बिना कर दिये कोई यहाँ मुर्दा न जलाये। मैं अपने धर्म को नहीं छोड़ सकता। तुम मुझे कुछ देकर ही पुत्र की देह जलाओ। '

           रानी फुट-फुटकर रोने लगी और बोली - ' मेरे पास तो यही एक साड़ी है, जिसे मैं पहने हूँ, आप इसी में से आधा ले लें। ' जैसे ही रानी अपनी साड़ी फाड़ने चली, वैसे ही वहाँ भगवन नारायण, इन्द्र, धर्मराज आदि देवता और महर्षि विश्वामित्र प्रगट हो गये। महर्षि विश्वमित्रने बताया कि कुमार रोहित मरा नहीं है। यह सब तो ऋषि ने योग माया से दिखलाया था। राजा हरिश्चन्द्र को खरीदनेवाले चण्डालके रूप में साक्षात् धर्मराज थे।सत्य साक्षात् नारायण स्वरूप है।और तब सत्य के प्रभाव से राजा हरिश्चन्द्र महारानी शौव्या के साथ भगवन के धाम को चले गये।और यहाँ  महर्षि विश्वामित्र ने राजकुमार रोहिताश्व को अयोध्या का राजा बना दिया।

                                    सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के सम्बन्ध में यह दोहा प्रसिद्ध है -
"चन्द्र टरै सूरज टरै , टरै  जगत व्यवहार। 
पै  ढूढव्रत हरिश्चन्द्र को , टरै  न सत्य विचार।।"

सीख - सत्य एक ऐसा गुण है जिसका कोई पर्याय नहीं है। इस लिए कहा गया है सत्य ही शिव है शिव ही सुन्दर है और सत्य ही ईश्वर है। तो आओ हम मिलकर इस सत्य का प्रयोग करें और जीवन को सफल बनाये। 

Hindi Motivational Stories - शरणार्थी की रक्षा

' शरणार्थी की रक्षा '

     एक बार एक राजा बगीचे में बैठे हुए अपनी राजधानी के बारे में , राज - काज के बारे में मंत्रियों से बातें कर रहे थे। और कुछ देर बाद आकाश से किसी पक्षी की करुणा ध्वनि सबके कानों में गुँज गई। सबका ध्यान बर बस ऊपर उस ध्वनि की तरफ गया। देखते है एक घायल कबूतर उड़ता हुआ आ रहा था उन्हीं की ओर।  उसके पंख लड़खड़ा रहे थे, लग तो ऐसा रहा था मानो वह गिर पड़ेगा। सारा शरीर रक्त से भीगा था। 

      वह उड़ता हुआ नीचे उतरा और धीरे से केवल राजा की ही गोद में जाकर गिर पड़ा। इतने में थोड़ी ही देर बाद एक भयंकर बाज उड़ता आया। जब उसने अपने शिकार को राजा की गॉड में देखा तो तेजी से उसने एक झपटटा मारा, कबूतर को दबोचने के लिए। परन्तु कबूतर तो राजा की गोद में ऐसे छिप गया था जैसे एक अबोध शिशु माँ की गोद में जाने के बाद निश्चिंत हो जाता हो। बाज देखकर उड़ा और राजा के सर से होकर गुजरा। ऐसा लगा माना वह राजा को अपनी हुक जैसे पैनी चोंच मार देगा ऐसा करते हुए दूसरे पेड़ पर जा बैठा। 
          यह सब थोड़ी ही देर में घटित हो गया। सभी इस खेल को कौतुहल पूर्वक देख रहे थे। यह समजते देर न लगी कि यह कबूतर इस बाज का शिकार है। एक मंत्री बोला - 

मंत्री - राजन यह कबूतर इस बाज का भोजन है। इसे आप छोड़ दे, नहीं तो यह बाज हमारा पीछा छोड़ने वाला नहीं है। 

राजा - नहीं ! में इस शरण में आये कबूतर को नहीं छोड़ना। इस भोले पक्षी ने किसी का क्या बिगाड़ा। इस छोटे प्राणी ने मुझ पर विश्वास किया। अपने को मेरे समर्पण किया है आख़िर क्यों ? पक्षी तो इन्सानों से डरते है। परन्तु इसने अपने को मेरे हवाले किया है। इसके प्राणों की रक्षा करना मेरा धर्म है। 

दूसरा मंत्री - परन्तु महाराज ! एक की रक्षा दूसरे की हत्या, यह कैसा न्याय ?
राजा - वह कैसे ?इससे दूसरे की हत्या कैसे ?

मंत्री - वह इस प्रकार कि आप कबूतर की रक्षा तो कर लेंगे परन्तु उस बाज की रक्षा कौन करेगा ? क्यों कि यह उसका भोजन है। अंतः वह मरेगा या नहीं ?

राजा - ठीक है। मैं उसके लिए उसका भोजन मंगवा देता हूँ। इससे दोनों की रक्षा होगी। यह कहकर राजा ने बाज के लिए तरह तरह के मॉस मंगवाये। और फिर मॉस डाले गये बाज के सामने, परन्तु बाज ने उसकी ओर देखा तक नहीं। वह तो टकटकी बाँधे कबूतर को देख रहा था। 

तीसरा मंत्री - महाराज ! इस कबूतर को आप छोड़ेंगे तभी यह दुष्ट बाज जायेगा अन्यथा नहीं। यह तो कबूतर को ही मारकर खाना चाहता है। 

राजा - नहीं, मैं इस कबूतर को किसी भी कीमत पर नहीं जाने दूंगा। चाहे इस के लिए मुझे अपना मॉस ही बाज को क्यों ना देना पड़े। यह कहकर राजा ने अपनी तलवार से अपनी जाँघ का मॉस काटकर बाज के सामने डाल दिया। सारे दरबारी घबरा उठे और बाज भी सब देखकर राजा का इरादा समझ गया था, और बाज उड़ गया। उस दयालु राजा ने केवल एक पक्षी के समर्पण भाव को देखकर ही अपनी जान जोखिम में डाली और उस समर्पित हुए पक्षी की रक्षा की।  

सीख -  दिल से समर्पण हो जाने से उसका फल भी अवश्य मिलता है इस लिए किसी ने कहा है सच्चा सुख है समर्पण में !

Sunday, April 13, 2014

A Play - Ignite the Youth ( Drama)

पात्र -  ( क्रिश , क्रिश के पिता , जादू , भारत माता , पांच युवा सदाचारी , पांच युवा मायावी , एक वृद्ध , )

एंकर - प्यारे दोस्तों आज हम आपके सामने एक नाटिका दिखा रहे है जिस में भारत का युवा कैसे दिशा हीन बन गया है और फिर से उसे अपने लक्ष्य की तरफ कैसे जोड़े जिस से भारत का और सर्व का कल्याण हो सके।

पहला दृश्य - बिल्डिंग में आग लगी है अन्दर एक बच्ची फसी है बच्ची के माता पिता और कुछ लोग चिल्ला रहे है। बचाव बचाव। …… तभी क्रिश वहाँ आता है और बिल्डिंग के अन्दर जाता है और बच्ची को बचा कर लेकर आता है। और उसे माता पिता के हवाले कर देता है।

क्रिश - ये लो आपकी बच्ची। …

माता पिता - थैंक यू  क्रिश

पांच सदाचारी युवा - क्रिश आप ये सब कैसे करते हो ? हमें तो बहुत डर लगता है

क्रिश - कुछ नहीं बस हिम्मत करो तो हर मुश्किल आसान हो जाती है।

पांच सदाचारी युवा - क्या हम भी आप की तरह बन सकते है ?

