Friday, July 12, 2013

"जगन्नाथ रथयात्रा"



 जगन्नाथ रथयात्रा, पुरी
 
जगन्नाथ रथयात्रा भारत में मनाए जाने वाले धार्मिक महामहोत्सवों में सबसे प्रमुख तथा महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह रथयात्रा न केवल भारत अपितु विदेशों से आने वाले पर्यटकों के लिए भी ख़ासी दिलचस्पी और आकर्षण का केंद्र बनती है। भगवान श्रीकृष्ण के अवतार 'जगन्नाथ' की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। सागर तट पर बसे पुरी शहर में होने वाली 'जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव' के समय आस्था का जो विराट वैभव देखने को मिलता है, वह और कहीं दुर्लभ है। इस रथयात्रा के दौरान भक्तों को सीधे प्रतिमाओं तक पहुँचने का बहुत ही सुनहरा अवसर प्राप्त होता है। जगन्नाथ रथयात्रा दस दिवसीय महोत्सव होता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। देश-विदेश से लाखों लोग इस पर्व के साक्षी बनने हर वर्ष यहाँ आते हैं। भारत के चार पवित्र धामों में से एक पुरी के 800 वर्ष पुराने मुख्य मंदिर में योगेश्वर श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं। साथ ही यहाँ बलभद्र एवं सुभद्रा भी हैं।

वर्तमान रथयात्रा में जगन्नाथ को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध हैं। जगन्नाथ मंदिर में पूजा, आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन धर्मावलम्बियों ने भी प्रभावित किया है। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होता है, ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करता है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उसे माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार 'राजा इन्द्रद्युम्न' भगवान जगन्नाथ को 'शबर राजा' से यहां लेकर आये थे तथा उन्होंने ही मूल मंदिर का निर्माण कराया था जो बाद में नष्ट हो गया। इस मूल मंदिर का कब निर्माण हुआ और यह कब नष्ट हो गया इस बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। 'ययाति केशरी' ने भी एक मंदिर का निर्माण कराया था। वर्तमान 65 मीटर ऊंचे मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में चोल 'गंगदेव' तथा 'अनंग भीमदेव' ने कराया था। परंतु जगन्नाथ संप्रदाय वैदिक काल से लेकर अब तक मौजूद है।
 भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए रथों का निर्माण लकड़ियों से होता है। इसमें कोई भी कील या काँटा, किसी भी धातु का नहीं लगाया जाता। यह एक धार्मिक कार्य है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा है। रथों का निर्माण अक्षय तृतीया से 'वनजगा' महोत्सव से प्रारम्भ होता है तथा लकड़ियाँ चुनने का कार्य इसके पूर्व बसन्त पंचमी से शुरू हो जाता है। पुराने रथों की लकड़ियाँ भक्तजन श्रद्धापूर्वक ख़रीद लेते हैं और अपने–अपने घरों की खिड़कियाँ, दरवाज़े आदि बनवाने में इनका उपयोग करते हैं।

रथयात्रा एक सामुदायिक पर्व है। घरों में कोई भी पूजा इस अवसर पर नहीं होती है तथा न ही कोई उपवास रखा जाता है। जगन्नाथपुरी और भगवान जगन्‍नाथ की कुछ मौलिक विशेषताएं हैं। यहां किसी प्रकार का जातिभेद नहीं है। जगन्‍नाथ के लिए पकाया गया चावल वहां के पुरोहित निम्‍न कोटि के नाम से पुकारे जाने वाले लोगों से भी लेते हैं। जगन्‍नाथ को चढ़ाया हुआ चावल कभी अशुद्घ नहीं होता, इसे 'महाप्रसाद' की संज्ञा दी गयी है। इसकी विशेषता रथयात्रा पर्व की महत्‍ता है। इसका पुरी के चौबीस पर्वों में सर्वाधिक महत्‍व है। रथ तीर्थ या‌‌त्रियों और कुशल मजदूरों द्वारा खींचे जाते हैं। भावुकतापूर्ण गीतों से य‌ह 'महा उत्‍सव' मनाया जाता है।

जगन्नाथ रथयात्रा, उड़ीसा

अधिक मास में उत्सव

जिस वर्ष आषाढ़ मास में अधिक मास होता है, उस वर्ष रथयात्रा - उत्सव के साथ एक नया महोत्सव और भी होता है, जिसे 'नवकलेवर उत्सव' कहते हैं। इस उत्सव पर भगवान जगन्नाथ अपना पुराना कलेवर त्याग कर नया कलेवर धारण करते हैं, अर्थात लकड़ियों की नयी मूर्तियाँ बनाई जाती हैं तथा पुरानी मूर्तियों को मन्दिर परिसर में ही 'कोयली वैकुण्ठ' नामक स्थान पर भू - समाधि दे दी जाती है।

No comments:

Post a Comment