क्रिश - हाँ जरूर क्यों नहीं। ……Nothing is Impossible  चलो मेरे साथ

गीत - नथिंग इस इम्पॉसिबल .......

दूसरा दृश्य - क्रिश , क्रिश के पिता अपने साधनों के साथ अनुसंधान करते हुए उनके सामने एक लैपटॉप , एक ग्लोब और कुछ लाइट्स और इलेक्ट्रॉनिक चीजें एक मेज पर है और एक कुर्शी इत्यादि। …

क्रिश - हैलो  डैड। …

क्रिश के पिता - आज क्या करके आये जनाब !

क्रिश - कुछ नहीं डैड एक बिल्डिंग में आग लगी थी जिस में एक बच्ची फसी थी उसे बचाया।

क्रिश के पिता - क्या वहाँ और कोई नहीं था।

क्रिश - थे तो बहुत पर कोई हिम्मत नहीं कर रहे थे। .

डैड - अच्छा अच्छा ठीक है

क्रिश - डैड काफी दिनों से आप एक ही भारत के नक़्शे को देख रहे हो जब की इस ग्लोब में और भी देश है

डैड - हाँ। मैं एक खोज कर रहा था पुरे विश्व में कौन सा देश सब से शक्तिशाली और सम्पन्न है। और उसी खोज के तहत मुझे ये पता चला की भारत जो है वो सब से शक्तिशाली और सम्पन्न देश था और आज  …।

क्रिश - डैड क्या बात है आप रुक क्यों गये  …

डैड - क्रिश भारत एक महान देश है जिस की महिमा बहुत है यहाँ आओ ये देखो। ....( लैपटॉप की  इशारा करते है और उसी बीच दूसरे पात्र  आते है स्टेज के सामने और हल्का सा म्यूजिक और उसके बाद गीत और पात्र एक्शन करते है )

गीत - है प्रीत जहाँ की रीत सदा। ....

( एक युवा और एक वृद्ध और भारत माता - वृद्ध गीत गाते हुए युवा को समझा रहा है और भारत माता बीच में खड़ी है। मुस्कान के साथ )

क्रिश - डैड इतना महान भारत देश का आज क्या हाल हुआ है ?

डैड - आज का युवा  … सीन। … म्यूजिक और आज के दृश्य  क्रिश लैपटॉप के पास जाता है और एक बटन दबता है और सीन चेंज होता है.… दो युवा आते है

 युवा दिनेश  - हाय ! समीर कैसे हो ?

 युवा समीर -  ठीक है चलती का नाम गाड़ी है दोस्त और आप कैसे हो ?

दिनेश - अपने अपना कैरियर अमिरेका शुरू करना है और इस के लिए  मेरे डैड रेडी हुआ है और वीसा मिलते ही अपणुं सिदे अमेरिका -समीर तू भी चल बहुत डॉलर कमांएगे और १० साल बाद यहाँ ही आराम की ज़िन्दगी जिएंगे ऐश करेंगे। …

समीर - पर इस के लिए बहुत पैसों की जरुरत होगी ?

दिनेश - अरे इस में इतना सोचने की क्या बात है इस के लिए बैंक लोन देती है और मेरे डैड ने भी लोन ही लिया है इस के लिए।

समीर - अरे वाह ! अगर ये बात है तो राकेश , विजय , रमेश और श्याम को भी साथ ले चलते है।

दिनेश - अरे यार समीर ,  नेकी और पूछ पूछ। …

एंकर -  दिनेश और समीर ख़ुशी से जाते है अपने दोस्तों के पास और इस तरह एक नहीं दो नहीं हज़ारो युवा भारत के बहार विदेश में जाते है कैरियर के नाम पर, डॉलर  कमाने के सोच से और ये सारे युवा विदेशों में अपना टैलेंट दिखाते है और फिर वहीँ के बन जाते है , वहाँ जाने पर डॉलर्स तो मिल जाते है पर मातृ भूमि का जो प्यार है उस से वंचित रह जाते है।  ये देखिये।

दिनेश - हैलो (मोबाइल से फैशनेबल कपडे पहने हुए ) माँ हां कैसे हो?

दिनेश की माँ - बेटा दिनेश कैसे हो दिवाली पर घर आओगे न ?

दिनेश - माँ वीसा मिलते ही जरूर आवुंगा ?

दिनेश की माँ - आज १५ साल हुए तुझे गए हुए एक बार भी घर नहीं आये  .... फ़ोन कट जाता है और

दिनेश की माँ -( दिनेश के पिता से ) ये सब आपकी वजह से हुआ है अपने ही दिनेश को विदेश बेजा और.…

दिनेश के पिता माँ - तुम चुप रहो एक ही बात तुम्हारी सुन सुन कर मैं परेशान हूँ ?

दिनेश की माँ - अरे अपने घर में क्या कमी थी सब कुछ तो था दो वक्त की रोटी तो तुम्हारे पेंशन से ही मिल जाती थी , अधिक पैसे की लोभ में हमने अपना ही खाना ख़राब किया है। .... हे भगवन  ( रोते हुए..... )

एंकर - दोस्तों इस तरह एक ये एक घटना नहीं ऐसे अनेक बाते है जिस से भारत का गौरव खो गया है.....
आईये कुछ इस तरह के और घटनावो को देखते है जहाँ भारत माता नाम से भारत को पुकारते है आज उसी भारत में लड़कियों को की विशय वस्तु की तरह देखा जाता है.…।

एक लड़की - बचाव बचाव  बचाव करते हुए भाग जाती है. .... उसके बाद कुछ युवा आते है

युवक - अरे भाग के जाएगी कहा.…… सब युवा मिलकर जोर जोर से हसंते है। … हाह  ह्ह्ह   हां

एंकर - दोस्तों एक और बात मैं बताना चाहूंगा आज पर्यावरण की तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहे है आये दिन मल्टी स्टार बिल्डिंग और मॉल बढ़ते जा रहे है और पेड़ कटते जा रहे है जिस की वजह से ग्लोबल वार्मिंग और अन्य समस्या भी आ रहे है.…।

( सीन - एक व्यक्ति पेड़ काटते हुए और उसके बाद एक व्यक्ति उसे पैसा देते हुए और खुश होते हुआ जाते है )

पेड़ का जुंड - चार से पांच युवा पेड़ रूप में आएंगे और ये दृश्य देख भाग जायेंगे और कहेंगे भारत भूमि पर हमारा निवास अब दुश्वार हो गया चलो साथियों कही और जाते है। ( और सीन बदलता है )

क्रिश - डैड अब आप क्या सोच रहे है ?

डैड - क्रिश मैंने देखा बहुत सोचा भी  भारत में युवा है उनको भारत में रहकर भारत में ही अगर वो अपना टैलेंट यूज़  करे तो बदलाव आ सकता है लेकिन  इस  के लिए विज्ञानं की नहीं बल्कि स्वभाव और संस्कार में बदलाव लाना होगा और ये एक आध्यात्मिक शक्ति ही कर सकती है। …… और अभ्यात्मिक शक्ति कहा मिलेंगी ? वैल्यू  ब्रेक को spiritual शक्ति ही बना सकती है

क्रिश - डैड क्यों ना हम ये बात जादु से पूछ ले,  उसे सब पता है

डैड - हां  तो चलो अभी पूछ लेते है। …………

म्यूजिक बदल गरजते हुआ हलका फुल्का लाइट बंद चालू करे। .... और एक युवा जादु के वेश में प्रवेश करता है  उसके चारों तरफ लाइट है और बाकी सब जगह अँधेरा है। …

क्रिश - हैल्लो जादु कैसे हो.…………।

जादु - मैं तो ठीक हूँ अपनी सुनाओ

क्रिश - डैड बता रहे थे कोई आध्यात्मिक शक्ति का पता मिल जाता तो................. क्रिश के बात के बीच में ही जादु बोलते है

जादु - मैं सब कुछ जनता हूँ आपके डैड को भारत देश की चिन्ता हो रही है और उन्हें ये भी पता है की यहाँ उनकी विज्ञानं की शक्ति नहीं आध्यात्मिक महाशक्ति ही ये बदलाव ला सकती है। इसी से मनुष्य के स्वभाव और संस्कार में बदलाव आयेगा और भारत फिर से शक्तिशाली और सम्पन्न बन जायेगा भारत फिर से सोने की चिड़िया कहलायेगा। ……………

डैड - लेकिन वो आध्यात्मिक शक्ति है कहाँ ?

जादु - भारत में ही है।

क्रिश और डैड - भारत में !

जादु - हाँ ! आश्चर्य चकित हो गये आप , हा हा।  ……… ये आध्यात्मिक शक्ति मिलती  है भारत के प्राचीन राजयोग के अभ्यास से

क्रिश और डैड - भारत का प्राचीन राजयोग से ?

जादु - हाँ भाई , सुनो  अब एक रहस्यमय बात। . भारत में आज से बहुत समय  पहले परमात्मा शिव ( जिसे लोग अल्लाह , गॉड , वाहे गुरू कहते है।) .  आकर प्रजापिता ब्रह्मा के द्वारा प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय की स्थापना कर ये भारत का प्राचीन राजयोग मनुष्यों को सीखा रहे है पर अभी भी बहुत कम लोग इसे समझ पाये है इसी राजयोग से मनुष्य या व्यक्ति के स्वभाव और संस्कार में बदलाव आयेगा और भारत  के साथ सभी मनुष्यों का कल्याण हो जायेगा  समझें। …………

क्रिश और डैड - जादु अब हम क्या करे ?

जादु - बताता हूँ आगे सुनो ,    इस के लिये प्रजापिता ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विद्यालय की एक विभाग युवा विभाग के द्वारा सभी युवावों को जगाने के लिए  'ignite the youth'  नाम से कार्यक्रम पुरे भारत में चलाये जा रहे है , मैं कहता हूँ आप भी इस कार्य से जुड़ कर अपना और भारत के उत्तान में सहयोगी बनो। … और भारत को फिर गौरव शैली बनाने का येही एक मात्र उपाय है अभी नहीं तो कभी नहीं।

क्रिश  और डैड - अवश्य जादु हम अभी से इस कार्य में लग जायेंगे। . धन्यवाद जादु। …………

जादु , क्रिश , क्रिश के पिता , और पांच सदाचारी युवा और सभी भारत माता के साथ स्टेज पर आते है
एक गीत बजता है। …… उठो जगत के वास्ते। …………सभी पात्र एक्शन करते है भारत माँ के साथ भारत माँ ये गीत सुनती है।



Hindi Motivational Stories - गुण ही व्यक्ति की वास्तविक सुन्दरता है

' गुण ही व्यक्ति की वास्तविक सुन्दरता है '

                  राजा जनक के दरबार में एक विद्धान पंडित रहते थे जिनका नाम बंदी था, उन्हें अपनी विद्ता पर इतना घमण्ड था कि जो उनसे शास्त्रार्थ में हार जाता, उसे नदी में डुबो दिया जाता था। इसी कारण काहोद नाम के एक ऋषि को अपने प्राण गंवाने पड़े थे। काहोद का छोटा - सा एक बच्चा था, जो बहुत ही भद्दी सूरत का लूला-लंगड़ा था। उसका नाम अष्टवक्र था यानि उसका शरीर आठ जगह से थेड़ा-मेढ़ा हुआ था। भगवान ने अष्टवक्र को अदभुद प्रतिभा दी थी। जिस बात को वह एक बार सुन लेता वह उसे याद हो जाती थी। याद करने की शक्ति के साथ -साथ उस में कल्पना और तर्क करने की भी अदभुद शक्ति थी। होश संभालने के थोड़े दिन बाद से ही अष्टवक्र अध्ययन के लिए जुट गया, ऐसी कोई विद्य न थी जिसका अध्ययन उसने न किया हो। बहुत कम उम्र में उसने सब कुछ पढ़ लिया और एक दिन बालक अष्टवक्र राजनगर लौट रहा था। राजनगर सड़क पर चल रहा था। और उसी समय पीछे से सिपाही ' हटो - हटो ' कहते सब से रास्ता साफ़ करा रहे थे। पर अष्टवक्र अपनी धुन में चला जा रहा था। रास्ते से हट नहीं रहा था। सिपाहियों ने डांटा तो वह जोर से बोला - रास्ता केवल अपाहिजों और बोझा ढ़ोने वालों के लिए छोड़ा जाता है। तुम्हारे लिए रास्ता क्यों छोड़ूँ ? बालक की ज्ञान भरी बातें सुनकर सब अचम्भे में रह गये। चलते चलते वह राजमहल के पास पहुंचा। संतरियों ने उसे छोटा समझकर अन्दर न जाने दिया, तो वह बोला - मैं छोटा नहीं बड़ी उम्र का हूँ। क्यों कि बड़ो की तरह मैंने सब कुछ पढ़ लिया है सीक लिया है, लम्बाई - चौड़ाई या ऊंचाई आदमी के बड़े होने का प्रमाण नहीं है, उसकी बुद्धि ही बड़प्पन को जताती है। सिपाहियों ने तब भी उसे महल के अन्दर जाने नहीं दिया। तब अष्टवक्र को गुस्सा आया। और बोला हमें नहीं मालूम था कि दरबार में कोई छोटा - बड़ा होता है। छोटे - बड़ो की कसौटी धन - धौलत नहीं, विद्या से होती है। सिपाहियों ने हंसी में टाल दी, ये बात राजा जनक को पता चला और राजा ने अन्दर बुलवाया और नाराजगी का कारण पूछा। अष्टवक्र ने जवाब दिया - राजा जनक, मैं आपके पंडित बंदी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारता हूँ। आप उन्हें सभा में बुलवाइए। और सभा जुड़ीं। एक तरफ सुडैल शरीर वाले विद्वान पंडित बंदी बैठे थे और दूसरी तरफ टेढ़े - मेढे शरीर व;वाला लूला - लंगड़ा बालक अष्टवक्र। दरबार में अष्टवक्र की विचित्र वेश और सूरत देख कर चारों कोनों से हंसी के ठहाके गूँज रहे थे। छोटी - सी एक गठरी के सामन वह एक ऊँचे आसन पर बैठा था। सभी उस की हंसी उड़ा रहे थे। जब हंसी बन्द हुई, तो लोग चुप चाप अष्टवक्र की तरफ देखने लगे। अष्टवक्र ने सिंह की गर्जना के समान ऊँची आवाज़ में हंसना शुरू कर दिया। उसकी हंसी का स्वर इतना ऊँचा और मर्मभेदी था कि सारी सभा स्तब्ध रह गई।

      राजा जनक ने विनयपूर्वक पूछा - आपकी हंसी का क्या कारण है ? अष्टवक्र ने कड़कती आवाज़ में कहा - राजा जनक ! बहुत दिनों से आपकी विद्वानोँ की  सभा का तारीफ सुनता आ रहा था। लेकिन मालूम पड़ता है तुम्हारे दरबार में सभी हाड़ - मांस का मोल करने वाले व्यापारी है। बुद्धि का सौदागर कोई नहीं। मैं अपनी मूर्खता पर हंस रहा था कि ऐसी मूर्खो की सभा में इतना कष्ट उठाकर क्यों आया ? अष्टवक्र की इस एक बात ने पूरी सभा में सन्नाटा पैदा कर दिया।  सब एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। सामने बैठे पंडित बंदी भी अष्टवक्र की बातों से हैरान रह गये। शास्त्रार्थ शुरु हुआ।  दरबारी आश्चर्य से दाँतो तले अँगुली दबाए बैठे रहे और देखते रहे कि यह बदसूरत लड़का कितना बड़ा विद्वान है। कितनी बुद्धिमता से विद्वान पंडित को उत्तर दे रहा है।शास्त्रार्थ चलता रहा, अष्टवक्र का तो जवाब ही न था। एक से बढ़कर एक जवाब दे रहा था। बंदी ढीले पड़ते जा रहे थे, वह ठीक से जवाब नहीं दे पा रहे थे। जब बंदी से अष्टवक्र के प्रश्नो का उत्तर देते न बन पड़ा तो लाचार होकर उन्होंने अपनी हार स्वीकार कर ली। सारी सभा हैरान रह गई। दरबारियों में जो अष्टवक्र से जलते थे और उसे अपमानित करना चाहते थे, वे चुप होकर बैठ गए। इस तरह मनुष्य की सुन्दरता शरीर नहीं गुण है।



सीख - अष्टवक्र शरीर से कुरूप था लेकिन अदभुत बुद्धिमता के कारण सबको उसके सामने नतमस्तक होना पड़ा। इसी तरह गुण पूज्यनीय है, शरीर कितना भी सुडोल, सुन्दर हो यदि उसमें कोई भी ज्ञान न हो पवित्रता, नम्रता आदि गुण न हो, समझ न हो तो उसे ज्ञान नेत्रहीन ही कहा जायेगा। अवगुणों से सम्पन हो तो उसे कुरूप ही कहा जायेगा। इस लिए गुणवान बनो।


       

Thursday, April 10, 2014

Hindi Motivational Stories - आज का युवा आत्म सम्मान से वंचित

' आज का युवा आत्म सम्मान से वंचित '

     आज मैं मेरे दोस्त के साथ कॉलेज गया था और कैम्पस के अन्दर ही स्पोर्टस चल रहे थे। तो एक ख़ुशी का माहोल था। खेल देखने से उमंग बढ़ता है ख़ुशी होती है। ये तो हम सभी जानते है। तो मै भी दोस्त के कहने पर उसका खेल देखने आया था। जैसे ही खेल पूरा हुआ तो मै अपने घर की तरफ जाने कि सोच रहा था। पर अचानक मेरी नज़र गार्डेन पर बैठे पुराने दोस्तों की तरफ गयी और उनकी मेरी तरफ तो फिर मै भी गार्डेन में जा कर उनके साथ बैठ गया। और फिर सब ने अपनी अपनी कैरियर कि बात शुरू कर दी मैं तो चुप चाप उनकी बाते सुनने लगा। जितने युवा थे वह सब के सब अमेरिका जाने का और वही आगे कि पढ़ाई करके वही काम करना  ये उनकी मानसिकता थी, शायद आज ८० परसेंट युवाओं की यही सोच है भारत के बहुत से युवा इसी सोच में है।

            मै उनकी बाते सुनते सुनते  खो गया सोचने लगा भारत देश के बारे में जिस भारत की महिमा हम सुनते और करते हैं।और वही भारत के युवा आज क्या सोच रहे हैं। आज की युवा की ये सोच से  भारत माँ क्या खुश  है या … ?  जी  हाँ आप ही बताईये कुछ.....

        जिस भारत भूमि पर हमने जन्म लिया हमारे पूर्वज जिनका पूरा जीवन इस मातृ भूमि में पला है। और आज हम सिर्फ पैसे या डॉलर के लिये अपनी मातृ भूमि को छोड़ कर जा रहे हैं। जरा सोचिये ये तो ऐसा है जैसे की हमने माँ कि कोख से जन्म लिया उनकी गोद में पले और बड़े हुए और जैसे ही वक्त आया उस माँ को रिटर्न देने का तो उसे छोड़ कर भाग गये।

      आज देखिए जो युवा अपना देश छोड़ कर गया हुआ है। उनकी जीवन को देखिये पैसे तो मिल गए पर वो प्यार और वो आत्मा सम्मान कहाँ है उनके पास, बहुत से युवा ऐसे बंध गए हैं। उन्हें समय पर अपने घर वालों से मिलना भी नसीब नहीं होता। रिश्ते नाते सब बदल जाते हैं  ना वहाँ सम्मान मिलता है और ना यहाँ, डॉलर के खातिर जीवन का मूल्य खो चुके युवाओं का जीवन भी क्या जीवन हैं ?

       हर युवा विदेश जाने से  पहले यही सोच रखता है की वहाँ जकर बहुत पैसे कमांएगे और फिर ५ या १० साल बाद यहाँ भारत में आकर आराम की ज़िन्दगी गुजरेंगे। पर वहाँ जाने के बाद सब कुछ बदल जाता है और ९९ का चक्र शुरू हो जाता है और थोड़े दिन बाद और थोड़ा कमायी हो जाने के बाद …… ऐसा करते करते उनका जीवन बदल जाता है। १० साल नहीं ३० से ४० साल गुजर जाता है पर वो आराम की ज़िन्दगी की तलाश पूरी नहीं होती और मातृ भूमि से वो नाता भी टूट जाता हैं। और अन्दर में मन उसका कहीं न कहीं वो सम्मान या प्यार से वंचित रहता हैं। जिसे वो शायद ही फिर से पा सके।

      मैं तो कहता हूँ अपने देश में रहो दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ और भारत में ही अपना हुनर दिखाव जिस से नाम भी होगा सम्मान भी मिलेगा और आत्म सम्मान भी बना रहेगा और हर भारतीय को आप पर नाज़ होगा।

Wednesday, April 9, 2014

Hindi Motivational Stories - "अन्तरमन का दरवाजा खोलो"

"अन्तरमन का दरवाजा खोलो"

           एक दरवाजे के पास तीन आदमी आपस में वार्तालाप कर रहे थे। वही से गुजरते हुए किसी महात्मा ने जब उनकी बातें सुनी, तो वह पल भर के लिए वहीं ठहरकर उस दृश्य को देखने लगे। उन तीनों में से पहला बोल रहा था - मै दरवाजे को खुलवाने के लिए जोर से आवाज़ दूंगा। दूसरे ने जवाब दिया - मै तो पुरे जोर से दरवाजे को दस्तक दूँगा। तब तीसरे ने कहा - मै तो बलपूर्वक धक्का लगाकर ही दरवाजा खोल दूँगा।

         तत्क्षण, ये सुनकर पास में खड़े महात्मा जी मुक्त मन से हंस पड़े। कोई अपरिचित व्यक्ति की उपस्थिति महसूस करते हुए तीनों एक ही स्वर में महात्मा जी से पूछ बैठे - कौन है आप ? कृपया ये बताने का कष्ट करे कि आपको हमारी बातें सुनकर हंसी क्यों आयी ? महात्मा जी ने कहा - मै तो राहगीर हूँ। हंसी तो मै आप सबकी चेष्टा देखकर न रोक पाया। लेकिन आपको इस में हंसने जैसे क्या बात दिखाई दी ? भाईयो ! दरवाजा तो खुला ही पड़ा है। महात्मा ने रहस्य खोला। पुनः तीनों ने एक स्वर में बोल पड़े - तो खोलना क्या है ? महात्मा जी कह रहे थे - खोलना है सिर्फ आप तीनों की आँखों पर बंधी ये पट्टियों को।


सीख - हम सब को अन्तरमन का दरवाजा खोलने के लिये पहले देह रूपी इस पट्टी को खोलना याने भूलना होगा अतार्थ अपने मन और बुद्धि से आत्मा का चिन्तन करना  ही अन्तरमन का दरवाजा खोलना है

Sunday, April 6, 2014

Hindi Motivational Stories - ' बड़ा कौन ? संसारिक धन या ज्ञान धन '

" बड़ा कौन ? संसारिक  धन या ज्ञान धन "

            एक प्रभु प्रेमी, नगर के बाहर प्रभु प्रेम में लवलीन होकर प्रभु कि साधना करता रहता था। दूसरी तरफ नगर के अन्दर में एक सेठ को अधिक से अधिक धन पाने की लालसा लगी रहती थी। और उस सेठ को कही से ये खबर मिली की जंगल में कही कोई जगह काफी बड़ा खजाना दबा हुआ है। परन्तु वह धन कहाँ है, इसके बारे में किसी को पता नहीं। सेठ अपनी किस्मत आजमाने के लिए एक दिन जंगल की तरफ चल दिया। जब नगर का मार्ग समाप्त हो गया और जंगल शुरू हो कर धना - सा होने लगा तब वहाँ उसने एक व्यक्ति को पालथी मार कर मनन - चिन्तन करते हुए देखा। उसके चेहरे पर शान्ति और सन्तोष के चिन्ह थे और वह बिल्कुल निश्चिन्त दिखाई देता था। वैसे वो कथिक रूप से तो शहर से दूर बैठा ही था परन्तु लगता था कि उसका मन भी शहर के हाय - हल्ला से दूर कही, एकान्त में बस रहा है। सेठ जी उसके पास जाकर उसे प्रणाम किया और इन शब्दों से सम्बोधित किया - 'महाराज, आपके दर्शन पाकर मेरा मन बहुत प्रसन्न हुआ। आप तो विरक्त है परन्तु मै एक गृहस्थी आदमी हूँ। आपकी कृपा और आप से वरदान की एक कामना करता हूँ।  यादि आप को मुझ पर करुणा हो तो कृपया यह बताने का कष्ट करें कि जंगल में कोई एक बडा खजाना है वो कहाँ दबा हुआ है ?

      प्रभु प्रेमी - परन्तु मेरी तो इन बातों में रूचि नहीं है और मै तो यह कहूँगा कि कमाई करने से जो धन प्राप्त होता है, उसी में ही संतोष होना अच्छा है।

     सेठ - मै मानता हूँ कि आप को इन संसारिक धन - वैभवों से कोई प्रीति नहीं परन्तु मुझ पर आपकी यह कृपा हो - यह मेरी याचना है।

      प्रभु  प्रेमी  - अच्छा, तो जाओ ! उत्तर दिशा कि ऒर आगे बढ़ते चलो। जब लगभग 400 कदम चल चुके होंगे तो वहाँ एक पीपल का पेड़ दिखाई देगा। उस पेड़ की तीन मोटी - मोटी रगे पर्थ्वी में दबी हुई दिखाई देगी। उन में से जो मध्यवर्ती रग है और उसके दहिने ऒर जो रग है, उनके बीच के स्थान पर यदि 4 फुट गहरा खोदोगे तो तीन स्वर्ण कलश मिलेँगे जो अपार धन से भरपूर है। जाओ, अगर धन की ही कामना है और वह भी बिना कमाई वाले धन की, तो जाकर वे कलश निकाल लो।

    यह कहते हुए प्रभु प्रेमी सेठ को दया की दृस्टि से देखने लगा और साथ - साथ मुस्कुराने भी लगा। उस प्रभु प्रेमी से बात करके सेठ की मनोवृति पर कुछ अलौकिक प्रभाव पड़ा परन्तु फिर भी धन की लालसा से खिचा हुआ - सा वह उत्तर दिशा में बढ़ते गया और उस प्रभु प्रेमी को प्रणाम और धन्यवाद करके आगे को निकल पड़ा। और जैसे ही 400 कदम पुरे हुए तो वहाँ उसने पीपल के पेड़ की तीन रगे देखी। उस प्रभु प्रेमी के बताए अनुसार उसने उस स्थान पर 4 फुट गहरा खोदा तो यह देखकर उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा कि वहाँ तीन स्वर्ण कलश दबे थे। उनको उसने जब खोला तो उस में हीरे, अशर्फिया वगैरह देखकर दंग रह गया और उसे बेहद ख़ुशी हुई। परन्तु इस विचार ने उसे सोच में डाल दिया कि प्रभु प्रेमी को जब इस खजाने का पता था तो यह खजाना उसने स्वम् अपने लिए क्यों नहीं ले लिया।

    इसलिए सेठ इस जिज्ञासा को लेकर वह फिर से उस प्रभु प्रेमी के पास गया और बोला - महाराज, आपकी कृपा से खजाना तो मिल गया परन्तु अब उस खजाने के प्रति मेरा कुछ विशेष आकर्षण नहीं है। मेरे मन में यह प्रश्न उठा है कि जब आपको उस खजाने का पता था तो अपने स्वम् ही वह खजाना क्यों नहीं ले लिया। अवश्य ही आपको उससे भी कोई ऊँची प्राप्ति हुई होगी कि जिस से आपको उस खजाने के प्रति कोई आकर्षण नहीं है।

   प्रभु प्रेमी चुप होकर बैठा रहा और उसकी और देखता रहा। इसका उस सेठ पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि धन के प्रति जो उसकी लालसा बनी रहती थी, वह अब मन में नहीं रही। उसी क्षण उस प्रभु प्रेमी के मुख से यह शब्द निकले - भाई, आप यही धन माँगते थे, इसलिए आपको उसका रास्ता बता दिया पर सर्वोपरि धन तो ज्ञान धन है। ज्ञान धन अविनाशी है और शारीर ने नाश होने के बाद भी आत्मा के साथ रहता है और उसे शाश्वत सुख देता है। यह सुनकर वह सेठ भी अब ज्ञानधन अर्जित करने की ऒर प्रवृत हुआ। और नियमित रूप से प्रभु प्रेमी से मिल कर ज्ञान अर्जित करने लगा।


सीख - संसारिक धन से बड़ा धन है ज्ञान धन इस ज्ञान धन को आज की दुनिया में सब भूल चुके है और जिस की वजह से सारा संसार दुःखी है एक बार इस ज्ञान धन का महत्व मानव को समझ में आ जाय तो उस का कल्याण हो जायेगा।

Saturday, April 5, 2014

Hindi Motivational Stories - ' विवेक युक्त भावना कल्याणकारी '

विवेक युक्त भावना कल्याणकारी

             एक पवित्र सुन्दर स्थान पर आश्रम बना था। वहाँ श्रेष्ठ दिव्य - चरित्र निर्माण की शिक्षा दी जाती थी। वहाँ के गुरूजी कि महीमा बहुत थी। वे अपने शिष्यों को बड़े प्यार से शिक्षा देते उनके बातो में रहस्य छुपा होता था। और इस बात को शिष्य जनते थे। हुआ कुछ ऐसा की एक दिन गुरु जी को कहीं लम्बे समय के लिए विदेश - भ्रमण पर जाना था। तब शिष्यों की परीक्षा का उचित समय था। गुरु जी ने अपने मुख्य दो शिष्यों को बुलाकर कुछ अनाज के दाने दिये। और कहा प्यारे बच्चों ! मै कुछ समय के लिए बाहर यात्रा पर जा रहा हूँ। मैंने जो बीज दिये है इन्हें अपनी इच्छा अनुसार सदुपयोग में लाना। बहुत प्यार - से - रहना और आश्रम की देखभाल ध्यान से करना। दोनों शिष्यों ने अपने गुरूवर की बात को ध्यान से सुना और बोले आप किसी प्रकार की चिंता न करें। हम अच्छी तरह से आश्रम की देखभाल करेंगे। और दोनों शिष्य गुरु जी को बहुत दूर तक विदा देने गये। फिर आदर सहित प्रणाम कर लौट आये।

             समय पंख लगाकर उड़ता गया। दिन महीने साल गुजरते गए। परन्तु गुरु जी लौटे नहीं। शिष्य अपने गुरु का हर साल इंतज़ार करते रहे। और एक दिन पुरे पाँच साल बाद छठे वर्ष में गुरूजी लौटे। दोनों शिष्य अपने गुरु जी को आया देख आनंद विभोर हो उठे। आदर सहित आश्रम में ले आये। आश्रम पहुंचने पर गुरु जी ने दोनों शिष्यों को अपने पास बुलाया।  दोनों शिष्य उनके पास आये।  सब से पहले बड़े शिष्य से गुरु ने पूछा, बच्चे यात्रा पर जाते समय मैंने तुम्हें कुछ अनाज के दाने दिये थे उनका तुमने क्या किया ? गुरु जी आप रुकिये मै अभी आया कहा कर वह अपने कामरे से एक संदूक उठा लाया और गुरु जी को दिया जिस पर लाल रंग का कपड़ा लिपटा हुआ था। और अगरबत्ती की खुशबु से महक रहा था वह छोटा सा संदूक। और बोला - गुरुदेव, यह आपका दिया हुआ प्रसाद था। इस लिए इस का मै रोज बड़ी श्रद्धा - भावना से पूजा करता था और अगरबत्ती लगता था। गुरूजी ने संदूक खोला तो क्या देखते है, कि सारा अनाज सड़ गया है। एक भी बीज काम का न रहा। सब को कीड़े खा गए है। यह देख गुरु जी को बहुत अफसोस हुआ। पर गुरु ने कुछ नहीं कहा।

                फिर दूसरे की ऒर मुड़कर पूछा - बच्चे तुमने मेरे दिये अनाज का क्या किया ? दूसरा शिष्य ने गुरु जी को अपने साथ चलने को कहा।  गुरूजी शिष्य के पीछे चल दिया। और रस्ते में शिष्य बताने लगा गुरूजी आपके दिये बीज को मैंने उसी वर्ष आश्रम के पास की उपजाऊ भूमि में बो दिया। और धरती माँ ने एक का सौ गुना करके दिया। एक वर्ष में इतना अनाज हुआ की मैंने उसको फिर से सारे जमीन में बो दिया। और फिर से धरती माँ ने उसका भी सौ गुना दिया।अध्यन करने के बाद जो समय मिलता वो समय मै इसी कार्य में लगता। और मेहनत का फल भगवन देता है। सो तीसरे साल जब बहुत अनाज मिला तो उस में कुछ धन पाकर मैंने कुँआ बनाया और फिर उसके बाद फल, सब्जी भी मिलने लगा तो और धन इकट्टा हुआ,जिस से आश्रम को सुन्दर बनाया और एक नया धर्म शाला बना दिया और फिर एक बगीचा और अब एक सुन्दर फलों का वन यह बना रहे है आपके लिए हाथ के इशारे से शिष्य गुरु जी को बता रहा था।

              गुरु जी यह सब देख अपने विवेकशील शिष्य को अपने गले से लगा लिया। यह देख कर बड़ा शिष्य तो शर्म के मारे झुक गया। फिर गुरु जी बोले, बच्चो ! श्रद्धा तो जीवन में होनी ही चाहिए। परन्तु विवेक भी साथ में चाहिए। बिना श्रदा भावना के विवेक शुन्य बनकर रह जाता है। और बिना विवेक के भावना सुन्दर नहीं लगती। जहाँ भावना जीवन का मिठास है वहाँ विवेक जीवन का नमक है। एक जीवन को मधुर बनाता है दूसरा जीवन को सुरक्षित रखता है।



सीख - हमें अपने जीवन में भावना और विवेक का सन्तुलन बनाकर अच्छी समझदारी से कार्य करने है जिस से मात - पिता और गुरुजनों का प्यार व आशिर्वाद मिलता रहे।                                                                                                                                                                                                                                                    




Thursday, April 3, 2014

Hindi Motivational Stories ' निर्णय का आधार शब्द नहीं शब्दार्थ हो '

निर्णय का आधार शब्द नहीं शब्दार्थ हो 

    बहुत पुरानी एक कहानी है रामनगर में एक सेठ जी थे जिनका नाम था धनपतराय। वे बहुत धनी - मानी व्यक्ति थे। बहुत धनवान होने के कारण वे बहुत शान - शौकत से रहते थे। सारे शहर के लोग भी उनको उसी निगाह से देखते व इज्जत करते थे। और सेठ जी का एक लड़का अब विवाह योग्य हो चूका था।  सेठ धनपतराय अपने पुत्र के लिए योग्य - वधु की खोज शुरू कर दी और आखिर वह दिन आ गया जब उन्हें अच्छे कुल की एक कन्या की जानकारी मिली उन्होंने अपने इकलौते पुत्र की शादी बहुत ही धूमधाम से सम्पन किया और बाजे बजवाते अपनी पुत्र - वधु को ख़ुशी- ख़ुशी अपने घर ले आए। सेठ जी अपनी पुत्र - वधु को देख ख़ुशी से फुले नहीं समाते थे। बहु भी बहुत ही समझदार, आज्ञाकारी तथा हर कार्य में कुशल थी इसलिए सेठ जी भी उससे बहुत प्रसन्न थे।

     इस तरह बहुत दिन बीत गए करीब साल दो साल हो गए होंगे। एक दिन एक भिखारी भीख माँगता, आवाज़ लगाता हुआ सेठ जी के मकान के आगे खड़ा हुआ। और कहने लगा - अरे भाई तीन जन्म का भूखा हूँ, कोई रोटी का टुकड़ा दे दे। बहु  सुना और ऊपर से ही आवाज़ लगते हुए कहा -  बासी टुकड़े खाते है, कल उपवास करेंगे। सेठ जी के कानों में जब ये शब्द गये तो उन्हें बहुत गुस्सा आ गया।  वे सोचने लगे कि कमाल है, इस बहु को मै हर चीज़ बढ़िया - से - बढ़िया लाकर देता हूँ - पूड़ी, कचौड़ी, हलवा, खीर, मालपुए अनेक प्रकार के व्यंजन इसे भरपूर लाकर देता हूँ - यह फिर भी कहती है कि बासी टुकड़े खाते है, कल उपवास करेंगे।  आखिर मैंने क्या कमी राखी है इसको ! यह बहु तो मेरी इज्जत ही मिट्टी में मिला देगी। सोचते - सोचते उनका क्रोध का पारा बढ़ता गया और उन्होंने तय कर लिया कि अब तो इसे वापस इसके मायके में भेजना ही पड़ेगा।

    सेठ जी बड़े तेज कदमों - से अपने घर के आँगन से बहार निकले और उन्होंने पंचायत बिठाई। वधु के पिता को भी बुलवाया गया और सेठजी  सारी कहानी उन्हें सुनाते हुए कहा कि ले जाइए अपनी बेटी को अपने साथ ! इसने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा। पंचायत के मुखिया सेठजी के इस बात को सुनते हुए कहा - सेठजी, उतावलेपन में फैसला कर लेना उचित नहीं। आप तो स्वम ही कहते थे कि आपकी बहु बहुत समझदार है, आप उसे बुलाकर पूछिए तो सही कि उसने ऐसा क्यों कहा ? अवश्य ही उसका कोई अर्थ होगा।  सेठ जी को भी उनकी ये बात  जँच गई।  उन्होंने अपनी बहु को बुलवा भेजा। बहु बड़े आदर - भाव से आकर वहाँ बैठ गई। और उससे सेठ जी ने पूछा कि बहु, तुम यह तो बताओ कि भिखारी के यह कहने पर तीन जन्म का भूखा हूँ, कोई रोटी का टुकड़ा दे दे तो तुमने यह क्यों कहा कि बासी टुकड़े खाते है, कल उपवास करेंगे ? क्या तुम बासी टुकड़ो पर गुजारा कर रही हो ? इतनी समझदार होते हुए भी तुम ने ऐसा क्यों कहा ? बहु ने कहा - ससुरजी, मै कुछ गलत कहूँ तो क्षमा कर दीजिएगा। मेरा भाव कुछ और था। बात यह है कि भिखारी का यह कहना कि तीन जन्म का भूखा हूँ , इसका अर्थ यह कि पिछले जन्म में वह गरीब था तो वह कुछ दान नहीं कर सका और इसलिए इस जन्म में भिखारी है। इस जन्म में क्यों कि गरीब है तो अभी भी वह दान नहीं कर सकता और इसलिए अगले जन्म में भी यह गरीब और भूखा रहेगा और इसलिए वह कहता है कि तीन जन्म का भूखा हूँ।

         और जो मैंने कहा जवाब में उसका भाव यह है कि हमने पिछले जन्म में जो दान पुण्य किया था, उसकी बदौलत हमें इस जन्म में धन - धान्य मिला है यह हमारे पिछले जन्म का फल है तभी मैंने कहा कि बासी टुकड़े खाते है। और ससुरजी, इस जन्म में हमारे इस घर में तो दान करने की प्रथा ही नहीं है तो अगले जन्म में जरुर भूखा ही रहना पड़ेगा याने उपवास ही रखना पड़ेगा। मेरा कहने का भाव ये था। सेठ जी बहु कि ये बात सुनकर कुछ लज्जित भी हुए और मन -ही - मन उन्होंने ढूढ संकल्प भी किया कि आज से लेकर वे सुपात्र को अवश्य ही दान करेंगे।



सीख - शब्दों का सही भावार्थ न समझने के कारण कैसे अर्थ का अनर्थ हो जाता है और अगर सही भाव समझ में आ जाए तो वही शब्द जीवन को परिवर्तन करने वाले सिद्ध हो सकते है। जैसे सेठ जी का जीवन बदल गया। अंतः कभी भी किसी के शब्दो पर न जाकर उसके भावों को समझने का पुरषार्थ करना चाहिए।

Wednesday, April 2, 2014

Hindi Motivational Stories - " जीवन का अंतिम लक्ष्य आत्मस्वरूप की अनुभूति "

" जीवन का अंतिम लक्ष्य आत्मस्वरूप की अनुभूति "


  महान राजा भर्तुहरी के सम्बन्ध में एक बड़ी ही प्रीतिकर और शोधपूर्ण कहानी है। कहते है कि वह अपने अपार धन, वैभव, राजपाट को त्याग कर तपस्या के करने जंगल चला गया। उनके जीवन में त्याग सिद्धान्त के रूप में नहीं परन्तु जीवन में भोग और सम्पत्ति की व्यर्थता के अनुभव से फलित हुआ था। हुआ ऐसा कि एक दिन वे पेड़ की शीतल छाया में प्रभु की याद में ध्यान - मग्न बैठे थे। अचानक उनकी आँखे खुली। वृक्ष के पास में एक छोटी पगडंडी गुज़र रही थी। थोड़ी दूर उस पगडंडी पर सूर्य की रोशनी में एक अदभुद और बड़ा हीरे का टुकड़ा पड़ा चमक रहा था। ऐसा हिरा उसने पहले कभी नहीं देखा था।

                 तब राजा के मन में कामना जगी कि उस हिरा को उठा लू। अचानक उस बेहोशी के क्षण में वे अपने ध्यान के केन्द्र से अलग हो गये। लेकिन शारीर तो अब भी सिद्धासन में अचल था परन्तु मन तो उस हीरे को पाने की चाहत में चल पड़ा। मन से वहाँ नहीं है। अब शारीर यही अचल मृत आवस्था में है। भर्तुहरी मन से वहा गये और देखा कि उनसे पहले वहाँ दो व्यक्ति घोड़े पर सवार हो अलग - अलग दिशाओ से वहाँ आये। उन दिनों की नज़र भी उसी चमकते हीरे पर पड़ी। और दोनों ने हिरा पहले देखने का दावा कर तलवारें खीच ली। निर्णय का तो और कोई उपाय वहाँ नहीं था, वे आपस में लड़ पड़े। और कुछ ही देर में दोनों ने एक - दूसरे को समाप्त कर दिया। अब उस हीरे के पास दो लाशे पड़ी थी। भर्तुहरी ने देखा, हँसा और अपनी आँखे बंद कर ली और प्रभु - स्मरण में पुनः खो गया।

         क्या हुआ ? आप सोच रहे होंगे। . इस घटना से भर्तुहरी को सम्पत्ति की व्यर्थता का बोध हुआ। और वे पुरे दिल से ध्यान - मग्न हो गये।  और दूसरी तरफ उन दो व्यक्तियो का क्या हुआ ? एक पत्थर का हिरा उनके जीवन से अधिक कीमती हो गया। और उसी के कारण अपनी जान गवा दी।  इसलिये जब भी कामना होती है, तो हम अपने से दूर चले जाते है। अपने को भूल जाते है। ये कामनाये हमें आत्म - घात कि ऒर ले जाती है। कामना के वशीभूत हम अपनी सुधबुध खो देते है। क्षण भर के लिए राजा को जो सयम के अनुभव का आत्म केन्द्र था वह खो गया। एक हिरा अधिक शक्तिशाली हो गया और वे कमजोर हो अपने केन्द्र से हट कर उस हीरे की ऒर खिंचते चले गये। लेकिन फिर व्यर्थता के अनुभव ने उन्हें आत्म केन्द्रित कर दिया और उन्होंने अपनी आँखे बंद कर ली।

सीख - ध्यान आत्मा सयम के लिए है। ध्यान स्वम् को जोड़ता है और सम्पत्ति का मोहा व्यक्ति को अलग करता है और पतन कि ऒर ले जाता है। 

Tuesday, April 1, 2014

Hindi Motivational Stories - ' परिश्रम ही सच्ची पूंजी है '

 परिश्रम ही सच्ची पूंजी है

            कालूराम स्वभाव से आलसी और निकम्मा था। वह बैठे - बैठे सपने देखता कि एक दिन अवश्य ही वह धनवान हो जायेगा। और धनवान बनने से जो सुख उसे मिल सकते है उनका मन ही मन अनुभव कर वह खुश हो लेता। इस तरह धनवान बनने का उसे शौक जरुरु था लेकिन काम वह कुछ नहीं करता। कालूराम की पत्नी रमा समझदार और स्वालम्बी महिला थी। उसने दो गाये पाल राखी थी जिनकी वह खूब देखभाल करती। गाये का दूध दुहकर बेच आती। इसी से उसके परिवार का गुजारा भी चलता।  कालूराम के दो बेटे थे जो अपनी माँ के काम में सहयोग देते थे। लेकिन कालूराम दिन - रात सपनों में ही खोया रहता।

           एक दिन गॉव में एक स्वामी का आना हुआ और पुरे गॉव के लोग संध्या के समय स्वामी जी के पास आते और घंटो बैठे रहते। स्वामी जी को गॉव वालो के जरिये कालूराम के बारे में सब कुछ मालूम हो गया। और जब कालूराम को स्वामी जी के बारे में पता चला तो वह सीधा उनके पास गया और बैठ गया प्रवचन के बाद जब सब लोग चले गए तब कालूराम स्वामी जी के पास जाकर प्रणाम करते हुए कहा, मुझे वरदान दो स्वामी जी, मै धनवान बनना चाहता हूँ। गरीबी से में उकता गया हूँ। अब स्वामी जी उसकी बात सुनकर मन में हंसे।  वे जानते थे कि वह काम तो धेले भर का भी नहीं करता। खाली बैठा हुआ ही धनवान बनना चाहता है। कालूराम से मिलकर स्वामी जी को अनुभव हुआ कि उसमे छल, कपट जरा भी नहीं था। उन्होंने सोचा कि इसकी मदत करनी चाहिए। वे बोले - मै तुम्हे वरदान दे सकता हूँ, लेकिन उसके साथ शर्ते भी जुड़ी हुई है। शर्तों का पालन नहीं किया तो वरदान स्वतः समाप्त हो जायेगा। आपका आदेश सिर आँखों पर। आप जैसा कहेंगे, मै वही करूँगा। कालूराम ने प्रसन्न्ता से जवाब दिया। अब स्वामी जी ने कहना शुरू किया - मै तुम्हें एक मंत्र देता हूँ। उसके बारे में किसी को कुछ मत बताना और मन ही मन मंत्र का जाप करना। मंत्र है - आलस छोड़ो ! जागो ! उठो ! शर्त यह है कि तुम सवेरे जल्दी उठोगे और रात्रि दस बजे से पहले कभी सोओगे नहीं। एक - एक क्षण का तुम्हें उपयोग करना होगा। कालूराम हाथ जोड़े हाँ - हाँ करता रहा और सारी बात ध्यान से सुनता रहा। उसे धनवान बनने का मंत्र जो मिल रहा था। स्वामी जी ने फिर कहा - काम करने से जो भी आय हो उस में से जितना हो सके बचाकर रखना और सोच समझकर पत्नी कि सलाह से ही खर्च करना। और मंत्र को कभी मत भूलना।  जाओ, आज से ही काम करना शुरू कर दो।

           कालूराम में जैसे नये जोश का संचार हो गया था।  आलस छोड़ो ! जागो उठो ! यह मंत्र गुन गुनते हुए वह घर पहुँचा। उस दिन गायो का दूध वह स्वम बेच आया।  वापस आकर पास ही जंगल से बहुत सी लकड़ियाँ भी काट लाया। सवेरे अपनी गायों के साथ दुसरो के पशु भी चरा आता।  वह रोज ही जंगल से लकड़ियाँ काटकर लाने लगा और उन्हें शहर में बेच आता। कालूराम को दुसरो के पशु चराने का भी कुछ रुपये मिल जाते। इस तरह कालूराम एक एक पल का उपयोग करने लगा।

         कालूराम में आये इस बदलाव को देख सभी लोगो को आश्चर्य हुआ। कई लोगो के पूछने पर कालूराम कहता काम तो करना ही चाहिए। इसलिए करता हूँ। और कालूराम में आये इस बदलाव को देख उसकी पत्नी बहुत खुश थी।कालूराम को अब लकड़ियाँ बेचने और गाये चराने से जो धन मिलता उसे वह बचा कर रखता। और धीरे धीरे इन्हीं पैसों से वह एक - एक गाय और भैंस खरीदता रहा जिससे दूध भी उसके यह खूब होने लगा। कालूराम का दूध का कारोबार बढ़ता गया। और उसे आज भी मंत्र याद है और उसी तरह लगातार अपने काम में मस्त है गाये को चराना लकड़ी काटकर बेचना। उसे मालूम ही नहीं कि वह धनवान बनने चला है।

           समय बीतता गया कालूराम के पास अब सौ से अधिक पशु हो गए। उसने गॉव ने पास ही खेत खरीद लिए जहाँ बड़ी मात्रा में अनाज पैदा होने लगा। उसके बेटे भी उसके कारोबार में हाथ देने लगे इस तरह एक दिन वह गाँव का जमींदार बन गया। और अब भी वह अपना एक एक पल सफल करता जब भी वह खाली बैठता उसे मंत्र याद आता। एक दिन कालूराम अपने घोड़े पर सवार होकर अपने खेतो की निगरानी कर रहा था। तभी उसे दूर एक महात्मा जी दिखायी दिये। उसने तुरन्त पहचान लिया। वह उनके पास गया और प्रणाम कर बोला, मुझे पहचाना स्वामी जी, मै कालूराम। आपने मुझे वरदान दिया था जो सच साबित हुआ।

           स्वामी बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, मैंने तो तुम्हें कोई वरदान नहीं दिया। मैंने तो तुम्हें मेहनत का पाठ पढ़ाया था।  जिसे तुमने अचूक मंत्र की तरह याद रखा। बेटे, मेहनत का कोई विकल्प नहीं होता।  मनुष्य के श्रम में ही सब से बड़ा वरदान छिपा होता है। तुम अपनी मेहनत और सूझबूझ से ही धनवान बने हो। कालूराम स्वामी जी की बाते सुनकर आश्चर्यचकित हो गया। वह स्वामी जी को घर ले गया और अपने कारोबार के बारे में सारी जानकारी दी, फिर जलपान करवा कर उन्हें सादर विदा किया।  अंतः किसी ने सच ही कहा है -

             "जिन खोजा तिन पाईयाँ, गहरे पानी पैठ। 
                                   वो बावरी क्या पाईयाँ, जो रहे किनारे बैठ।। "         

सीख - मंत्र या वरदान मनुष्य को सद्गुणों से जोड़ते है अच्छी भावना मन में भर देता है लेकिन उसे धारण कर कर्म में उतरने से और मेहनत करने से ही सफलता मिलता है।